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सुप्रीम कोर्ट के सवाल, आरक्षण की नीति कितनी जायज ?

आरक्षण को लेकर हमेशा ही कई तरह के सवाल उठते रहे हैं. आरक्षण किसे चाहिए. उसकी क्या जरूरत है. संविधान में इसके लिए क्या प्रावधान हैं. समय-समय पर न्यायालय ने किस तरह की सीमाएं निर्धारित कर रखीं हैं. मंडल आयोग की अनुशंसाएं क्या थीं. क्या पदोन्नति में भी आरक्षण संभव है. ऐसे तमाम सवालों के जवाब चाहिए, तो पढ़ें पूरा आलेख.

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कॉन्सेप्ट फोटो (सुप्रीम कोर्ट)
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Published : Mar 24, 2021, 3:28 PM IST

हैदराबाद : मराठा कोटा पर आठ मार्च को सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण को लेकर कुछ महत्वपूर्ण सवाल खड़े किए. कोर्ट ने पूछा आखिर कितनी पीढ़ियों तक आरक्षण जारी रहेगा. क्या आरक्षण पर 50 फीसदी की सीमाएं हटाई जा सकती हैं. सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच पूरे मामले की सुनवाई कर रही है.

इस मामले में वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने कोर्ट में कहा कि न्यायालयों को बदली हुई परिस्थितियों के मद्देनजर आरक्षण कोटा तय करने की जिम्मेदारी राज्यों पर छोड़ देनी चाहिए. उन्होंने कहा कि 50 फीसदी की सीमाएं 1931 की जनगणना पर आधारित था.

नौकरियों में कितना आरक्षण

इस पृष्ठभूमि में आइए समझते हैं हमारे संविधान में आरक्षण को लेकर क्या प्रावधान हैं और समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट ने इस पर क्या फैसले दिए हैं. केंद्र सरकार के सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों और संघ राज्य क्षेत्रों में, अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति / ओबीसीके लिए आरक्षित सीटें क्रमशः 15 फीसदी, 7.5 फीसदी और 27 फीसदी हैं.

अनुसूचित जाति की परिभाषा

अनुसूचित जाति की परिभाषा के लिए अनुच्छेद 366 और अनुच्छेद 341 को एक साथ पढ़े जाने की जरूरत है. अधिसूचित करने का अधिकार राष्ट्रपति को है. अनुसूचित जातियों का वर्गीकरण राज्य और केंद्र शासित प्रदेश में अलग-अलग हो सकता है. राज्यों के मामले में राष्ट्रपति राज्यपाल की सलाह से अधिसूचना जारी करते हैं. केवल उन्हीं जातियों को अनुसूचित जाति के रूप में दर्शाया जा सकता है, जिन्हें अनुच्छेद 341 के तहत राष्ट्रपति के आदेश में अधिसूचित किया गया है.

संसद अनुच्छेद 341(2) के तहत राष्ट्रपति की अधिसूचना के जरिए अनुसूचित जातियों की सूची में बदलाव कर सकता है.

हिंदू और सिख के अलावा दूसरे धर्मों के लोगों को अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं मिलेगा. अनुसूचित जाति ऑर्डर 1950 में ऐसा लिखा है.

पिछड़ा वर्ग

अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के अलावा संविधान ने पिछड़े समुदायों को भी सुरक्षा प्रदान की है. पिछड़ा समुदाय हिंदू, मुस्लिम, ईसाई समेत सभी धर्मों के लिए हैं. अनुच्छेद 15 (4) के तहत राज्य को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अलावा किसी भी सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान बनाने का अधिकार है. अनुच्छेद 16 (4) के तहत पिछड़े वर्गों के लिए पदों का आरक्षण हो सकता है. जिस समय संविधान लिखा जा रहा था, उस समय पिछड़ा वर्ग को लेकर बहुत अधिक सूचनाएं उपलब्ध नहीं थीं. 15 (4) और अनुच्छेद 340 में प्रयुक्त 'अभिव्यक्ति' सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए है. अनुच्छेद 16 (4) में प्रयुक्त अभिव्यक्ति 'पिछड़ी' है और अनुच्छेद 46 में प्रयुक्त शब्द 'कमजोर वर्ग' है.

मंडल आयोग

भारत सरकार ने एक जनवरी 1979 को अनुच्छेद 340 के तहत पिछड़ा वर्ग आयोग (मंडल आयोग) की नियुक्ति की. 31 दिसंबर 1980 को आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की. आयोग को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को परिभाषित करने के लिए मानदंड निर्धारित करने का काम सौंपा गया था. आयोग ने कहा कि एससी और एसटी की आबादी 22.5 फीसदी है. पिछड़े समुदाय की आबादी 52 फीसदी है. इसलिए पिछड़े समुदाय के लिए सभी पदों पर 52 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए. आयोग ने, हालांकि, अपनी संस्तुति में ये भी कहा कि कुल आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से अधिक नहीं हो सकती है. इस संवैधानिक सीमा की बाध्यता की वजह से मंडल आयोग ने ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण की संस्तुति की.

मंडल आयोग ने आर्थिक आधार को फैक्टर नहीं माना. इसकी अनदेखी की कि उच्च जाति में भी बहुत सारे ऐसे हैं, जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत ही खराब है. वे भी आरक्षण के हकदार हो सकते हैं.

पदोन्नति में आरक्षण

1992 में इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ की सुनवाई मामले में नौ जजों की बेंच ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया था. कोर्ट ने ओबीसी की आरक्षण नीति को सही ठहराया, लेकिन पदोन्नति में आरक्षण को सही नहीं माना.

2001 में केंद्र सरकार ने 85 वें संशोधन के जरिए पदोन्नति में आरक्षण को कानूनी वैधता दी.

2006 में एम नागराज बनाम भारत सरकार मामले में कोर्ट ने कानून को सही ठहराया. हालांकि, कोर्ट ने कहा कि इसके लिए राज्य सरकार को पर्याप्त आंकड़ों के जरिए यह सिद्ध करना होगा कि वे सामाजिक रूप से पिछड़े हैं और सार्वजनिक सेवा में उनकी भागीदारी कम है. आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से अधिक नहीं होगी.

सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में यह स्पष्ट किया कि आंकड़ों की बाध्यता नहीं होगी.

2019 में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया कि पदोन्नति में आरक्षण मौलिक अधिकार का हिस्सा नहीं है.

महाराष्ट्र आरक्षण मामला

महाराष्ट्र सरकार ने मराठा समुदाय को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा मानते हुए उसे आरक्षण देने का फैसला किया. पर, इसके बाद राज्य में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी को पार कर गई. इसी आधार पर राज्य के कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है. कोर्ट ने पांच जजों की बेंच बनाई है. इसमें इसका निर्धारण किया जाएगा कि आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी ही होनी चाहिए या इससे अधिक.

क्या है मराठा आरक्षण विवाद

9 जुलाई, 2014 को महाराष्ट्र सरकार ने मराठा समुदाय को शिक्षा और सार्वजनिक रोजगार में 16 फीसदी आरक्षण देने के लिए अध्यादेश लाया. 14 नवंबर 2014 को बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस पर रोक लगा दी. 18 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने रोक को सही ठहराया.

कोर्ट की आपत्ति के बाद राज्य सरकार नया कानून लेकर आई. सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग अधिनियम 2014 लागू किया गया. इनके लिए 16 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई. इनमें मराठा समुदाय को भी शामिल किया गया. लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट ने 7 अप्रैल 2016 को इसके कार्यान्वयन पर रोक लगा दी.

4 जनवरी 2017 को महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के गठन की घोषणा की गई. आयोग ने मराठा समुदाय के लिए शैक्षणिक संस्थानों में 12 फीसदी और सार्वजनिक सेवा में13 फीसदी आरक्षण की अनुशंसा की.

29 नवंबर 2018 को राज्य सरकार ने इस बाबत कानून पारित कर दिया. हालांकि, इस कानून के बाद राज्य में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से अधिक हो गई. फिर से कानून को चुनौती दी गई.

बॉम्बे हाईकोर्ट ने कानून की संवैधानिकता को सही ठहराया. अभी यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है. अंतिम सुनवाई 8 मार्च 2021 को हुई थी. कोर्ट ने सभी राज्य सरकारों से अपना-अपना पक्ष रखने को कहा है.

हैदराबाद : मराठा कोटा पर आठ मार्च को सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण को लेकर कुछ महत्वपूर्ण सवाल खड़े किए. कोर्ट ने पूछा आखिर कितनी पीढ़ियों तक आरक्षण जारी रहेगा. क्या आरक्षण पर 50 फीसदी की सीमाएं हटाई जा सकती हैं. सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच पूरे मामले की सुनवाई कर रही है.

इस मामले में वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी ने कोर्ट में कहा कि न्यायालयों को बदली हुई परिस्थितियों के मद्देनजर आरक्षण कोटा तय करने की जिम्मेदारी राज्यों पर छोड़ देनी चाहिए. उन्होंने कहा कि 50 फीसदी की सीमाएं 1931 की जनगणना पर आधारित था.

नौकरियों में कितना आरक्षण

इस पृष्ठभूमि में आइए समझते हैं हमारे संविधान में आरक्षण को लेकर क्या प्रावधान हैं और समय-समय पर सुप्रीम कोर्ट ने इस पर क्या फैसले दिए हैं. केंद्र सरकार के सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों और संघ राज्य क्षेत्रों में, अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति / ओबीसीके लिए आरक्षित सीटें क्रमशः 15 फीसदी, 7.5 फीसदी और 27 फीसदी हैं.

अनुसूचित जाति की परिभाषा

अनुसूचित जाति की परिभाषा के लिए अनुच्छेद 366 और अनुच्छेद 341 को एक साथ पढ़े जाने की जरूरत है. अधिसूचित करने का अधिकार राष्ट्रपति को है. अनुसूचित जातियों का वर्गीकरण राज्य और केंद्र शासित प्रदेश में अलग-अलग हो सकता है. राज्यों के मामले में राष्ट्रपति राज्यपाल की सलाह से अधिसूचना जारी करते हैं. केवल उन्हीं जातियों को अनुसूचित जाति के रूप में दर्शाया जा सकता है, जिन्हें अनुच्छेद 341 के तहत राष्ट्रपति के आदेश में अधिसूचित किया गया है.

संसद अनुच्छेद 341(2) के तहत राष्ट्रपति की अधिसूचना के जरिए अनुसूचित जातियों की सूची में बदलाव कर सकता है.

हिंदू और सिख के अलावा दूसरे धर्मों के लोगों को अनुसूचित जाति का दर्जा नहीं मिलेगा. अनुसूचित जाति ऑर्डर 1950 में ऐसा लिखा है.

पिछड़ा वर्ग

अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के अलावा संविधान ने पिछड़े समुदायों को भी सुरक्षा प्रदान की है. पिछड़ा समुदाय हिंदू, मुस्लिम, ईसाई समेत सभी धर्मों के लिए हैं. अनुच्छेद 15 (4) के तहत राज्य को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अलावा किसी भी सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान बनाने का अधिकार है. अनुच्छेद 16 (4) के तहत पिछड़े वर्गों के लिए पदों का आरक्षण हो सकता है. जिस समय संविधान लिखा जा रहा था, उस समय पिछड़ा वर्ग को लेकर बहुत अधिक सूचनाएं उपलब्ध नहीं थीं. 15 (4) और अनुच्छेद 340 में प्रयुक्त 'अभिव्यक्ति' सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए है. अनुच्छेद 16 (4) में प्रयुक्त अभिव्यक्ति 'पिछड़ी' है और अनुच्छेद 46 में प्रयुक्त शब्द 'कमजोर वर्ग' है.

मंडल आयोग

भारत सरकार ने एक जनवरी 1979 को अनुच्छेद 340 के तहत पिछड़ा वर्ग आयोग (मंडल आयोग) की नियुक्ति की. 31 दिसंबर 1980 को आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की. आयोग को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को परिभाषित करने के लिए मानदंड निर्धारित करने का काम सौंपा गया था. आयोग ने कहा कि एससी और एसटी की आबादी 22.5 फीसदी है. पिछड़े समुदाय की आबादी 52 फीसदी है. इसलिए पिछड़े समुदाय के लिए सभी पदों पर 52 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए. आयोग ने, हालांकि, अपनी संस्तुति में ये भी कहा कि कुल आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से अधिक नहीं हो सकती है. इस संवैधानिक सीमा की बाध्यता की वजह से मंडल आयोग ने ओबीसी के लिए 27 फीसदी आरक्षण की संस्तुति की.

मंडल आयोग ने आर्थिक आधार को फैक्टर नहीं माना. इसकी अनदेखी की कि उच्च जाति में भी बहुत सारे ऐसे हैं, जिनकी आर्थिक स्थिति बहुत ही खराब है. वे भी आरक्षण के हकदार हो सकते हैं.

पदोन्नति में आरक्षण

1992 में इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ की सुनवाई मामले में नौ जजों की बेंच ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया था. कोर्ट ने ओबीसी की आरक्षण नीति को सही ठहराया, लेकिन पदोन्नति में आरक्षण को सही नहीं माना.

2001 में केंद्र सरकार ने 85 वें संशोधन के जरिए पदोन्नति में आरक्षण को कानूनी वैधता दी.

2006 में एम नागराज बनाम भारत सरकार मामले में कोर्ट ने कानून को सही ठहराया. हालांकि, कोर्ट ने कहा कि इसके लिए राज्य सरकार को पर्याप्त आंकड़ों के जरिए यह सिद्ध करना होगा कि वे सामाजिक रूप से पिछड़े हैं और सार्वजनिक सेवा में उनकी भागीदारी कम है. आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से अधिक नहीं होगी.

सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में यह स्पष्ट किया कि आंकड़ों की बाध्यता नहीं होगी.

2019 में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया कि पदोन्नति में आरक्षण मौलिक अधिकार का हिस्सा नहीं है.

महाराष्ट्र आरक्षण मामला

महाराष्ट्र सरकार ने मराठा समुदाय को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा मानते हुए उसे आरक्षण देने का फैसला किया. पर, इसके बाद राज्य में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी को पार कर गई. इसी आधार पर राज्य के कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है. कोर्ट ने पांच जजों की बेंच बनाई है. इसमें इसका निर्धारण किया जाएगा कि आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी ही होनी चाहिए या इससे अधिक.

क्या है मराठा आरक्षण विवाद

9 जुलाई, 2014 को महाराष्ट्र सरकार ने मराठा समुदाय को शिक्षा और सार्वजनिक रोजगार में 16 फीसदी आरक्षण देने के लिए अध्यादेश लाया. 14 नवंबर 2014 को बॉम्बे हाईकोर्ट ने इस पर रोक लगा दी. 18 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने रोक को सही ठहराया.

कोर्ट की आपत्ति के बाद राज्य सरकार नया कानून लेकर आई. सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग अधिनियम 2014 लागू किया गया. इनके लिए 16 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की गई. इनमें मराठा समुदाय को भी शामिल किया गया. लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट ने 7 अप्रैल 2016 को इसके कार्यान्वयन पर रोक लगा दी.

4 जनवरी 2017 को महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के गठन की घोषणा की गई. आयोग ने मराठा समुदाय के लिए शैक्षणिक संस्थानों में 12 फीसदी और सार्वजनिक सेवा में13 फीसदी आरक्षण की अनुशंसा की.

29 नवंबर 2018 को राज्य सरकार ने इस बाबत कानून पारित कर दिया. हालांकि, इस कानून के बाद राज्य में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से अधिक हो गई. फिर से कानून को चुनौती दी गई.

बॉम्बे हाईकोर्ट ने कानून की संवैधानिकता को सही ठहराया. अभी यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है. अंतिम सुनवाई 8 मार्च 2021 को हुई थी. कोर्ट ने सभी राज्य सरकारों से अपना-अपना पक्ष रखने को कहा है.

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