नई दिल्ली : भारत में जनगणना की शुरुआत 1881 में हुई थी और उसके बाद से ये हर दस साल पर होती रही है. साल 1931 में जो जनगणना हुई थी, उसमें आखिरी बार जातियों की जनगणना हुई थी. लेकिन उसके बाद से होने वाली सभी जनगणनाओं में अब सिर्फ अनुसूचित जाति-जनजाति की ही गणना होती है, बाकी किसी जाति की नहीं. हां धर्म से जुड़े आंकड़े जरूर हर जनगणना में प्रकाशित किए जाते हैं. 1931 की जनगणना के आधार पर ही मंडल कमीशन ने सरकारी नौकरियों में आरक्षण की सुविधा दी थी. उसके बाद से जाति पर आधारित राजनीति करने वाली कई क्षेत्रीय पार्टियां जाति आधारित जनगणना कराने की मांग कर चुकी हैं.
क्यों हो रही है जातीय जनगणना की मांग ? : तर्क ये दिया जाता है कि जातियों का संख्या अगर पता चल गई तो उनके विकास के लिए जो भी सरकारी योजनाएं और कार्यक्रम बनाए जाते हैं, वो उस आबादी के हिसाब से बनाए जाएंगे और उन योजनाओं को वास्तविक धरातल पर उतारने का मौका मिलेगा, विकास हर पिछड़े तक पहुंच पाएगा. साथ ही ये भी पता चलेगा कि कौन सी जाति अति पिछड़ा है,आर्थिक और सामाजिक और शैक्षिक स्तर पर कौन सचमुच पिछड़ा है. इससे सरकारें उन पिछड़ी जातियों को मुख्यधारा में लाने के लिए कार्यक्रम और योजनाएं बना सकती हैं.
क्यों हो रहा है विरोध ? : लेकिन इसका विरोध करने वालों का कहना है कि इससे सामाजिक वैमनस्य बढ़ेगा, जिसकी आबादी कम होगी, वह अपनी आबादी बढ़ाकर खुद को मजबूत करने की कोशिश करेगा, जो किसी भी आगे बढ़ते हुए देश को पीछे खींचने के लिए काफी है.
सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी दुबे कहते हैं, 'भारत का संविधान एकरूपता की बात करता है, जिसमें जाति, लिंग, जन्म या धर्म इन सबका कोई स्थान नहीं है. जातिगत जनगणना अगर होती है, तो उसका पहला नुकसान ये है कि किसी समाज को पता चलेगा कि उनकी संख्या घट रही है तो वो परिवार नियोजन का जो बेसिक कॉन्सेप्ट है, उसे अपनाना छोड़ देंगे. जनसंख्या विस्फोट तो होगा ही, इसके अलावा सामाजिक तानाबाना बिगड़ने का खतरा रहेगा. हमारा संविधान जातिगत राजनीति को प्रमोट नहीं करता, लेकिन अगर जातीय जनगणना होगी तो जातीय राजनीति जोर पकड़ेगी. जिसकी जितनी संख्या होगी, वो उतना शेयर मांगेगा. इससे सामाजिक संतुलन बिगड़ेगा. आज़ाद भारत में सरदार पटेल ने इसीलिए जातीय जनगणना की मांग को मना कर दिया था.'
सीएसडीएस के संजय कुमार कहते हैं कि ये बात सही है कि जातिगत जनगणना से पिछड़े वर्ग के भले के लिए सटीक आधार पता चल पाएगा. ये पता चल पाएगा कि सचमुच वे पिछड़े हैं या नहीं, पिछड़ेपन का लेवल क्या है. जाहिर है वो आंकड़े तो जातिगत जनगणना से ही आएंगे. इसलिए चाहे वो ओबीसी हो या दलित, उनकी आबादी के हिसाब से योजनाएं बनाई जाएंगी, तो असर ज्यादा होगा. लेकिन हां, राजनैतिक मायने इसके ये होते हैं कि जिन पार्टियों की राजनीति का आधार ही ओबीसी की राजनीति है, वो इसके इर्द-गिर्द राजनीति कर सकते थे. वो शायद ये डिमांड करते कि रिज़र्वेशन उन्हें ज्यादा दिया जाए. ये अलग बात है कि फिर ये कोर्ट में खारिज होता क्योंकि आरक्षण को लेकर 50 फीसदी की सीलिंग है. पार्टियां ज़रूर ये संदेश देने की कोशिश करतीं कि हम आपकी भलाई के लिए लड़ने वाली पार्टी हैं. हां, ये मैं ज़रूर मानता हूं कि इससे जातियों में जो दूरियां हैं, वो खाई में बदल जातीं. इससे लोगों के बीच सामाजिक सदभाव और बिगड़ता, बेहतर होने की तो कोई गुंजाइश नहीं थी.
मज़े की बात ये है कि जब 2011 की जनगणना हुई थी, तो केंद्र में यूपीए की सरकार थी और उस सरकार में तब जातिगत जनगणना की मांग उठाने वाली कई राजनैतिक दल शामिल थे. जाति से आधारित डेटा इकट्ठा किया भी गया था लेकिन उसे कभी सार्वजनिक नहीं किया गया. तब यूपीए सरकार इसे सामने लाने से पीछे हट गई थी क्योंकि उसे भी पता था कि इससे सामाजिक तानाबाना खराब होगा.
संजय कुमार इसे राजनैतिक दलों के लिए कैच 22 की स्थिति बताते हैं. कहते हैं कि ऑन रिकॉर्ड तो सब कहेंगे कि जातिगत जनगणना होनी चाहिए, लेकिन ऑफ रिकॉर्ड कहेंगे नहीं ये करना ठीक नहीं है. राजनीति का ये दोहरा चरित्र है. सच बात ये है कि सामाजिक न्याय और ओबीसी की लड़ाई लड़ने के लिए कोई भी पार्टी प्रतिबद्ध नहीं है. लेकिन क्षेत्रीय पार्टियां इस पर ज्यादा जोर इसलिए देती हैं क्योंकि ओबीसी उनका कोर वोट है. कई पार्टियां तो पोस्ट मंडल कमीशन की उपज हैं. उन्हें लगता है कि मोदी के आगे बढ़ने से उनका वोट बेस कम होने लगा है. लोकसभा चुनाव में मोदी उनका सारा शेयर ही खींच लेते हैं. 2019 में बीजेपी को पिछड़ों के 44 फीसदी वोट मिले. ज़ाहिर सी बात है कि इन्हें लगेगा ही कि ओबीसी का ये 44 फीसदी तबका अगर बीजेपी से छिटक जाय तो बीजेपी का ग्राफ नीचे जाएगा और तब जाकर मोदी के हाथ से सत्ता की डोर छूट पाएगी.
सुप्रीम कोर्ट के वकील अश्विनी दुबे कहते हैं कि संवैधानिक संरचना को तो आज की तारीख में सिर्फ अदालतें ही समझती हैं. वे ही जानती हैं कि इस फैसले से सामाजिक सद्भाव पर क्या असर होगा. बाकी राजनैतिक दलों को अपनी राजनीति चलानी है. हिंदू समाज जातियों में विभाजित है. बीजेपी की राजनीति अगर हिदुत्व पर आधारित है, तो जातिगत जनगणना उसके वोट बेस को बांटेगी, जो उसकी राजनीति के खिलाफ है. जातिगत जनगणना से जातियों की आबादी के अनुपात में जब नौकरियां मांगी जाएंगी तो जाहिर है कोर्ट में उस पर सवाल होगा, क्योंकि नागराज केस में अधिकतम आरक्षण पचास फीसदी पहले ही तय कर दिया गया है. यहीं पर कोर्ट हस्तक्षेप करती है, क्योंकि उसे पार्टियों का ‘हिडेन मोटिव’ दिखने लगता है.
सरकार के सामने चुनौती : जो भी हो, पिछली जनगणना के दौरान आई खामियां से निपटना ही सरकार की चुनौतियां हैं. गणना के दौरान जाति से जुड़े सवाल पूछने पर लोग अपने कबीले, गोत्र, उपजाति बताने लगते हैं. मूल जाति का पता ही नहीं चल पाता. जनगणना के लिए जो सरकारी कर्मचारी घर-घर जाते हैं, उनकी सिर्फ 6 या 7 दिन की ट्रेनिंग होती है. वे ढंग से जातियों को निश्चित नहीं कर पाते. फिर केंद्र और राज्यों की सूचियों में बड़ा अंतर है. कोई जाति एक राज्य में अनुसूचित जाति है तो दूसरे राज्यों में मुमकिन है कि वो जनजाति हो या ओबीसी हो. इससे जनगणना में दिक्कत होती है.
ज़ाहिर है इन खामियों से निपटने के लिए जब तक जनगणना के किसी वैज्ञानिक तरीके पर सहमति नहीं बनती, मिलने वाले डेटा पर सवाल उठते रहेंगे.
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