लखनऊ : संजीव माहेश्वरी उर्फ जीवा की कोर्ट परिसर में गोली मारकर हत्या के बाद एक बार फिर से सिविल कोर्ट परिसर की सुरक्षा बहस का मुद्दा बनी गई है. बहरहाल सिविल कोर्ट की सुरक्षा के लिए शासन और डीजीपी उत्तर प्रदेश की ओर से सख्त दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं. इससे पहले भी कई बार कोर्ट की सुरक्षा को लेकर दिशा निर्देश जारी किए जा चुके हैं. इसके बावजूद पुलिस चूक ही जाती है. दूसरी ओर लखनऊ बार एसोसिएशन ने पुलिस को कठघरे में खड़ा करते हुए घटना के दौरान ड्यूटी पर तैनात पुलिस कर्मचारियों को बर्खास्त करने और सुरक्षा व्यवस्था एडीजी स्तर के अधिकारी के हाथ में देने की मांग की है.
असल में कोर्ट परिसर की सुरक्षा में एक बड़ी अड़चन दबंग प्रवृत्ति के वकील और फर्जी वकील ही बन रहे हैं. वकीलों ने लखनऊ में ऐसा माहौल बना रखा है कि सुरक्षा में तैनात ड्यूटी कर्मचारी उनसे वाद-विवाद करने से बचते हैं. दहशत के ऐसे माहौल में सुरक्षा कैसे हो सकती है. उदाहरण के तौर में पिछले दिनों हुई सिविल कोर्ट में चेकिंग को लेकर एक अधिवक्ता और महिला पुलिस कर्मचारी के बीच में विवाद हुआ था. विवाद इतना बढ़ गया कि वकीलों ने कोर्ट परिसर में जमकर बवाल किया. इतना ही नहीं पिछले दिनों इंदिरा नगर थाने में वकीलों के दो गुटों ने जमकर हंगामा किया. इस दौरान पुलिस से भी वकीलों की कहासुनी हुई. आए दिन जमीन कब्जा और आपराधिक घटनाओं में तथाकथित वकीलों का नाम आता है.
कोर्ट परिसर की सुरक्षा में चुनौतियां
न्यायालयों के प्रवेश द्वारों पर सुरक्षा के लिए नागरिक पुलिस की तैनाती की गई है. वकीलों, उनके मुंशी, उनके मुवक्किल, वादकारी, इत्यादि की इतनी बड़ी संख्या प्रतिदिन न्यायालय आती है कि उन्हें चेक करके प्रवेश दिलाना बेहद टेढ़ी खीर है. इसके अलावा कई अधिवक्ता भी जांचकर्ताओं के साथ विवाद व मारपीट करने लगते हैं. कुछ अधिवक्ताओं का यह भी कहना है कि क्या हम चोर-डकैत हैं जो हमारी तलाशी होगी. ऐसे लोग अपना परिचय पत्र दिखाने तक में बेइज्जती महसूस करते हैं. कोई भी अधिवक्ता अपना बस्ता स्कैनर मशीन से गुजारने को तैयार नहीं होता है. कोई भी अधिवक्ता अपने वादकारी और अपने मुवक्किल का पास नहीं बनाता है. कई अधिवक्ता फर्जी जमानतदार लेकर आते हैं वह चेकिंग का विरोध करते हैं. आरोपी को सरेंडर कराने वाले मुवक्किल को कभी-कभी अधिवक्तागण ही वकीलों को कपड़े या बुर्का पहना कर कोर्ट ले आते हैं, क्योंकि वह चेकिंग कराना नहीं चाहते हैं.
आसान है पुलिस पर सवाल करना
न्यायालय की सुरक्षा के लिए बार-बार पुलिस का विरोध करना, पुलिस पर आक्षेप लगाना आसान है, लेकिन जब तक बार एसोसिएशन और अधिवक्तागण नहीं चाहेंगे तब तक न्यायालय सुरक्षा संभव नहीं हो पाएगी. यदि न्यायालय की सुरक्षा को हाईकोर्ट की तरह केंद्रीय अर्धसैनिक बलों को दे दी जाए तो एक ओर जहां राज्य सरकार पर अरबों रुपये का खर्च बढ़ेगा. वहीं यह तय है कि सामान्य अधिवक्ता प्रतिदिन विवाद करेंगे और कानून व्यवस्था की समस्या खड़ी होगी. केंद्रीय अर्धसैनिक बलों की नियुक्ति से अधिवक्ता का प्रवेश न्यायालय में ऐसे नहीं हो पाएगा जिस प्रकार से अभी हो जाता है. अभी प्रतिदिन हजारों लोग काला कोट पहनकर बिना बैंड लगाए या बैंड लगाकर न्यायालयों में आवागमन करते हैं और उनकी कोई पहचान स्थापित नहीं होती है. ऐसे में यह चिंता का विषय बार एसोसिएशन के लिए भी उतना ही है जितना कि पुलिस और राज्य सरकार के लिए. इसमें न्यायालयों को भी आगे बढ़ कर आना होगा तथा यह फिल्टर करना पड़ेगा कि कॉज लिस्ट में जिन अधिवक्ताओं के केस लगे हों वही न्यायालय की तरफ बढ़ें अन्य लोग जो अधिवक्ता चैंबर हैं या शेड हैं, वहीं पर रहें. न्यायालयों को और न्यायालय परिसर को दो भाग में पृथक करने की आवश्यकता पड़ेगी.
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