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राष्ट्रपति चुनाव : क्या नरेंद्र मोदी के लिए 'अब्दुल कलाम' बनेंगे आरिफ मोहम्मद खान ?

जैसे-जैसे जुलाई का महीना नजदीक आ रहा है, वैसे-वैसे राष्ट्रपति पद के लिए संभावित उम्मीदवारों के नाम सामने आ रहे हैं. अभी तक सामने आए सारे नाम बीजेपी की तरफ से ही आए हैं. माना जा रहा है कि बीजेपी 2024 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर एससी-एसटी और अल्पसंख्यक वर्ग के प्रतिनिधि को राष्ट्रपति बनाना चाहती है. अनुसुइया उइके, द्रौपदी मूर्मू के बाद अब आरिफ मोहम्मद खान का नाम भी उछला. हालांकि अभी तक नामों की चर्चा कयासबाजी ही है.

Arif Mohd Khan
Arif Mohd Khan
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Published : May 7, 2022, 7:52 PM IST

नई दिल्ली : राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के बाद रायसीना हिल्स में किसकी एंट्री होगी यानी अगला राष्ट्रपति कौन होगा. बीजेपी गठबंधन अभी केंद्र की गद्दी पर काबिज है और एनडीए का शासन 17 राज्यों में है. इस लिहाज से ऐसा माना जा सकता है कि भाजपा के प्रत्याशी को ही राष्ट्रपति पद मिल सकता है. पिछली बार 2017 में एनडीए ने रामनाथ कोविंद को अचानक सामने लाकर सबको चौंका दिया था. इस बार भी कई नामों पर चर्चा है, उनमें छत्तीसगढ़ की राज्यपाल अनुसुइया उइके, झारखंड की पूर्व राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू और केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान शामिल हैं. अनुसूइया उइके मध्य प्रदेश की हैं, द्रौपदी मुर्मू ओडिशा के एक आदिवासी जिले मयूरभंज की रहने वाले हैं और आरिफ मोहम्मद खान उत्तर प्रदेश के बुलंद शहर के हैं. इसके अलावा उपराष्ट्रपति एम वैंकेया नायडू भी राष्ट्रपति पद की रेस में हैं. के. आर नारायणन के बाद से इस पद पर उत्तर भारत के नेता आसीन होते रहे, तेलंगाना और आंध्र में लोकसभा सीटों की तलाश में जुटी भाजपा दक्षिण भारत की दावेदारी के नाम पर नायडू पर दांव खेल सकती है.

माना जा रहा है कि राष्ट्रपति के कैंडिडेट के चुनाव में नरेंद्र मोदी 2024 के लोकसभा चुनाव का ध्यान रखेंगे. मगर पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार एनडीए का कुनबा छोटा हो गया है. जुलाई 2022 में अगर सर्वसम्मत उम्मीदवार नहीं चुना गया तो बीजेपी को एनडीए के बाहर के राजनीतिक दलों के समर्थन की जरूरत पड़ेगी. कई राजनीतिक विश्लेषक यह उम्मीद जता रहे हैं कि इस बार नरेंद्र मोदी अपने पूर्ववर्ती अटल बिहारी वाजपेयी के नक्शेकदम पर चल सकते हैं. वह 2002 वाला दांव चल सकते हैं, जब एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति कैंडिडेट बनाकर अटल बिहारी ने विपक्षी एकता को खत्म कर दिया था. तब वाम दलों को छोड़कर सारे विपक्षी दलों ने एपीजे अब्दुल कलाम का समर्थन किया था. तब एपीजे कलाम को कुल 90 फीसदी वोट मिले थे.

इस समीकरण के हिसाब से आरिफ मोहम्मद खान भी फिट बैठते हैं. राजनीति में आरिफ मोहम्मद खान की पहचान उनकी मुद्दों पर मुखरता है. धर्मनिरपेक्ष और धार्मिक दोनों मसलों में शिक्षित आरिफ इस्लामी कट्टरवाद के खिलाफ सार्वजनिक जीवन में बेबाक बयानों के कारण चर्चित रहते हैं. 71 साल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के पास लंबा राजनीतिक और प्रशासनिक अनुभव है. वह केंद्र में कई प्रधानमंत्रियों के साथ काम कर चुके हैं. अपने राजनीतिक कैरियर में उन्होंने शाहबानो केस और कश्मीर से पलायन जैसे मुद्दों को हैंडल किया है. भाजपा नेताओं का भी मानना है कि आरिफ मोहम्मद खान पार्टी के भारतीय मुसलमान के खांचे में फिट बैठते हैं. बुलंदशहर में जन्मे खान हमेशा रूढ़िवादी इस्लामी प्रथाओं के बारे में अपने मजबूत विचारों के लिए जाने जाते हैं और उन्होंने मुस्लिम समुदाय में सामाजिक सुधारों की वकालत करते हैं. इस्लाम के साथ भारतीय परंपरा का पालन करते हैं. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से कला में ग्रैजुएशन और लखनऊ विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री के बाद उनका लंबा सियासी अनुभव उन्हें राष्ट्रपति पद का दावेदार बना सकता है. बीजेपी का मानना है कि वह नरेंद्र मोदी के सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास वाले नारे में भी फिट बैठते हैं.

आरिफ मोहम्मद खान ने पढ़ाई के बाद पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के भारतीय क्रांति दल के साथ अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी. फिर वह कांग्रेसी हो गए. मगर वह पूरे देश में अचानक लोकप्रिय तब हुए, जब उन्होंने 1986 में शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को रद्द करने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के संवैधानिक संशोधन के फैसले का कड़ा विरोध किया. उस दौर में आरिफ मोहम्मद खान को राजीव गांधी के करीबियों में गिना जाता था. पार्टी लाइन से हटकर संसद में राय रखने के कारण उन्हें कांग्रेस से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. इसके साथ ही उनके लिए राजनीति के विकल्प खुल गए.

इसके बाद उन्होंने वी.पी. सिंह के जनता दल का दामन थामा और 1989 में केंद्रीय मंत्री बने. कुछ समय बाद बहुजन समाज पार्टी (बसपा) में चले गए. 2004 में भाजपा जॉइन किया मगर लोकसभा चुनाव में हार के बाद 2007 में बीजेपी को भी अलविदा कह दिया. 2014 में जब बीजेपी में मोदी-शाह युग की शुरुआत हुई तब आरिफ मोहम्मद खान फिर भाजपा से जुड़ गए. उन्होंने ट्रिपल तालक को प्रतिबंधित करने के मोदी सरकार के फैसले का समर्थन किया. 2019 में वह केरल के राज्यपाल बने. हालांकि अभी एनडीए ने प्रेजिडेंशियल कैंडिडेट की घोषणा नहीं की है, जून में एनडीए और बीजेपी पार्लियामेंट की बैठक में इस पर चर्चा होगी.

पढ़ें : 25 जुलाई को मिलेगा देश को नया राष्ट्रपति, जानिए क्या है चुनाव की प्रक्रिया

(आईएएऩएस इनपुट)

नई दिल्ली : राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के बाद रायसीना हिल्स में किसकी एंट्री होगी यानी अगला राष्ट्रपति कौन होगा. बीजेपी गठबंधन अभी केंद्र की गद्दी पर काबिज है और एनडीए का शासन 17 राज्यों में है. इस लिहाज से ऐसा माना जा सकता है कि भाजपा के प्रत्याशी को ही राष्ट्रपति पद मिल सकता है. पिछली बार 2017 में एनडीए ने रामनाथ कोविंद को अचानक सामने लाकर सबको चौंका दिया था. इस बार भी कई नामों पर चर्चा है, उनमें छत्तीसगढ़ की राज्यपाल अनुसुइया उइके, झारखंड की पूर्व राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू और केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान शामिल हैं. अनुसूइया उइके मध्य प्रदेश की हैं, द्रौपदी मुर्मू ओडिशा के एक आदिवासी जिले मयूरभंज की रहने वाले हैं और आरिफ मोहम्मद खान उत्तर प्रदेश के बुलंद शहर के हैं. इसके अलावा उपराष्ट्रपति एम वैंकेया नायडू भी राष्ट्रपति पद की रेस में हैं. के. आर नारायणन के बाद से इस पद पर उत्तर भारत के नेता आसीन होते रहे, तेलंगाना और आंध्र में लोकसभा सीटों की तलाश में जुटी भाजपा दक्षिण भारत की दावेदारी के नाम पर नायडू पर दांव खेल सकती है.

माना जा रहा है कि राष्ट्रपति के कैंडिडेट के चुनाव में नरेंद्र मोदी 2024 के लोकसभा चुनाव का ध्यान रखेंगे. मगर पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार एनडीए का कुनबा छोटा हो गया है. जुलाई 2022 में अगर सर्वसम्मत उम्मीदवार नहीं चुना गया तो बीजेपी को एनडीए के बाहर के राजनीतिक दलों के समर्थन की जरूरत पड़ेगी. कई राजनीतिक विश्लेषक यह उम्मीद जता रहे हैं कि इस बार नरेंद्र मोदी अपने पूर्ववर्ती अटल बिहारी वाजपेयी के नक्शेकदम पर चल सकते हैं. वह 2002 वाला दांव चल सकते हैं, जब एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति कैंडिडेट बनाकर अटल बिहारी ने विपक्षी एकता को खत्म कर दिया था. तब वाम दलों को छोड़कर सारे विपक्षी दलों ने एपीजे अब्दुल कलाम का समर्थन किया था. तब एपीजे कलाम को कुल 90 फीसदी वोट मिले थे.

इस समीकरण के हिसाब से आरिफ मोहम्मद खान भी फिट बैठते हैं. राजनीति में आरिफ मोहम्मद खान की पहचान उनकी मुद्दों पर मुखरता है. धर्मनिरपेक्ष और धार्मिक दोनों मसलों में शिक्षित आरिफ इस्लामी कट्टरवाद के खिलाफ सार्वजनिक जीवन में बेबाक बयानों के कारण चर्चित रहते हैं. 71 साल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के पास लंबा राजनीतिक और प्रशासनिक अनुभव है. वह केंद्र में कई प्रधानमंत्रियों के साथ काम कर चुके हैं. अपने राजनीतिक कैरियर में उन्होंने शाहबानो केस और कश्मीर से पलायन जैसे मुद्दों को हैंडल किया है. भाजपा नेताओं का भी मानना है कि आरिफ मोहम्मद खान पार्टी के भारतीय मुसलमान के खांचे में फिट बैठते हैं. बुलंदशहर में जन्मे खान हमेशा रूढ़िवादी इस्लामी प्रथाओं के बारे में अपने मजबूत विचारों के लिए जाने जाते हैं और उन्होंने मुस्लिम समुदाय में सामाजिक सुधारों की वकालत करते हैं. इस्लाम के साथ भारतीय परंपरा का पालन करते हैं. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से कला में ग्रैजुएशन और लखनऊ विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री के बाद उनका लंबा सियासी अनुभव उन्हें राष्ट्रपति पद का दावेदार बना सकता है. बीजेपी का मानना है कि वह नरेंद्र मोदी के सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास वाले नारे में भी फिट बैठते हैं.

आरिफ मोहम्मद खान ने पढ़ाई के बाद पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के भारतीय क्रांति दल के साथ अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी. फिर वह कांग्रेसी हो गए. मगर वह पूरे देश में अचानक लोकप्रिय तब हुए, जब उन्होंने 1986 में शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को रद्द करने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के संवैधानिक संशोधन के फैसले का कड़ा विरोध किया. उस दौर में आरिफ मोहम्मद खान को राजीव गांधी के करीबियों में गिना जाता था. पार्टी लाइन से हटकर संसद में राय रखने के कारण उन्हें कांग्रेस से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. इसके साथ ही उनके लिए राजनीति के विकल्प खुल गए.

इसके बाद उन्होंने वी.पी. सिंह के जनता दल का दामन थामा और 1989 में केंद्रीय मंत्री बने. कुछ समय बाद बहुजन समाज पार्टी (बसपा) में चले गए. 2004 में भाजपा जॉइन किया मगर लोकसभा चुनाव में हार के बाद 2007 में बीजेपी को भी अलविदा कह दिया. 2014 में जब बीजेपी में मोदी-शाह युग की शुरुआत हुई तब आरिफ मोहम्मद खान फिर भाजपा से जुड़ गए. उन्होंने ट्रिपल तालक को प्रतिबंधित करने के मोदी सरकार के फैसले का समर्थन किया. 2019 में वह केरल के राज्यपाल बने. हालांकि अभी एनडीए ने प्रेजिडेंशियल कैंडिडेट की घोषणा नहीं की है, जून में एनडीए और बीजेपी पार्लियामेंट की बैठक में इस पर चर्चा होगी.

पढ़ें : 25 जुलाई को मिलेगा देश को नया राष्ट्रपति, जानिए क्या है चुनाव की प्रक्रिया

(आईएएऩएस इनपुट)

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