नई दिल्ली : उत्तराखंड में मुख्यमंत्री के पद से त्रिवेन्द्र सिंह रावत को हटाने का भाजपा का फैसला पार्टी के प्रादेशिक क्षत्रपों की मुख्यमंत्री की पसंद को नजरअंदाज करने की अब तक की प्रक्रियाओं के विपरीत है.
पार्टी के इस फैसले के पीछे प्रमुख वजह यह माना जा रहा है कि यदि रावत अपने पद पर बने रहते तो भाजपा को राज्य विधानसभा के चुनाव में बहुत भारी पड़ सकता था. ठीक वैसा ही जैसा झारखंड में रघुबर दास को मुख्यमंत्री बनाए रखने से 2020 के विधानसभा चुनाव में हुआ.
उत्तराखंड में अगले साल के शुरुआती महीनों में विधानसभा चुनाव होने हैं. रावत के खिलाफ राज्य के भाजपा विधायकों के एक वर्ग की शिकायतें लगातार बढ़ रही थीं. इनमें कांग्रेस से छोड़कर भाजपा में शामिल होने वाले विधायक भी थे. आम जन मानस में रावत की छवि को लेकर भी इन विधायकों ने केंद्रीय नेतृत्व के समक्ष चिंता जताई थी.
सूत्रों के मुताबिक इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए केंद्रीय नेतृत्व ने रावत की जगह किसी अन्य चेहरे के नेतृत्व में आगामी विधानसभा चुनाव में जाने का फैसला किया.
देहरादून में आज भाजपा विधायक दल की बैठक होगी, जिसमें नये नेता का चुनाव किया जाएगा. माना जा रहा है कि जो भी पार्टी का चेहरा होगा वह केंद्रीय नेतृत्व की पसंद का होगा.
पिछले दिनों पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह और भाजपा महासचिव व उत्तराखंड के प्रभारी दुष्यंत कुमार गौतम को देहरादून भेजकर इस संबंध में विधायकों का मन भी टटोला था.
पार्टी यदि राजपूत बिरादरी से आने वाले निवर्तमान मुख्यमंत्री की जगह किसी राजपूत को ही मुख्यमंत्री बनाने का फैसला करती है तो इनमें मंत्री धन सिंह रावत और सतपाल महाराज के नाम प्रमुख हैं.
इस पद के लिए भाजपा के सांसदों अनिल बलूनी और अजय भट्ट के नाम भी प्रमुखता से सामने आए हैं. दोनों ब्राह्मण हैं. राज्य में राजपूत मतदाताओं की तादाद सर्वाधिक है. सूत्रों को कहना है कि गढ़वाल और कुमाऊं के बीच क्षेत्रीय संतुलन बनाए रखने के लिए पार्टी किसी को उपमुख्यमंत्री के पद से भी नवाज सकती है.
2014 के बाद पहली बार ऐसा
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा के सबसे प्रमुख चेहरे के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उभरने के बाद मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने वाले रावत भाजपा के पहले नेता हैं.
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पार्टी इससे पहले भाजपा शासित राज्यों में मुख्यमंत्री के खिलाफ विधायकों की किसी भी प्रकार की लामबंदी के प्रयासों को झटका देती रही है. इसके एवज में वह राज्य सरकार की गतिविधियों पर पैनी नजर रखती थी. हालांकि, झारखंड के अनुभवों से सीख लेते हुए भाजपा ने इस बार अपनी रणनीति बदली है.