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मनरेगा भुगतान में जातियों को प्राथमिकता देने पर संसदीय समिति ने जताई चिंता

संसदीय समिति ने मनरेगा के तहत दिए जाने वाले भुगतान को लेकर सवाल उठाए हैं. समिति का कहना है कि कुछ जातियों को प्राथमिकता के आधार पर भुगतान की बात ठीक नहीं है. इससे लाभार्थियों में दरार पैदा होगी. ग्रामीण विकास मंत्रालय को जाति के आधार पर किसी भी प्रकार का भुगतान मापदंड नहीं बनाना चाहिए. वरिष्ठ संवाददाता गौतम देबरॉय की रिपोर्ट में जानिए संसदीय समिति ने और क्या कहा.

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Published : Aug 12, 2022, 4:36 PM IST

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संसद

नई दिल्ली: महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) की कल्याणकारी प्रकृति को जाति के आधार पर विभाजित नहीं किया जाना चाहिए. संसदीय समिति ने ग्रामीण विकास मंत्रालय को निधि जारी करते समय जाति के आधार पर किसी भी प्रकार के अलगाव के बिना एकल निधि अंतरण आदेश बहाल करने का सुझाव दिया है.

दरअसल 2022-23 में मनरेगा (MGNREGA) के तहत नियोजित मजदूरी के भुगतान से संबंधित अनुदान मांगों की जांच के दौरान चौंकाने वाला तथ्य सामने आया है. मनरेगा के लाभार्थियों को जाति के आधार पर मजदूरी का भुगतान करने की प्रथा थी. इसमें एससी और एसटी से लेकर शेष अन्य को प्राथमिकता के आधार पर भुगतान किया जाता है. संसदीय समिति ने ग्रामीण विकास और पंचायती राज पर ऐसे खुलासे पर हैरानी व्यक्त की है, जहां मनरेगा भुगतान जारी करने के लिए जाति आधारित व्यवस्था लागू की गई है.

सांसद प्रतापराव जाधव (Lok Sabha MP Prataprao Jadhav) की अध्यक्षता वाली समिति ने कहा, 'इस तरह के विचार के पीछे क्या तर्क है, समिति इसे समझ नहीं पाई. मनरेगा योजना 2005 से शुरू हुई है. इस तरह की गैरबराबरी का अधिनियम में कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया है.'

समिति ने कहा कि समाज के विभिन्न वर्गों में मनरेगा के लाभार्थियों में केवल एक चीज समान है कि वे गरीब हैं, निराश्रित हैं और उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है, लेकिन उनके अस्तित्व के मूल स्रोत को देखने के लिए मनरेगा के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है. इस प्रकार, वे आर्थिक रूप से कमजोर आबादी हैं और किसी भी धर्म/जाति से आ सकते हैं. ऐसी भुगतान प्रणाली का निर्माण जिसमें एक विशिष्ट समुदाय को केवल जाति के आधार पर तरजीह दी जाती है, इससे लाभार्थियों के बीच केवल दरार ही पैदा होगी.

समिति ने पिछले सप्ताह लोकसभा में प्रस्तुत अपनी 26वीं रिपोर्ट में कहा, 2021-22 से शुरू हुई इस प्रथा को तत्काल सुधारने की आवश्यकता है. इसे कतई बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए. योजना के तहत काम करने वाले प्रत्येक श्रमिक को मनरेगा द्वारा निर्धारित समय-सीमा के भीतर भुगतान मिले. मनरेगा के तहत प्रत्येक ग्रामीण परिवार को एक वित्तीय वर्ष में कम से कम 100 दिनों का रोजगार दिया जाता है.

हालांकि, ग्रामीण विकास मंत्रालय के अधिकारियों ने कहा कि श्रेणीवार (एससी, एसटी और अन्य) वेतन भुगतान प्रणाली 2021-22 से लागू की गई है. अधिकारियों ने कहा, 'वित्त वर्ष 2022-23 से मजदूरी भुगतान के लिए एकल एफटीओ शुरू किया गया है, ताकि जमीन पर धन के सटीक प्रवाह को दर्शाने के लिए विभिन्न श्रेणियों के लिए अलग-अलग बजट का प्रावधान किया जा सके.'

'जनकल्याणकारी योजना पर पड़ सकता है असर' : दूसरी ओर समिति ने कहा कि 'मनरेगा के तहत जाति आधारित भुगतान के कारण ग्रामीण जनता के बीच पैदा हुई कोई भी दरार इस जनकल्याणकारी योजना पर असर डाल सकती है, इसे तुरंत रोका जाना चाहिए.' संसदीय समिति ने कहा, 'इस तरह की प्रथा को पूरी तरह से खत्म करने की जरूरत है और मनरेगा के तहत भुगतान कानून के निहित प्रावधानों के अनुरूप ही किया जाना चाहिए.'

सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार, वर्ष 2022-23 के दौरान पूरे भारत में 15,32,67,216 सक्रिय मनरेगा श्रमिक हैं. इनमें आंध्र प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में 1 करोड़ से अधिक सक्रिय श्रमिक हैं. इस मुद्दे पर बात करते हुए तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सांसद शांता छेत्री ने ईटीवी भारत को बताया कि 'मनरेगा के वितरण में जाति आधारित प्रमुखता देकर सरकार मनरेगा श्रमिकों के विभिन्न वर्गों के बीच मतभेद पैदा कर रही है.'

शांता छेत्री इस संसदीय समिति के सदस्य भी हैं. छेत्री ने कहा, 'विभिन्न जनसंख्या समूहों के लिए धन का प्रवाह बिना किसी जाति आधार प्रणाली के होना चाहिए ... बिना किसी प्रकार के अलगाव के एक ही फंड ट्रांसफर ऑर्डर होना चाहिए.' उन्होंने दावा किया कि इस जाति आधारित व्यवस्था के अलावा, सरकार अलग-अलग राज्यों में फंड जारी करने में भी भेदभाव कर रही है. छेत्री ने कहा, 'भाजपा शासित राज्यों को प्रमुखता दी जा रही है जबकि गैर-भाजपा शासित राज्यों को कम धन मिल रहा है.'

पढ़ें- मनरेगा: राज्यों को फंड जारी करने में लेटलतीफी और असमानता

नई दिल्ली: महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) की कल्याणकारी प्रकृति को जाति के आधार पर विभाजित नहीं किया जाना चाहिए. संसदीय समिति ने ग्रामीण विकास मंत्रालय को निधि जारी करते समय जाति के आधार पर किसी भी प्रकार के अलगाव के बिना एकल निधि अंतरण आदेश बहाल करने का सुझाव दिया है.

दरअसल 2022-23 में मनरेगा (MGNREGA) के तहत नियोजित मजदूरी के भुगतान से संबंधित अनुदान मांगों की जांच के दौरान चौंकाने वाला तथ्य सामने आया है. मनरेगा के लाभार्थियों को जाति के आधार पर मजदूरी का भुगतान करने की प्रथा थी. इसमें एससी और एसटी से लेकर शेष अन्य को प्राथमिकता के आधार पर भुगतान किया जाता है. संसदीय समिति ने ग्रामीण विकास और पंचायती राज पर ऐसे खुलासे पर हैरानी व्यक्त की है, जहां मनरेगा भुगतान जारी करने के लिए जाति आधारित व्यवस्था लागू की गई है.

सांसद प्रतापराव जाधव (Lok Sabha MP Prataprao Jadhav) की अध्यक्षता वाली समिति ने कहा, 'इस तरह के विचार के पीछे क्या तर्क है, समिति इसे समझ नहीं पाई. मनरेगा योजना 2005 से शुरू हुई है. इस तरह की गैरबराबरी का अधिनियम में कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया है.'

समिति ने कहा कि समाज के विभिन्न वर्गों में मनरेगा के लाभार्थियों में केवल एक चीज समान है कि वे गरीब हैं, निराश्रित हैं और उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है, लेकिन उनके अस्तित्व के मूल स्रोत को देखने के लिए मनरेगा के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है. इस प्रकार, वे आर्थिक रूप से कमजोर आबादी हैं और किसी भी धर्म/जाति से आ सकते हैं. ऐसी भुगतान प्रणाली का निर्माण जिसमें एक विशिष्ट समुदाय को केवल जाति के आधार पर तरजीह दी जाती है, इससे लाभार्थियों के बीच केवल दरार ही पैदा होगी.

समिति ने पिछले सप्ताह लोकसभा में प्रस्तुत अपनी 26वीं रिपोर्ट में कहा, 2021-22 से शुरू हुई इस प्रथा को तत्काल सुधारने की आवश्यकता है. इसे कतई बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिए. योजना के तहत काम करने वाले प्रत्येक श्रमिक को मनरेगा द्वारा निर्धारित समय-सीमा के भीतर भुगतान मिले. मनरेगा के तहत प्रत्येक ग्रामीण परिवार को एक वित्तीय वर्ष में कम से कम 100 दिनों का रोजगार दिया जाता है.

हालांकि, ग्रामीण विकास मंत्रालय के अधिकारियों ने कहा कि श्रेणीवार (एससी, एसटी और अन्य) वेतन भुगतान प्रणाली 2021-22 से लागू की गई है. अधिकारियों ने कहा, 'वित्त वर्ष 2022-23 से मजदूरी भुगतान के लिए एकल एफटीओ शुरू किया गया है, ताकि जमीन पर धन के सटीक प्रवाह को दर्शाने के लिए विभिन्न श्रेणियों के लिए अलग-अलग बजट का प्रावधान किया जा सके.'

'जनकल्याणकारी योजना पर पड़ सकता है असर' : दूसरी ओर समिति ने कहा कि 'मनरेगा के तहत जाति आधारित भुगतान के कारण ग्रामीण जनता के बीच पैदा हुई कोई भी दरार इस जनकल्याणकारी योजना पर असर डाल सकती है, इसे तुरंत रोका जाना चाहिए.' संसदीय समिति ने कहा, 'इस तरह की प्रथा को पूरी तरह से खत्म करने की जरूरत है और मनरेगा के तहत भुगतान कानून के निहित प्रावधानों के अनुरूप ही किया जाना चाहिए.'

सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार, वर्ष 2022-23 के दौरान पूरे भारत में 15,32,67,216 सक्रिय मनरेगा श्रमिक हैं. इनमें आंध्र प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में 1 करोड़ से अधिक सक्रिय श्रमिक हैं. इस मुद्दे पर बात करते हुए तृणमूल कांग्रेस के राज्यसभा सांसद शांता छेत्री ने ईटीवी भारत को बताया कि 'मनरेगा के वितरण में जाति आधारित प्रमुखता देकर सरकार मनरेगा श्रमिकों के विभिन्न वर्गों के बीच मतभेद पैदा कर रही है.'

शांता छेत्री इस संसदीय समिति के सदस्य भी हैं. छेत्री ने कहा, 'विभिन्न जनसंख्या समूहों के लिए धन का प्रवाह बिना किसी जाति आधार प्रणाली के होना चाहिए ... बिना किसी प्रकार के अलगाव के एक ही फंड ट्रांसफर ऑर्डर होना चाहिए.' उन्होंने दावा किया कि इस जाति आधारित व्यवस्था के अलावा, सरकार अलग-अलग राज्यों में फंड जारी करने में भी भेदभाव कर रही है. छेत्री ने कहा, 'भाजपा शासित राज्यों को प्रमुखता दी जा रही है जबकि गैर-भाजपा शासित राज्यों को कम धन मिल रहा है.'

पढ़ें- मनरेगा: राज्यों को फंड जारी करने में लेटलतीफी और असमानता

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