वाराणसी: ज्ञानवापी मस्जिद के वजूखाने में मिले कथित शिवलिंग की कार्बन डेटिंग (Carbon Dating of Shivling) को लेकर हिंदू पक्ष ही एकमत नहीं है. ज्ञानवापी-श्रृंगार गौरी प्रकरण में हिंदू पक्ष के वकील हरिशंकर जैन की तरफ से कथित शिवलिंग के कार्बन डेटिंग की मांग की गई थी, जिसका वैदिक सनातन संघ ने विरोध कर दिया. वाराणसी के गलियों में भी शिवलिंग के कार्बन डेटिंग के समर्थन और विरोध में पोस्टर लगे. हिंदू पक्ष की याचिकाकर्ता राखी सिंह के वकील का कहना है कि शिवलिंग का निर्माण मनुष्य ने नहीं किया, यह स्वयंभू यानी खुद से अवतरित है, इसलिए इससे छेड़छाड़ अनुचित है. जब कार्बन डेटिंग का विवाद गहरा रहा है तो यह जानना भी जरूरी है क्या किसी शिला (पत्थर) की जांच इस पद्धति से की जा सकती है.
कार्बन डेटिंग है क्या?
कार्बन डेटिंग टेक्नोलॉजी का ईजाद शिकागो यूनिवर्सिटी के विलियर्ड लिबी ने 1949 में किया था. इस खोज के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार भी मिला था. इस टेक्नोलॉजी के जरिये किसी भी पुरातात्विक मूर्ति या स्ट्रक्टर की उम्र का पता लगाया जाता है. विलियर्ड लिबी ने तब पता लगाया था कि किसी भी वस्तु में 5730 वर्षों के बाद कार्बन की मात्रा आधी रह जाती है.
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पुरातात्विक विभाग के प्रोफेसर अशोक सिंह का कहना है कि कार्बन डेटिंग (Carbon Dating of Shivling) की सहायता से 40 से 50 हजार साल पुरानी वस्तुओं की सही उम्र का पता लगाया जा सकता है. उनका कहना है कि कार्बन डेटिंग सिर्फ उन चीजों की होती है, जिसमें कभी कोई कार्बन रहा हो. यानी कोई भी जीवित चीज जिसमें कार्बन रहता है और वह मृत हो जाती है तो उसके बचे हुए अवशेष की धारणा करके कार्बन डेटिंग की जाती है. जैसे हड्डी, लकड़ी, कोयला, शीप या घोंघा. इन चीजों के मृत होने के बाद इनका कार्बन डेटिंग हो सकती है.
प्रोफेसर अशोक सिंह का कहना है कि किसी भी स्ट्रक्चर पर कार्बन आईसोटोप्स रहते हैं. इसमें कार्बन 12 (C-12), कार्बन 13 (C-13), कार्बन-14 (C-14) आदि होते हैं. वक्त गुजरने के साथ स्ट्रक्चर में मौजूद कार्बन-14 (C-14) में बदलाव होता है, जकि कार्बन 12 (C-12) में कोई चेंज नहीं होता है. वह हमेशा एक जैसे रहते हैं. वैज्ञानिक कार्बन 12 और कार्बन 14 की जांच के बाद दोनों की स्थिति में आए अंतर से स्ट्क्टर की उम्र का पता लगाते हैं.
ज्ञानवापी में मिली शिवलिंग की जांच कैसे होगी
प्रोफेसर अशोक सिंह का कहना है कि कार्बन डेटिंग उस वस्तु की हो सकती है, जिसमें इसमें कार्बन 12, कार्बन 13, कार्बन-14 मौजूद हों. इस पद्धति का उपयोग उन स्ट्रक्चर की उम्र पता लगाने में किया जाता है, जिसमें जीवाश्म मौजूद हो. लकड़ी, किसी जीव या हड्डी या जमीन में गड़े स्ट्रक्चर पर इसे आसानी से आजामाया जा सकता है. ज्ञानवापी में मिले जिस पत्थर को शिवलिंग बताया जा रहा है, उसकी कार्बन डेटिंग नहीं की जा सकती है.प्रोफेसर अशोक सिंह ने बताया कि दो प्रकार की डेटिंग होती है. एक होती है रिलेटिव डेटिंग और दूसरी निरपेक्ष. इसमें सभी वैज्ञानिक तिथियां आती हैं. रिलेटिव डेटिंग में तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर कार्य किया जाता है. इसलिए जो भी शिलाखंड है, यानी मौजूद है, उसके आसपास करेस्पॉन्ड एनक्लेव में कुछ उपलब्ध है तो हम उसकी तुलना के आधार जांच कर सकते हैं.
शिवलिंग की कार्बन डेटिंग में क्या प्रॉब्लम है ?
प्रोफेसर अशोक सिंह का कहना है कि अगर शिवलिंग में कार्बन तत्व होता तो कार्बन डेटिंग की जा सकती थी. अगर इस शिवलिंग के आसपास कोई कार्बन डेटिंग मैटेरियल यानी जीवाश्म या कार्बन वाली वस्तु मिलती तो उसके आधार पर इसकी गणना की जा सकती थी. लेकिन ज्ञानवापी में मिले कथित शिवलिंग के आसपास भी ऐसी चीज मौजूद नहीं है.
शिवलिंग के फोटोग्राफ में यह साफ दिख रहा है कि स्ट्रक्चर के ऊपर बाद में सीमेंट से कुछ आकृति बनाई गई है. इस कारण कथित शिवलिंग के नीचे और ऊपर के स्वरूप में अंतर है, इसलिए इसकी कार्बन डेटिंग संभव नहीं है.
- प्रोफेसर अशोक सिंह, पुरातात्विक विभाग, बीएचयू
कैसे चेक होगी शिवलिंग की उम्र: प्रोफेसर अशोक सिंह के मुताबिक रडार तकनीक भी किसी पत्थर या स्थान की उम्र का पता लगाने के लिए उत्तम जरिया है. राडार या इसे जीपीआर ग्राउंड पेनेटेटिंग सिस्टम को कहते हैं. एक लेजर तकनीक से जियोलॉजिस्ट इसे करते हैं. जमीन के नीचे वह इसको चेक करते हैं और नीचे की संरचनाओं का पता लगाने के लिए जीपीआर तकनीक का प्रयोग होता है. अगर जीपीआर तकनीक का प्रयोग यहां किया जाए तो और स्ट्रक्चर नीचे किस तरह मौजूद है या नहीं है, इसका पता लगाया जा सकता है.
प्रोफेसर अशोक सिंह ने कहा कि जीपीआर सिस्टम पुरातत्व विभाग और हम लोग करते हैं, लेकिन नीचे की संरचनाओं का पता लगाने के लिए इसका प्रयोग कंप्यूटर पर देखकर किया जाता है. इसमें किस तरह की ईंट का प्रयोग हुआ है. किस समय काल का प्रयोग है और इस तकनीक का प्रयोग करके कोई ना कोई निर्णय निकाला जा सकता है. जीपीआर सिस्टम में किसी भी स्ट्रक्चर को नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता है. क्योंकि उसमें लेजर किरणें होती हैं जो लेजर बीम के जरिए नीचे भेजी जाती हैं. उसमें किसी तरह का नुकसान संभव नहीं है.
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