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अटल को सिर आंखों पर बिठाया पर थाती सहेजना भूल गई भाजपा - अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती

आज (25 दिसंबर) भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती है. इसे लेकर केंद्र और देश के 19 सूबों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी तमाम आयोजन कर रही है. संघ परिवार भी अटल बिहारी को याद कर रहा है, लेकिन यह बात अलग है कि बीजेपी और संघ अटल से जुड़ी यादों की थाती को सहेजना भूल गए. दरअसल, युवा अटल जिस राष्ट्रधर्म पत्रिका के संस्थापक और प्रथम संपादक थे, वह पत्रिका आज अपने अस्तित्व को बचाने में जुटी है.

atal bihari vajpayee
अटल बिहारी वाजपेयी
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Published : Dec 25, 2020, 7:09 AM IST

लखनऊ : देश आज पूर्व प्रधानमंत्री और भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती मना रहा है. केंद्र और देश के 19 सूबों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी भी तमाम आयोजन कर रही है. संघ परिवार भी अटल बिहारी को याद कर रहा है. यह बात और है कि भाजपा और संघ अटल से जुड़ी यादों की थाती को सहेजना भूल गए. युवा अटल जिस राष्ट्रधर्म पत्रिका के संस्थापक और प्रथम संपादक थे, वह आज अपनी आभा खो चली है. पत्रिका का प्रकाशन करने वाला नूतन प्रिंटिंग प्रेस बंदी के कगार पर पहुंच चुका है. कोरोना काल में कई कर्मचारियों की छटनी हो चुकी है, तो कुछ को निकाले जाने की तैयारी है. पत्रिका स्वतंत्र लेखकों के भरोसे ही चल रही है. स्थिति यह है कि 'राष्ट्रधर्म' के संपादकीय विभाग में महज दो-तीन पत्रकार ही कार्यरत हैं. पत्रिका के संपादक संस्कृत और हिंदी के विद्वान वेद रत्न और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित ओम प्रकाश पांडेय हैं, जो अवैतनिक रूप से अपनी सेवाएं दे रहे हैं.

स्पेशल रिपोर्ट.

दीन दयाल उपाध्याय ने लिखा था पत्रिका का प्रथम संपादकीय
संघ की विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए राष्ट्रधर्म पत्रिका के प्रकाशन की योजना पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने बनाई थी. 31 अगस्त 1947 को प्रकाशित पत्रिका के प्रथम अंक का संपादकीय भी दीन दयाल उपाध्याय ने ही लिखा था. वह दौर था जब युवा कवि और पत्रकार रहे अटल बिहारी वाजपेयी ने 'राष्ट्रधर्म' के लिए काफी मेहनत की और संघ के विचारों को आगे ले जाने का काम किया. इसी अंक में कवि अटल ने अपनी कविता 'हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन, रग-रग हिंदू मेरा परिचय' लिखी. पहले ही अंक की आठ हजार प्रतियां प्रकाशित हुईं. उस समय यह संख्या काफी बड़ी मानी जाती थी. पत्रिका ने उस दौर में काफी नाम और सम्मान कमाया. देश के तमाम साहित्यकारों ने पत्रिका के लिए लेख लिखे. उस दौर में भी पत्रिका आर्थिक तौर पर कठिनाई में थी. युवा अटल और दीन दयाल उपाध्याय खुद प्रिंटिंग प्रेस चलाते और कॉपियां हॉकरों तक पहुंचाते. समय के साथ तकनीक बदली और अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं का स्वरूप भी बदलता गया. छपाई की तकनीक में भी बड़े बदलाव आए. यह बात और है कि इस दौर में भी पत्रिका में बड़े बदलाव देखने को नहीं मिले.

छटनी और वेतन को लेकर कर्मचारी निराश
राष्ट्रधर्म पत्रिका के संपादकीय विभाग में गिने-चुने लोग बचे हैं. स्वाभाविक है काम मुश्किल से ही चल रहा है. राष्ट्रधर्म का प्रकाशन करने वाले नूतन प्रिंटिंग प्रेस के कर्मचारी अपने कुछ सहयोगियों की छटनी से दुखी हैं. कर्मचारी वेतन को लेकर भी असंतोष जाहिर करते हैं. कर्मचारियों ने बताया कि प्रेस की स्थिति ठीक नहीं है. कोरोना के कारण छपाई का जो काम बाहर से मिल जाता था, अब वह भी नहीं मिलता है. समय पर वेतन न मिल पाने की भी समस्या है. लोगों की शिकायत है कि जो लोग नौकरी में हैं भी उन्हें भी वेतन बहुत कम मिलता है. एक कर्मचारी ने कहा कि एक समय था जब यहां 30-35 लोग काम करते थे, किंतु अब गिनती के लोग बचे हैं.

पढे़ं: 40 लाख से अधिक लोगों को वंदे भारत मिशन का मिला लाभ : विदेश मंत्रालय

पत्रिका की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं
राष्ट्रधर्म से जुड़े रहे कुछ पत्रकारों ने बताया कि किसी भी पत्रिका को चलाने के लिए एक अच्छी संपादकीय टीम की जरूरत होती है. महज दो-तीन लोगों के दम पर एक बेहतरीन पत्रिका का प्रकाशन कैसे संभव है. वह कहते हैं कि जिस विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए पत्रिका काम करती है, उसी विचारधारा को मानने वाली देश के 19 राज्यों में सरकारें हैं, लेकिन पत्रिका को उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त किसी भी अन्य राज्य से विज्ञापन नहीं मिलता है. यह बात और है कि भाजपा से पत्रिका का कोई सीधा नाता नहीं है, लेकिन भाजपा और संघ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. इसे भुलाया नहीं जा सकता? सभी जानते हैं कि किसी भी पत्र-पत्रिका का प्रकाशन बिना विज्ञापन के संभव नहीं है. संघ के लोगों ने भी कभी पत्रिका को बहुत आगे ले जाने को लेकर काम नहीं किया. बस प्रकाशन होता रहे यही कोशिश हुई. यही कारण है कि यह पत्रिका अब बस चल रही है.

अटल के आदर्शों को आगे बढ़ाने के लिए आशान्वित हैं संपादक
संपादक ओम प्रकाश पांडेय कहते हैं कि पत्रिका संघ और अटल बिहारी वाजपेयी के विचारों को सतत आगे बढ़ा रही है और इसमें अब भी कोई बाधा नहीं है. वह कहते हैं कि लोग भले कम हों, लेकिन पत्रिका का काम सतत जारी है.

वहीं, प्रबंधक पवन पुत्र बादल गर्व से बताते हैं कि आज के युग कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि संपादक खुद छपाई करे और प्रतियां बांटे. उनकी यह बात सही हो सकती है, लेकिन सवाल उठता है कि यह स्थितियां अब होनी ही क्यों चाहिए. पत्रिका की आर्थिक स्थिति और कर्मचारियों की छटनी आदि विषयों पर प्रबंधन कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है.

लखनऊ : देश आज पूर्व प्रधानमंत्री और भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती मना रहा है. केंद्र और देश के 19 सूबों में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी भी तमाम आयोजन कर रही है. संघ परिवार भी अटल बिहारी को याद कर रहा है. यह बात और है कि भाजपा और संघ अटल से जुड़ी यादों की थाती को सहेजना भूल गए. युवा अटल जिस राष्ट्रधर्म पत्रिका के संस्थापक और प्रथम संपादक थे, वह आज अपनी आभा खो चली है. पत्रिका का प्रकाशन करने वाला नूतन प्रिंटिंग प्रेस बंदी के कगार पर पहुंच चुका है. कोरोना काल में कई कर्मचारियों की छटनी हो चुकी है, तो कुछ को निकाले जाने की तैयारी है. पत्रिका स्वतंत्र लेखकों के भरोसे ही चल रही है. स्थिति यह है कि 'राष्ट्रधर्म' के संपादकीय विभाग में महज दो-तीन पत्रकार ही कार्यरत हैं. पत्रिका के संपादक संस्कृत और हिंदी के विद्वान वेद रत्न और साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित ओम प्रकाश पांडेय हैं, जो अवैतनिक रूप से अपनी सेवाएं दे रहे हैं.

स्पेशल रिपोर्ट.

दीन दयाल उपाध्याय ने लिखा था पत्रिका का प्रथम संपादकीय
संघ की विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए राष्ट्रधर्म पत्रिका के प्रकाशन की योजना पंडित दीन दयाल उपाध्याय ने बनाई थी. 31 अगस्त 1947 को प्रकाशित पत्रिका के प्रथम अंक का संपादकीय भी दीन दयाल उपाध्याय ने ही लिखा था. वह दौर था जब युवा कवि और पत्रकार रहे अटल बिहारी वाजपेयी ने 'राष्ट्रधर्म' के लिए काफी मेहनत की और संघ के विचारों को आगे ले जाने का काम किया. इसी अंक में कवि अटल ने अपनी कविता 'हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन, रग-रग हिंदू मेरा परिचय' लिखी. पहले ही अंक की आठ हजार प्रतियां प्रकाशित हुईं. उस समय यह संख्या काफी बड़ी मानी जाती थी. पत्रिका ने उस दौर में काफी नाम और सम्मान कमाया. देश के तमाम साहित्यकारों ने पत्रिका के लिए लेख लिखे. उस दौर में भी पत्रिका आर्थिक तौर पर कठिनाई में थी. युवा अटल और दीन दयाल उपाध्याय खुद प्रिंटिंग प्रेस चलाते और कॉपियां हॉकरों तक पहुंचाते. समय के साथ तकनीक बदली और अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं का स्वरूप भी बदलता गया. छपाई की तकनीक में भी बड़े बदलाव आए. यह बात और है कि इस दौर में भी पत्रिका में बड़े बदलाव देखने को नहीं मिले.

छटनी और वेतन को लेकर कर्मचारी निराश
राष्ट्रधर्म पत्रिका के संपादकीय विभाग में गिने-चुने लोग बचे हैं. स्वाभाविक है काम मुश्किल से ही चल रहा है. राष्ट्रधर्म का प्रकाशन करने वाले नूतन प्रिंटिंग प्रेस के कर्मचारी अपने कुछ सहयोगियों की छटनी से दुखी हैं. कर्मचारी वेतन को लेकर भी असंतोष जाहिर करते हैं. कर्मचारियों ने बताया कि प्रेस की स्थिति ठीक नहीं है. कोरोना के कारण छपाई का जो काम बाहर से मिल जाता था, अब वह भी नहीं मिलता है. समय पर वेतन न मिल पाने की भी समस्या है. लोगों की शिकायत है कि जो लोग नौकरी में हैं भी उन्हें भी वेतन बहुत कम मिलता है. एक कर्मचारी ने कहा कि एक समय था जब यहां 30-35 लोग काम करते थे, किंतु अब गिनती के लोग बचे हैं.

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पत्रिका की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं
राष्ट्रधर्म से जुड़े रहे कुछ पत्रकारों ने बताया कि किसी भी पत्रिका को चलाने के लिए एक अच्छी संपादकीय टीम की जरूरत होती है. महज दो-तीन लोगों के दम पर एक बेहतरीन पत्रिका का प्रकाशन कैसे संभव है. वह कहते हैं कि जिस विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए पत्रिका काम करती है, उसी विचारधारा को मानने वाली देश के 19 राज्यों में सरकारें हैं, लेकिन पत्रिका को उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त किसी भी अन्य राज्य से विज्ञापन नहीं मिलता है. यह बात और है कि भाजपा से पत्रिका का कोई सीधा नाता नहीं है, लेकिन भाजपा और संघ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. इसे भुलाया नहीं जा सकता? सभी जानते हैं कि किसी भी पत्र-पत्रिका का प्रकाशन बिना विज्ञापन के संभव नहीं है. संघ के लोगों ने भी कभी पत्रिका को बहुत आगे ले जाने को लेकर काम नहीं किया. बस प्रकाशन होता रहे यही कोशिश हुई. यही कारण है कि यह पत्रिका अब बस चल रही है.

अटल के आदर्शों को आगे बढ़ाने के लिए आशान्वित हैं संपादक
संपादक ओम प्रकाश पांडेय कहते हैं कि पत्रिका संघ और अटल बिहारी वाजपेयी के विचारों को सतत आगे बढ़ा रही है और इसमें अब भी कोई बाधा नहीं है. वह कहते हैं कि लोग भले कम हों, लेकिन पत्रिका का काम सतत जारी है.

वहीं, प्रबंधक पवन पुत्र बादल गर्व से बताते हैं कि आज के युग कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है कि संपादक खुद छपाई करे और प्रतियां बांटे. उनकी यह बात सही हो सकती है, लेकिन सवाल उठता है कि यह स्थितियां अब होनी ही क्यों चाहिए. पत्रिका की आर्थिक स्थिति और कर्मचारियों की छटनी आदि विषयों पर प्रबंधन कुछ भी बोलने को तैयार नहीं है.

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