नई दिल्ली : 13 अप्रैल, 1919 को 50 ब्रिटिश-भारतीय सैनिकों ने निहत्थे नागरिकों पर लगभग 15 मिनट तक अंधाधुंध फायरिंग की थी. 103 साल पहले हुई इस कार्रवाई में ब्रिटिश सरकार के रिकॉर्ड के अनुसार, पुरुषों, महिलाओं और बच्चों सहित 379 लोग मारे गए थे, जबकि 1,200 लोग घायल हुए. अन्य स्रोत मृतकों की संख्या 1,000 से अधिक बताते हैं. जलियांवाला बाग हत्याकांड उस समय हुआ जब पंजाब क्षेत्र में लागू दमनकारी कानूनों के खिलाफ अमृसर व अन्य जगहों के लोग शांतिपूर्ण विरोध में भाग ले रहे थे.
जलियांवाला बाग में दो राष्ट्रीय नेताओं - डॉ सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी की निंदा करने के लिए भीड़ शांतिपूर्ण तरीके से इकट्ठा हुई थी. जलियांवालाबाग में 13 अप्रैल की गोलीबारी से पहले अमृतसर में 9 अप्रैल 1919 को रामनवमी शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न हुई थी. 10 अप्रैल को अंग्रेज स्थानीय लोगों भड़काना चाहते थे. डॉ किचलु और डॉ सत्यपाल की गिरफ्तारी हुई. 11 अप्रैल को मार्शल लॉ लागू किया गया. 12 अप्रैल 1919 को जनरल डायर ने 125 अंग्रेज और 310 भारतीय सैनिकों के साथ शहर में मार्च किया. शाम चार बजे हिंदू सभा हाईस्कूल में हुई बैठक में तय किया गया कि अगले दिन जलियांवाला बाग में सभा होगी और यहां डॉ किचलू और डॉ सत्यपाल के पत्र पढ़े जाएंगे. बैठक में आह्वान किया गया कि जनता अधिकतम कुर्बानी के लिए तैयार रहे.
13 अप्रैल को वैशाखी का दिन अमृतसर में यह विशेष उत्साह का मौका होता है, लेकिन अंग्रेज सरकार ने यह घोषणा कर रखी थी कि बिना पास के कोई भी नागरिक घरों से बाहर नहीं निकल सकता. कहा गया कि चार से अधिक लोगों का जमा होना गैरकानूनी माना जाएगा. जरूरत पड़ने पर फौजी ताकत का प्रयोग किया जाएगा. जुलूस नहीं निकाला जा सकता. इतिहासकार अरुण देव बताते हैं कि घोषणा न किए जाने से अमृतसर के अधिकांश लोग सरकारी ऐलान से अनजान थे. लोगों को पता ही नहीं था कि मीटिंग नहीं कर सकते.
जलियांवाला बाग में अंधाधुंध फायरिंग 15 मिनट तक चली : अंग्रेजों के दमनकारी कानून लागू होने के बीच जनरल डायर 13 अप्रैल के दिन जलियांवालाबाग की बैठक के दौरान मशीन गनों से लैस दो मोटर गाड़ियां लाया. जलियांवाला बाग के भीतर जाने के लिए केवल एक तंग गली ही थी, जिसमें गाड़ियां नहीं ले जाई जा सकती थी. और कोई रास्ता नहीं था. डायर फौजी दस्तों के साथ बाजार की ओर से जलियांवाला बाग में दाखिल हुआ औऱ गोलियां चलाने का आदेश दे दिया. 15 मिनट तक गोलियां चलती रहीं. लाशों का ढेर लग गया. जलियांवाला बाग हत्याकांड (13 अप्रैल, 1919) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की महत्वपूर्ण घटना थी. इसे अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भारत के स्वतंत्रता संग्राम का टर्निंग पॉइंट कहा जाता है. भारत सरकार ने 1951 में जलियांवाला बाग में इस क्रूर नरसंहार में अपनी जान गंवाने वालों की याद में एक स्मारक स्थापित किया था. संघर्ष और बलिदान के प्रतीक के रूप में यह आज भी खड़ा है और युवाओं में देशभक्ति की अलख जा रहा है.
देशभर में रॉलेट एक्ट का हुआ विरोध : लेखक प्रशांत गौरव बताते हैं कि 1913 के गदर आंदोलन और 1914 की कोमागाटा मारू घटना ने पंजाब के लोगों में क्रांति की लहर शुरू कर दी थी. उन्होंने बताया कि ब्रिटिश सरकार के पास विद्रोह को रोकने के लिए कोई सख्त कानून नहीं था. पंजाब में बदलते माहौल को भांपते हुए अंग्रेजों ने एक नया कानून बनाने पर विचार किया. यह नया कानून रॉलेट एक्ट (Rowlatt Act) के रूप में सामने आना था. जब ब्रिटिश सरकार ने इस पर चर्चा करनी शुरू की, तो विरोध भी शुरू हो गया और पत्र-पत्रिकाओं ने भी इसके विरोध में लिखना शुरू कर दिया. प्रशांत बताते हैं कि रॉलेट एक्ट के खिलाफ सत्याग्रह के तहत देशभर में विरोध प्रदर्शन हुए, पंजाब के कई हिस्सों में भी विरोध प्रदर्शन हुए. अमृतसर में भी इसके खिलाफ प्रदर्शन चल रहे थे.
जलियांवाला बाग में जनरल डायर के आदेश पर चलीं 1650 गोलियां : प्रो. प्रशांत गौरव बताते हैं, 13 अप्रैल, 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में वैशाखी के मौके पर जमा हुए बच्चे, महिलाएं और बुजुर्गों में 90 प्रतिशत लोगों को नहीं पता था कि क्रांतिकारियों या सत्याग्रहियों की किसी तरह की बैठक होने वाली है. उन्होंने बताया, जैसे ही दुर्गादास भाषण देने के लिए खड़े हुए, गोली चलनी शुरू हो गई. गोली चलने का समय शाम 5:30 बजे बताया जाता है. सैनिकों ने भीड़ पर गोली चलाना शुरू कर दिया. इससे भगदड़ मच गई. कुल मिलाकर 1650 गोलियां चलाई गईं.
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नरसंहार की स्मृतियां खौफनाक, 1961 में बना स्मारक : जलियांवाला बाग नरसंहार के बाद भारतीयों के आक्रोश को देखते हुए ब्रिटिश सरकार को जनरल डायर को निलंबित करना पड़ा और वह ब्रिटेन लौट गया. शहीद उधम सिंह ने 13 मार्च, 1940 को लंदन में जनरल ओ'डायर की गोली मारकर हत्या कर दी और जलियांवाला बाग नरसंहार का बदला लिया. भारत सरकार ने 1961 में, जलियांवाला बाग नरसंहार में मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि देने के लिए वहां एक स्मारक का निर्माण करवाया, तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने इस स्मारक का उद्घाटन किया था.