जोधपुर : जोधपुर स्थित राष्ट्रीय असंचारी रोग कार्यान्यवन अनुसंधान संस्थान द्वारा आयोजित एक वेबिनार को संबोधित करते हुए बनर्जी ने देश की स्वास्थ्य स्थिति, कल्याण और स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों के आर्थिक पहलू पर ध्यान केंद्रित किया. स्वास्थ्य स्थिति के आर्थिक पहलू पर उन्होंने कहा कि भारत में जीवन शैली की बीमारियों से पीड़ित एक बड़ी आबादी है, जो गैर-संचारी रोग (एनसीडी) हैं.
एनसीडी के बारे में जागरूकता को एक प्रमुख चुनौती बताते हुए अर्थशास्त्री ने कहा कि महामारी की दूसरी और पहली लहर में कई युवाओं की मौत हो गई लेकिन उनकी स्थिति का पता नहीं चला. बनर्जी ने यह भी कहा कि देश की कल्याण व्यवस्था को महामारी के लिए नहीं बनाया गया है. उन्होंने भविष्य में ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए कल्याण तंत्र को फिर से डिजाइन करने की आवश्यकता पर बल दिया. संस्थान द्वारा वेबिनार का आयोजन उसके स्थापना दिवस पर किया गया था और बनर्जी इस आनलाइन कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे.
बनर्जी ने देश की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली के विभिन्न पहलुओं पर झोलाछाप डाक्टरों और स्टेरॉयड के अंधाधुंध उपयोग और उनके परिणामों पर प्रकाश डाला. उन्होंने एक अध्ययन का हवाला देते हुए कहा कि पश्चिम बंगाल में कम वजन वाली महिलाएं अक्सर शादी के लिए वजन बढ़ाने के लिए स्टेरॉयड लेती हैं और ये स्टेरॉयड स्थानीय किराना दुकानदार के पास आसानी से उपलब्ध हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में झोलाछाप डॉक्टरों की प्रैक्टिस को आम बताते हुए बनर्जी ने कहा कि इस मुद्दे को हल करने के लिए कोई प्रवर्तन नहीं है.
उन्होंने कहा कि हमारी स्वास्थ्य प्रणाली को वे लोग संभाल रहे हैं जो स्वास्थ्य सेवा प्रणाली से छूट गए हैं. बनर्जी ने बहुत ही सामान्य बीमारियों के लिए अधिक दवाएं दिए जाने के मुद्दे पर भी प्रकाश डाला. सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के बारे में उन्होंने दावा किया कि उप-केंद्र खाली हैं और नर्सें ज्यादातर उपलब्ध नहीं हैं, जिसके कारण लोग झोलाछाप डॉक्टरों के पास जाने के लिए मजबूर होते है. उन्होंने दावा किया कि एक एमबीबीएस डॉक्टर द्वारा एक मरीज को दिया जाने वाला औसत समय लगभग दो मिनट का होता है.
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झोलाछाप उन्हें अपनी समस्याओं को सुनने के लिए पर्याप्त समय देते हैं. उन्होंने तर्क दिया कि यह एक संभावित स्थिति है जो रोगियों को झोलाछाप के पास जाने के लिए मजबूर करती है. दवा के प्रति उपभोक्तावादी संस्कृति पर कटाक्ष करते हुए बनर्जी ने उपचारात्मक संस्कृति के बजाय रोकथाम संस्कृति के विकास की आवश्यकता पर जोर दिया.
(पीटीआई-भाषा)