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क्या एपेक की सदस्यता भारतीय घरेलू बाजार को प्रभावित नहीं करेगा ?

Indian in APEC Opportunities and challenges : क्या भारत एपेक का सदस्य बनेगा ? क्या भारतीय घरेलू बाजार एपेक देशों से प्रभावित नहीं होंगे ? एपेक को लेकर भारत की रणनीति क्या होनी चाहिए ? इन सारे सवालों के जवाब जानने के लिए पढ़ें पूरी खबर.

meeting of APEC
एपेक की बैठक
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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Nov 28, 2023, 7:26 PM IST

हैदराबाद : अमेरिका के सन फ्रांसिस्को शहर में 17 नवंबर को एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग (एपीईसी या एपेक) फोरम की बैठक संपन्न हुई. अन्य मुद्दों के अलावा भारत को इस संगठन का सदस्य बनाए जाने को लेकर भी चर्चा की गई. एपेक का गठन 1989 में किया गया था. यह एक क्षेत्रीय आर्थिक फोरम है. इस समय कुल 21 देश इसके सदस्य हैं. इन सभी देशों का सम्मिलित जीडीपी पूरी दुनिया की जीडीपी का 62 फीसदी है. इनकी सम्मिलित आबादी 2.9 अरब है.

संगठन के सदस्य देश - ऑस्ट्रेलिया, ब्रुनेई, कनाडा, चीन, हांगकांग, चिली, न्यूजीलैंड, पापुआ न्यू गिनी, फिलीपींस, इंडोनेशिया, जापान, दक्षिण कोरिया, रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका, मैक्सिको, पेरू, मलेशिया, सिंगापुर, थाईलैंड, ताइवान और वियतनाम.

संगठन आमराय कायम कर फैसले लेता है और उसके प्रति अपनी प्रतिबद्धता भी जताता है. हालांकि, जो भी प्रतिबद्धताएं हैं, यह किसी भी देश पर बाध्यकारी नहीं है, जैसा कि दूसरे संगठनों में होता है.

एपेक का उद्देश्य - एशिया-प्रशांत क्षेत्र की बढ़ती परस्पर निर्भरता का लाभ उठाना और लोगों के लिए समृद्धि पैदा करना. टैरिफ कम करना, मुक्त व्यापार को बढ़ावा देना और आर्थिक उदारीकरण को बढ़ाना. उनकी नीतियों की वजह से एशिया-प्रशांत क्षेत्र के विकास में बड़ा योगदान मिला है.

भारत एपेक का सदस्य क्यों नहीं - वैसे तो भारत ने 1991 में इस ग्रुप की सदस्यता के लिए रिक्वेस्ट की थी. लेकिन उस समय इसे स्वीकार नहीं किया गया. कुछ सदस्यों ने आपत्ति उठा दी थी. उसके बाद 2012 तक भारत इसका सदस्य नहीं बन सका, क्योंकि एपेक ने खुद ही नए देशों के सदस्यता ग्रहण करने पर रोक लगा रखी थी. यहां जानना जरूरी है कि एपेक मुख्य रूप से प्रशांत रीजन के देशों से मिलकर बना है. भारत प्रशांत महासागर की सीमा से लगा हुआ देश नहीं है. भारत को एक क्षेत्रीय देश के रूप में देखा जाता रहा है. कुछ देश मानते हैं कि यदि भारत को इसकी सदस्यता दी गई, तो एशिया-पेसिफिक प्रतिनिधित्व में एक प्रकार का असंतुलन पैदा हो जाएगा. एशियन देशों का वर्चस्व बढ़ जाएगा. क्योंकि एपेक में पहले से चीन, जापान, द. कोरिया और एशिया के छह अन्य देश भी शामिल हैं. उन्हें लगता है कि इनके फैसले एशिया के हित में होंगे. वैसे, 2012 के बाद से नए देशों के जुड़ने पर पाबंदी नहीं है, लिहाजा भारत की सदस्यता को लेकर फिर से चर्चा होने लगी है. उदारीकरण और आर्थिक सुधारों को लेकर भारत ने जो कदम उठाए हैं, उसके बाद से भारत को पहले के मुकाबले खूब समर्थन मिल रहा है.

एपेक और भारत को क्या होगा फायदा - भारत यह भलीभांति समझता है कि एपेक के साथ एनगेज होने से उन्हें निवेश और व्यापारिक सुविधाओं का विशेष फायदा मिलेगा. वह दुनिया की बड़ी आर्थिक ताकतों के बाजार तक पहुंच सकते हैं. इस समय भारत एक पर्यवेक्षक की भूमिका के साथ एपेक से जुड़ा है. वर्ष 2000 के बाद से भारत ने एपेक देशों के साथ नजदीकी संबंध प्रगाढ़ करने शुरू कर दिए थे. भारत ने मलेशिया और सिंगापुर के साथ कॉंप्रिहेंसिव इकोनोमिक को-ऑपरेशन एग्रीमेंट किया. इसके बाद भारत ने इंडो-एशियन फ्री ट्रेड एग्रीमेंट किया. हालांकि, पूरी तरह से सदस्यता मिलने के बाद व्यापारिक प्रक्रियाएं सरल हो जाएंगी और ट्रांजेक्शन कॉस्ट कम होगा. भारत से होने वाले निर्यात को फायदा पहुंचेगा. भारत को एपेक देशों की टेक्नोलॉजी का भी फायदा मिल सकेगा. उत्पादकता बढ़ाने के लिए उनके अच्छे प्रैक्टिस का भी फायदा मिलेगा.

एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सुधार को नया बल मिल सकेगा. एपेक देश भी भारत के जरिए दुनिया के दूसरे देशों के साथ रणनीतिक संबंध सुधार सकते हैं. मैरीटाइम मजबूती मिलेगी. भारत इस समय दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. इस समय वैश्विक जीडीपी में भारत का योगदान 30 साल पहले के योगदान से दोगुना है. दूसरी ओर एपेक को 140 अरब की बड़ी आबादी जैसा बड़ा मार्केट मिल जाएगा.

चुनौतियां - एपेक की सदस्यता ग्रहण करने से पहले भारत को बहुत कुछ करने की जरूरत है. भारत को व्यापारिक बाधाओं को दूर करना होगा. एपेक देशों ने जैसे नियमन अपना रखे हैं, उसी अनुरूप नियमन बनाने होंगे. भारत को अपना टैरिफ घटाना होगा. नॉन टैरिफ बाधाओं को दूर करना होगा. एपेक देशों को भारत जैसा इतना बड़ा बाजार मिलेगा, तो भारत में सवाल खड़े जरूर होंगे. उन आशंकाओं को भारत को दूर करना होगा. एपेक के कुछ देशों को टेक्नोलॉजिकल एडवांटेज है. उनकी उत्पादकता अधिक है. अगर उन्हें भारतीय बाजार में आने दिया गया, तो भारतीय बाजार और खासकर लोकल फॉर वोकल का संकल्प प्रभावित हो सकता है. कम से कम शॉर्ट टर्म में तो यह जरूर प्रभावित होगा. भारत को लैंगिक समानता, ग्रीन शुरुआत और ग्रामीण इलाकों में सामाजिक समता पर भी काम करने की जरूरत होगी. यानी सभी क्षेत्रों में व्यापक सुधार की जरूरत है. इसके बाद एपेक की सदस्यता के रास्ते खुलेंगे.

ये भी पढ़ें : समावेशी, टिकाऊ अर्थव्यवस्था बनाने के तरीके खोजने में एपेक के सदस्य देशों ने मिलकर काम किया है: बाइडेन

(लेखक- डॉ महेंद्र बाबू कुरुबा, सहायक प्रोफेसर, एचएनबी. गढ़वाल यूनिवर्सिटी, उत्तराखंड)

हैदराबाद : अमेरिका के सन फ्रांसिस्को शहर में 17 नवंबर को एशिया प्रशांत आर्थिक सहयोग (एपीईसी या एपेक) फोरम की बैठक संपन्न हुई. अन्य मुद्दों के अलावा भारत को इस संगठन का सदस्य बनाए जाने को लेकर भी चर्चा की गई. एपेक का गठन 1989 में किया गया था. यह एक क्षेत्रीय आर्थिक फोरम है. इस समय कुल 21 देश इसके सदस्य हैं. इन सभी देशों का सम्मिलित जीडीपी पूरी दुनिया की जीडीपी का 62 फीसदी है. इनकी सम्मिलित आबादी 2.9 अरब है.

संगठन के सदस्य देश - ऑस्ट्रेलिया, ब्रुनेई, कनाडा, चीन, हांगकांग, चिली, न्यूजीलैंड, पापुआ न्यू गिनी, फिलीपींस, इंडोनेशिया, जापान, दक्षिण कोरिया, रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका, मैक्सिको, पेरू, मलेशिया, सिंगापुर, थाईलैंड, ताइवान और वियतनाम.

संगठन आमराय कायम कर फैसले लेता है और उसके प्रति अपनी प्रतिबद्धता भी जताता है. हालांकि, जो भी प्रतिबद्धताएं हैं, यह किसी भी देश पर बाध्यकारी नहीं है, जैसा कि दूसरे संगठनों में होता है.

एपेक का उद्देश्य - एशिया-प्रशांत क्षेत्र की बढ़ती परस्पर निर्भरता का लाभ उठाना और लोगों के लिए समृद्धि पैदा करना. टैरिफ कम करना, मुक्त व्यापार को बढ़ावा देना और आर्थिक उदारीकरण को बढ़ाना. उनकी नीतियों की वजह से एशिया-प्रशांत क्षेत्र के विकास में बड़ा योगदान मिला है.

भारत एपेक का सदस्य क्यों नहीं - वैसे तो भारत ने 1991 में इस ग्रुप की सदस्यता के लिए रिक्वेस्ट की थी. लेकिन उस समय इसे स्वीकार नहीं किया गया. कुछ सदस्यों ने आपत्ति उठा दी थी. उसके बाद 2012 तक भारत इसका सदस्य नहीं बन सका, क्योंकि एपेक ने खुद ही नए देशों के सदस्यता ग्रहण करने पर रोक लगा रखी थी. यहां जानना जरूरी है कि एपेक मुख्य रूप से प्रशांत रीजन के देशों से मिलकर बना है. भारत प्रशांत महासागर की सीमा से लगा हुआ देश नहीं है. भारत को एक क्षेत्रीय देश के रूप में देखा जाता रहा है. कुछ देश मानते हैं कि यदि भारत को इसकी सदस्यता दी गई, तो एशिया-पेसिफिक प्रतिनिधित्व में एक प्रकार का असंतुलन पैदा हो जाएगा. एशियन देशों का वर्चस्व बढ़ जाएगा. क्योंकि एपेक में पहले से चीन, जापान, द. कोरिया और एशिया के छह अन्य देश भी शामिल हैं. उन्हें लगता है कि इनके फैसले एशिया के हित में होंगे. वैसे, 2012 के बाद से नए देशों के जुड़ने पर पाबंदी नहीं है, लिहाजा भारत की सदस्यता को लेकर फिर से चर्चा होने लगी है. उदारीकरण और आर्थिक सुधारों को लेकर भारत ने जो कदम उठाए हैं, उसके बाद से भारत को पहले के मुकाबले खूब समर्थन मिल रहा है.

एपेक और भारत को क्या होगा फायदा - भारत यह भलीभांति समझता है कि एपेक के साथ एनगेज होने से उन्हें निवेश और व्यापारिक सुविधाओं का विशेष फायदा मिलेगा. वह दुनिया की बड़ी आर्थिक ताकतों के बाजार तक पहुंच सकते हैं. इस समय भारत एक पर्यवेक्षक की भूमिका के साथ एपेक से जुड़ा है. वर्ष 2000 के बाद से भारत ने एपेक देशों के साथ नजदीकी संबंध प्रगाढ़ करने शुरू कर दिए थे. भारत ने मलेशिया और सिंगापुर के साथ कॉंप्रिहेंसिव इकोनोमिक को-ऑपरेशन एग्रीमेंट किया. इसके बाद भारत ने इंडो-एशियन फ्री ट्रेड एग्रीमेंट किया. हालांकि, पूरी तरह से सदस्यता मिलने के बाद व्यापारिक प्रक्रियाएं सरल हो जाएंगी और ट्रांजेक्शन कॉस्ट कम होगा. भारत से होने वाले निर्यात को फायदा पहुंचेगा. भारत को एपेक देशों की टेक्नोलॉजी का भी फायदा मिल सकेगा. उत्पादकता बढ़ाने के लिए उनके अच्छे प्रैक्टिस का भी फायदा मिलेगा.

एशिया-प्रशांत क्षेत्र में सुधार को नया बल मिल सकेगा. एपेक देश भी भारत के जरिए दुनिया के दूसरे देशों के साथ रणनीतिक संबंध सुधार सकते हैं. मैरीटाइम मजबूती मिलेगी. भारत इस समय दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. इस समय वैश्विक जीडीपी में भारत का योगदान 30 साल पहले के योगदान से दोगुना है. दूसरी ओर एपेक को 140 अरब की बड़ी आबादी जैसा बड़ा मार्केट मिल जाएगा.

चुनौतियां - एपेक की सदस्यता ग्रहण करने से पहले भारत को बहुत कुछ करने की जरूरत है. भारत को व्यापारिक बाधाओं को दूर करना होगा. एपेक देशों ने जैसे नियमन अपना रखे हैं, उसी अनुरूप नियमन बनाने होंगे. भारत को अपना टैरिफ घटाना होगा. नॉन टैरिफ बाधाओं को दूर करना होगा. एपेक देशों को भारत जैसा इतना बड़ा बाजार मिलेगा, तो भारत में सवाल खड़े जरूर होंगे. उन आशंकाओं को भारत को दूर करना होगा. एपेक के कुछ देशों को टेक्नोलॉजिकल एडवांटेज है. उनकी उत्पादकता अधिक है. अगर उन्हें भारतीय बाजार में आने दिया गया, तो भारतीय बाजार और खासकर लोकल फॉर वोकल का संकल्प प्रभावित हो सकता है. कम से कम शॉर्ट टर्म में तो यह जरूर प्रभावित होगा. भारत को लैंगिक समानता, ग्रीन शुरुआत और ग्रामीण इलाकों में सामाजिक समता पर भी काम करने की जरूरत होगी. यानी सभी क्षेत्रों में व्यापक सुधार की जरूरत है. इसके बाद एपेक की सदस्यता के रास्ते खुलेंगे.

ये भी पढ़ें : समावेशी, टिकाऊ अर्थव्यवस्था बनाने के तरीके खोजने में एपेक के सदस्य देशों ने मिलकर काम किया है: बाइडेन

(लेखक- डॉ महेंद्र बाबू कुरुबा, सहायक प्रोफेसर, एचएनबी. गढ़वाल यूनिवर्सिटी, उत्तराखंड)

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