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NDA versus INDIA in Bihar : राजद और जदयू गठबंधन को चुनौती देना आसान नहीं, क्या है भाजपा की रणनीति, जानें - लोकसभा चुनाव 2023

अगले लोकसभा चुनाव के लिए सभी पार्टियों ने अपनी-अपनी रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है. पार्टियां राज्य के हिसाब से राजनीतिक समीकरणों को बिठा रहीं हैं. बिहार में भी कुछ ऐसा ही दिख रहा है. यहां पर जब से राजद और जदयू के बीच गठबंधन हुआ है, तब से भाजपा के लिए कठिन चुनौती उत्पन्न हो गई है. भाजपा इसका किस तरीके से सामना कर रही है और इस गठबंधन का सामना करने के लिए पार्टी किन-किन को साध रही है, पढ़ें वरिष्ठ पत्रकार अरुणिम भुइयां का एक विश्लेषण.

alliance in Bihar
बिहार में गठबंधन की राजनीति
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Published : Jul 25, 2023, 7:56 PM IST

नई दिल्ली : राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यू के बीच गठबंधन होने के बाद बिहार में भारतीय जनता पार्टी के सामने कठिन चुनौती उत्पन्न हो गई है. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि नए गठबंधन (इंडिया) ने बिहार में भाजपा को रणनीति बदलने पर मजबूर कर दिया है.

राजनीतिक मामलों के जानकार और चुनाव विश्लेषक संजय कुमार ने ईटीवी भारत से विशेष बातचीत में बताया कि जब तक राजद और जदयू का गठबंधन नहीं था, तो भाजपा के लिए स्थिति अनुकूल थी. लेकिन अब वे 'इंडिया' (विपक्षी दलों का नया गठबंधन) के तहत एक साथ होकर चुनाव लड़ेंगे, और यदि उनके बीच सबकुछ ठीक रहा, तो भाजपा को टफ फाइट का सामना करना पड़ेगा.

पिछले साल नीतीश कुमार ने भाजपा से तौबा कर ली थी. संबंध तोड़ने के बाद उन्होंने राजद के साथ नया गठबंधन बनाया. नीतीश ने लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव को उप मुख्यंत्री भी बनाया.

2019 के लोकसभा चुनाव में एनडीए को 40 में से 39 सीटें मिली थीं. लेकिन उस समय भाजपा और जदयू साथ-साथ थे. जदयू को 16, जबकि भाजपा को 17 सीटें मिली थीं. भाजपा को जितनी सीटें मिली थीं, उसने सारी सीटें जीत ली थीं. जेडीयू को 17 में से 16 सीटों पर जीत मिली थीं. छह सीटें एलजेपी को मिली थीं.

पर, अब परिस्थिति बदल चुकी है. नीतीश कुमार ने विपक्षी दलों को एक करने के लिए नई पहल की. अलग-अलग राज्यों में जाकर विपक्षी दलों के नेताओं से मुलाकात की. उसके बाद विपक्षी दलों ने इंडिया नाम से नए गठबंधन का ऐलान भी कर दिया. अब नीतीश की कोशिश है कि प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र पर विपक्ष का मात्र एक उम्मीदवार खड़ा हो. वे उस ओर प्रयासरत हैं.

संजय कुमार की राय में यह जितना आसान दिखता है, उतना आसान नहीं है. उन्होंने कहा कि 'इंडिया' के सामने सबसे बड़ी चुनौती सीट साझा करने की है. हालांकि, संजय कुमार ने कहा कि कम से कम बिहार में 'इंडिया' के सामने ऐसी कोई चुनौती नहीं है, क्योंकि यहां पर जदयू और राजद दोनों बड़े दल हैं.

संजय कुमार ने कहा, 'समस्या छोटे दलों के साथ है. कांग्रेस बिहार में उतनी ताकतवर नहीं है. लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर वह बड़ी पार्टी है. ऐसे में वह ज्यादा से ज्यादा सीटों पर दावा करेगी.'

भाजपा के सामने बिहार में सबसे महत्वपूर्ण और जटिल मुद्दा जातीय समीकरण से पार पाने का है. संजय कुमार ने कहा कि राजद के पास 14 फीसदी यादव और 16 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं का सपोर्ट बेस है. कुल मिलाकर यह 30 फीसदी हो जाता है. इसलिए किसी भी चुनाव को अपने पक्ष में करने के लिए यह समीकरण बहुत सॉलिड है.

2020 के विधानसभा चुनाव में जदयू को उच्च जाति का भी समर्थन था. यानी ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत और कायस्थ. कुल मिलाकर इनका वोट बेस 21 फीसदी है. इनमें वे भी शामिल हैं, जो पंजाबी मूल के खत्री और सिंधी हैं. ये प्रवासी हैं. अपर कास्ट बेस में इनका योगदान एक फीसदी का है. हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मानते हैं कि नीतीश कुमार को अपर कास्ट तक सीमित करना सही नहीं होगा.

उन्होंने कहा, 'अपर कास्ट का वोट बैंक मुख्य रूप से भाजपा के साथ है. जदयू का वोट ओबीसी पर आधारित है. उनमें भी कुर्मी और कोईरी, जिन्हें लवकुश कहा जाता है, प्रमुख हैं.' दोनों को मिलाकर छह-सात फीसदी वोट बनते हैं.' प्रेम कुमार ने कहा कि मुस्लिम मतदाता जिधर भी जाएंगे, वह गठबंधन उतना अधिक मजबूत माना जाएगा और इस मामले में राजद और जदयू, दोनों का रिकॉर्ड सही है. 2015 के विधानसभा चुनाव में राजद और जदयू ने इसी बेस पर भाजपा की हवा निकाल दी थी.

ऐसे में सवाल उठता है कि जदयू-राजद के साथ आने के बाद भाजपा की रणनीति क्या होगी ? पिछले महीने भाजपा कोर कमेटी की बैठक हुई थी. सूत्रों के अनुसार भाजपा 40 में से 30 सीटों पर चुनाव लड़ सकती है. छह सीटें एलजेपी मिल सकती है. एलजेपी के किस गुट को कितना मिलता है, वे आपस में तय करेंगे. एक गुट का नेतृत्व चिराग पासवान कर रहे हैं, जबकि दूसरे गुट का नेतृत्व पशुपति पारस कर रहे हैं. दो सीटों उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी को मिलने की उम्मीद है. बची हुई सीटें 'हम' को दी जा सकती हैं. हम, जीतन राम मांझी की पार्टी है. कुछ महीने पहले तक वह नीतीश कुमार के साथ थे. मांझी के बेटे नीतीश मंत्रिमंडल में शामिल थे.

पर्यवेक्षकों के अनुसार भाजपा नीतीश कुमार के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश कर रही है. वह गैर यादव और अधिकांश दलित जातियों को साधने में जुटी है. प्रेम कुमार ने कहा कि पासवान इस काम को कर चुके हैं. 2020 के विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान ने जदयू के प्रत्येक सीट पर अपनी पार्टी के कैंडिडेट को खड़ा कर दिया था, इससे दलित मतों का बंटावारा हो गया और जदयू को इसका भारी नुकसान उठाना पड़ा. वह बिहार में तीसरे नंबर की पार्टी बन गई. राजद और भाजपा, दोनों को इनसे ज्यादा सीटें मिली थीं.

इस महीने की शुरुआत में बेंगलुरु में जब इंडिया गठबंधन की बैठक चल रही थी, भाजपा ने उसी दिन एनडीए की भी बैठक बुलाई. इस बैठक में भाजपा ने एलजेपी के दोनों गुटों को आमंत्रित किया था. इस बैठक से ठीक पहले चिराग पासवान ने अपने चाचा पशुपति पारस के पैर छुए. खुद पीएम ने चिराग पासवान की पीठ थपथपाई. चिराग और चाचा आपस में गले भी मिले. वैसे, दोनों के बीच मुख्य लड़ाई हाजीपुर सीट को लेकर है. चिराग पासवान और पशुपति पारस, दोनों इस सीट पर दावा ठोक रहे हैं. पशुपति पारस ने सीट छोड़ने से मना कर दिया है.

अब इसका अर्थ यही हुआ कि भाजपा भी जदयू-राजद की चुनौती को समझ रही है, इसिलए उसने अभी से ही जातीय समीकरण को ठीक करना शुरू कर दिया है. एलजेपी के दोनों गुटों को आमंत्रित करना उनकी रणनीति का हिस्सा है. ठीक इसी तरह से उपेंद्र कुशवाहा को भी आमंत्रित करना रणनीति का एक हिस्सा है. और यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि राजद-जदयू साथ-साथ आ गए हैं.

ये भी पढ़ें : पीएम मोदी के तंज का राहुल ने दिया जवाब, कहा- प्रधानमंत्री चाहे कुछ भी कहें, हम 'INDIA' हैं

नई दिल्ली : राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यू के बीच गठबंधन होने के बाद बिहार में भारतीय जनता पार्टी के सामने कठिन चुनौती उत्पन्न हो गई है. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि नए गठबंधन (इंडिया) ने बिहार में भाजपा को रणनीति बदलने पर मजबूर कर दिया है.

राजनीतिक मामलों के जानकार और चुनाव विश्लेषक संजय कुमार ने ईटीवी भारत से विशेष बातचीत में बताया कि जब तक राजद और जदयू का गठबंधन नहीं था, तो भाजपा के लिए स्थिति अनुकूल थी. लेकिन अब वे 'इंडिया' (विपक्षी दलों का नया गठबंधन) के तहत एक साथ होकर चुनाव लड़ेंगे, और यदि उनके बीच सबकुछ ठीक रहा, तो भाजपा को टफ फाइट का सामना करना पड़ेगा.

पिछले साल नीतीश कुमार ने भाजपा से तौबा कर ली थी. संबंध तोड़ने के बाद उन्होंने राजद के साथ नया गठबंधन बनाया. नीतीश ने लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव को उप मुख्यंत्री भी बनाया.

2019 के लोकसभा चुनाव में एनडीए को 40 में से 39 सीटें मिली थीं. लेकिन उस समय भाजपा और जदयू साथ-साथ थे. जदयू को 16, जबकि भाजपा को 17 सीटें मिली थीं. भाजपा को जितनी सीटें मिली थीं, उसने सारी सीटें जीत ली थीं. जेडीयू को 17 में से 16 सीटों पर जीत मिली थीं. छह सीटें एलजेपी को मिली थीं.

पर, अब परिस्थिति बदल चुकी है. नीतीश कुमार ने विपक्षी दलों को एक करने के लिए नई पहल की. अलग-अलग राज्यों में जाकर विपक्षी दलों के नेताओं से मुलाकात की. उसके बाद विपक्षी दलों ने इंडिया नाम से नए गठबंधन का ऐलान भी कर दिया. अब नीतीश की कोशिश है कि प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र पर विपक्ष का मात्र एक उम्मीदवार खड़ा हो. वे उस ओर प्रयासरत हैं.

संजय कुमार की राय में यह जितना आसान दिखता है, उतना आसान नहीं है. उन्होंने कहा कि 'इंडिया' के सामने सबसे बड़ी चुनौती सीट साझा करने की है. हालांकि, संजय कुमार ने कहा कि कम से कम बिहार में 'इंडिया' के सामने ऐसी कोई चुनौती नहीं है, क्योंकि यहां पर जदयू और राजद दोनों बड़े दल हैं.

संजय कुमार ने कहा, 'समस्या छोटे दलों के साथ है. कांग्रेस बिहार में उतनी ताकतवर नहीं है. लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर वह बड़ी पार्टी है. ऐसे में वह ज्यादा से ज्यादा सीटों पर दावा करेगी.'

भाजपा के सामने बिहार में सबसे महत्वपूर्ण और जटिल मुद्दा जातीय समीकरण से पार पाने का है. संजय कुमार ने कहा कि राजद के पास 14 फीसदी यादव और 16 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं का सपोर्ट बेस है. कुल मिलाकर यह 30 फीसदी हो जाता है. इसलिए किसी भी चुनाव को अपने पक्ष में करने के लिए यह समीकरण बहुत सॉलिड है.

2020 के विधानसभा चुनाव में जदयू को उच्च जाति का भी समर्थन था. यानी ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत और कायस्थ. कुल मिलाकर इनका वोट बेस 21 फीसदी है. इनमें वे भी शामिल हैं, जो पंजाबी मूल के खत्री और सिंधी हैं. ये प्रवासी हैं. अपर कास्ट बेस में इनका योगदान एक फीसदी का है. हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मानते हैं कि नीतीश कुमार को अपर कास्ट तक सीमित करना सही नहीं होगा.

उन्होंने कहा, 'अपर कास्ट का वोट बैंक मुख्य रूप से भाजपा के साथ है. जदयू का वोट ओबीसी पर आधारित है. उनमें भी कुर्मी और कोईरी, जिन्हें लवकुश कहा जाता है, प्रमुख हैं.' दोनों को मिलाकर छह-सात फीसदी वोट बनते हैं.' प्रेम कुमार ने कहा कि मुस्लिम मतदाता जिधर भी जाएंगे, वह गठबंधन उतना अधिक मजबूत माना जाएगा और इस मामले में राजद और जदयू, दोनों का रिकॉर्ड सही है. 2015 के विधानसभा चुनाव में राजद और जदयू ने इसी बेस पर भाजपा की हवा निकाल दी थी.

ऐसे में सवाल उठता है कि जदयू-राजद के साथ आने के बाद भाजपा की रणनीति क्या होगी ? पिछले महीने भाजपा कोर कमेटी की बैठक हुई थी. सूत्रों के अनुसार भाजपा 40 में से 30 सीटों पर चुनाव लड़ सकती है. छह सीटें एलजेपी मिल सकती है. एलजेपी के किस गुट को कितना मिलता है, वे आपस में तय करेंगे. एक गुट का नेतृत्व चिराग पासवान कर रहे हैं, जबकि दूसरे गुट का नेतृत्व पशुपति पारस कर रहे हैं. दो सीटों उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी को मिलने की उम्मीद है. बची हुई सीटें 'हम' को दी जा सकती हैं. हम, जीतन राम मांझी की पार्टी है. कुछ महीने पहले तक वह नीतीश कुमार के साथ थे. मांझी के बेटे नीतीश मंत्रिमंडल में शामिल थे.

पर्यवेक्षकों के अनुसार भाजपा नीतीश कुमार के वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश कर रही है. वह गैर यादव और अधिकांश दलित जातियों को साधने में जुटी है. प्रेम कुमार ने कहा कि पासवान इस काम को कर चुके हैं. 2020 के विधानसभा चुनाव में चिराग पासवान ने जदयू के प्रत्येक सीट पर अपनी पार्टी के कैंडिडेट को खड़ा कर दिया था, इससे दलित मतों का बंटावारा हो गया और जदयू को इसका भारी नुकसान उठाना पड़ा. वह बिहार में तीसरे नंबर की पार्टी बन गई. राजद और भाजपा, दोनों को इनसे ज्यादा सीटें मिली थीं.

इस महीने की शुरुआत में बेंगलुरु में जब इंडिया गठबंधन की बैठक चल रही थी, भाजपा ने उसी दिन एनडीए की भी बैठक बुलाई. इस बैठक में भाजपा ने एलजेपी के दोनों गुटों को आमंत्रित किया था. इस बैठक से ठीक पहले चिराग पासवान ने अपने चाचा पशुपति पारस के पैर छुए. खुद पीएम ने चिराग पासवान की पीठ थपथपाई. चिराग और चाचा आपस में गले भी मिले. वैसे, दोनों के बीच मुख्य लड़ाई हाजीपुर सीट को लेकर है. चिराग पासवान और पशुपति पारस, दोनों इस सीट पर दावा ठोक रहे हैं. पशुपति पारस ने सीट छोड़ने से मना कर दिया है.

अब इसका अर्थ यही हुआ कि भाजपा भी जदयू-राजद की चुनौती को समझ रही है, इसिलए उसने अभी से ही जातीय समीकरण को ठीक करना शुरू कर दिया है. एलजेपी के दोनों गुटों को आमंत्रित करना उनकी रणनीति का हिस्सा है. ठीक इसी तरह से उपेंद्र कुशवाहा को भी आमंत्रित करना रणनीति का एक हिस्सा है. और यह सब इसलिए हो रहा है क्योंकि राजद-जदयू साथ-साथ आ गए हैं.

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