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स्वास्थ्य बजट से 'छल' करती सरकारें, कब तक चलता रहेगा यह 'खेल' - chairman desk on medical sector

दुनिया के विकसित देश जीडीपी का आठ फीसदी स्वास्थ्य बजट पर खर्च करते हैं, जबकि भारत मात्र 1.4 फीसदी खर्च करता है. इस आधार पर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि हमारा बजटीय आवंटन कितना कम है. सरकार दावा कर रही है कि हमने बजट बढ़ा दिया है. लेकिन इसने यह नहीं बताया कि पीने के पानी, सैनिटेशन और वायु प्रदूषण नियंत्रण को लेकर उठाए जाने वाले कदमों को भी स्वास्थ्य बजट का ही हिस्सा बता दिया है.

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Published : May 11, 2021, 10:54 PM IST

हैदराबाद : कोविड समस्या ने भारत की चिकित्सकीय सुविधाओं की पोल खोलकर रख दी है. सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने भी सुनवाई के दौरान कहा कि कोविड के खिलाफ जनता को सुरक्षा प्रदान करने में सरकार सफल नहीं रही है. हाल ही में कई राज्यों के उच्च न्यायालयों ने भी सरकार की कमियों पर काफी तल्ख टिप्पणियां की हैं.

हाल ही में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने इन समस्याओं पर अपनी अलग राय रखी है. उन्होंने कहा कि पिछले 70 सालों से स्वास्थ्य क्षेत्र में कम बजट का प्रावधान किया जाना समस्या की मूल वजह है. हालांकि उन्होंने जो भी कुछ कहा है, वह सच है. लेकिन एनडीए के शासन काल में भी स्वास्थ्य बजट बहुत अधिक नहीं बढ़ा है, क्या इसे वह झूठला सकते हैं.

केंद्रीय चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग ने 2021-22 में 1.21 लाख करोड़ के स्वास्थ्य बजट का प्रावधान किया है. एक संसदीय कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि स्वास्थ्य विभाग की जरूरत के ठीक विपरीत केंद्र ने 50 हजार करोड़ की बजट में कटौती कर दी. लेकिन वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने दावा किया था कि हमने जन स्वास्थ्य के लिए 2.23 लाख करोड़ के बजट का आवंटन किया. उन्होंने यह नहीं बताया कि इसमें अन्य खर्चों को भी शामिल कर लिया गया है. जैसे पीने का पानी, सैनिटेशन, वायु प्रदूषण नियंत्रण और अन्य सेवाओं को. सरकार किस तरह से आंकड़ों के साथ हेरा-फेरी करती है, इस उदाहरण से आप समझ सकते हैं. इस तरह से अगर बजट में कटौती होती रहेगी, तो ढांचागत सुविधाओं का विकास नहीं हो पाएगा. अनुसंधान के लिए पैसे नहीं मिल पाएंगे. आपातकालीन सुधारात्मक कदम नहीं उठ पाएंगे.

संसदीय कमेटी ने इस पर अफसोस जाहिर किया कि केंद्र सरकार स्वास्थ्य सुरक्षा के नाम पर नाममात्र का बजट खर्च कर रही है. निर्धारित मानदंड बताते हैं कि राज्यों और केंद्र को स्वास्थ्य बजट पर कम के कम आठ फीसदी तक का खर्च करना चाहिए. लेकिन इस राष्ट्रीय नीति का कभी भी पालन नहीं किया गया है. आज की जिस तरह की परिस्थिति सामने है, संसदीय समिति की टिप्पणी उसका ही प्रतिनिधित्व कर रही है.

स्वीडन और जापान जैसे देश जीडीपी का नौ फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं. भारत में 1.4 फीसदी आवंटित किया जाता है. विश्व बैंक और ऑक्सफैम की रिपोर्ट बताती है कि भारत मेडिकल फ्रंट पर बुरी तरह से फेल रहा है. जर्मनी, बेल्जियम, यूके और स्वीडन दशकों से यूनिवर्सिल मेडिकल केयर योजनाओं को लागू किए हुए है. सरकार स्वास्थ्य पर अपने नागरिकों के लिए कितना पैसा खर्च करती है, इसमें दुनिया के 196 देशों की सूची में भारत 158वें स्थान पर है. भारत में औसतन एक व्यक्ति को मेडिकल पर 63 फीसदी खर्च करने होते हैं, जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह 18 फीसदी है.

सातवें राष्ट्रीय सैंपल सर्वे के अनुसार देश का 80 फीसदी परिवार मेडिकल बिल की वजह से कर्ज के तले दबा हुआ है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा नीति का खुले तौर पर उल्लंघन किया जा रहा है. स्वास्थ्य समस्याओं में कमी की मूल वजह सरकार की नीति रही है. सुप्रीम कोर्ट ने ठीक ही कहा है कि मेडिकल ट्रीटमेंट स्वास्थ्य के अधिकार का मूल हिस्सा है. उचित नीति को बनाने और उसके लिए पर्याप्त बजटीय प्रावधान करके ही स्वास्थ्य सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सकता है. देश के स्वास्थ्य क्षेत्र के तत्काल कायाकल्प की आवश्यकता है.

हैदराबाद : कोविड समस्या ने भारत की चिकित्सकीय सुविधाओं की पोल खोलकर रख दी है. सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने भी सुनवाई के दौरान कहा कि कोविड के खिलाफ जनता को सुरक्षा प्रदान करने में सरकार सफल नहीं रही है. हाल ही में कई राज्यों के उच्च न्यायालयों ने भी सरकार की कमियों पर काफी तल्ख टिप्पणियां की हैं.

हाल ही में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने इन समस्याओं पर अपनी अलग राय रखी है. उन्होंने कहा कि पिछले 70 सालों से स्वास्थ्य क्षेत्र में कम बजट का प्रावधान किया जाना समस्या की मूल वजह है. हालांकि उन्होंने जो भी कुछ कहा है, वह सच है. लेकिन एनडीए के शासन काल में भी स्वास्थ्य बजट बहुत अधिक नहीं बढ़ा है, क्या इसे वह झूठला सकते हैं.

केंद्रीय चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग ने 2021-22 में 1.21 लाख करोड़ के स्वास्थ्य बजट का प्रावधान किया है. एक संसदीय कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि स्वास्थ्य विभाग की जरूरत के ठीक विपरीत केंद्र ने 50 हजार करोड़ की बजट में कटौती कर दी. लेकिन वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने दावा किया था कि हमने जन स्वास्थ्य के लिए 2.23 लाख करोड़ के बजट का आवंटन किया. उन्होंने यह नहीं बताया कि इसमें अन्य खर्चों को भी शामिल कर लिया गया है. जैसे पीने का पानी, सैनिटेशन, वायु प्रदूषण नियंत्रण और अन्य सेवाओं को. सरकार किस तरह से आंकड़ों के साथ हेरा-फेरी करती है, इस उदाहरण से आप समझ सकते हैं. इस तरह से अगर बजट में कटौती होती रहेगी, तो ढांचागत सुविधाओं का विकास नहीं हो पाएगा. अनुसंधान के लिए पैसे नहीं मिल पाएंगे. आपातकालीन सुधारात्मक कदम नहीं उठ पाएंगे.

संसदीय कमेटी ने इस पर अफसोस जाहिर किया कि केंद्र सरकार स्वास्थ्य सुरक्षा के नाम पर नाममात्र का बजट खर्च कर रही है. निर्धारित मानदंड बताते हैं कि राज्यों और केंद्र को स्वास्थ्य बजट पर कम के कम आठ फीसदी तक का खर्च करना चाहिए. लेकिन इस राष्ट्रीय नीति का कभी भी पालन नहीं किया गया है. आज की जिस तरह की परिस्थिति सामने है, संसदीय समिति की टिप्पणी उसका ही प्रतिनिधित्व कर रही है.

स्वीडन और जापान जैसे देश जीडीपी का नौ फीसदी स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं. भारत में 1.4 फीसदी आवंटित किया जाता है. विश्व बैंक और ऑक्सफैम की रिपोर्ट बताती है कि भारत मेडिकल फ्रंट पर बुरी तरह से फेल रहा है. जर्मनी, बेल्जियम, यूके और स्वीडन दशकों से यूनिवर्सिल मेडिकल केयर योजनाओं को लागू किए हुए है. सरकार स्वास्थ्य पर अपने नागरिकों के लिए कितना पैसा खर्च करती है, इसमें दुनिया के 196 देशों की सूची में भारत 158वें स्थान पर है. भारत में औसतन एक व्यक्ति को मेडिकल पर 63 फीसदी खर्च करने होते हैं, जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह 18 फीसदी है.

सातवें राष्ट्रीय सैंपल सर्वे के अनुसार देश का 80 फीसदी परिवार मेडिकल बिल की वजह से कर्ज के तले दबा हुआ है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा नीति का खुले तौर पर उल्लंघन किया जा रहा है. स्वास्थ्य समस्याओं में कमी की मूल वजह सरकार की नीति रही है. सुप्रीम कोर्ट ने ठीक ही कहा है कि मेडिकल ट्रीटमेंट स्वास्थ्य के अधिकार का मूल हिस्सा है. उचित नीति को बनाने और उसके लिए पर्याप्त बजटीय प्रावधान करके ही स्वास्थ्य सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सकता है. देश के स्वास्थ्य क्षेत्र के तत्काल कायाकल्प की आवश्यकता है.

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