नई दिल्ली : भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) धनंजय वाई चंद्रचूड़ ने शुक्रवार को खुद को 'कानून और संविधान का सेवक' बताया. शुक्रवार को एक वकील ने कहा कि सीजेआई को कॉलेजियम प्रणाली और वरिष्ठ अधिवक्ता के पदनाम को खत्म कर देना चाहिए. अधिवक्ता मैथ्यूज जे नेदुम्पारा ने सीजेआई की अगुवाई वाली और न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ के समक्ष अपनी याचिका प्रस्तुत की. जिसमें उन्होंने कहा कि शीर्ष अदालत को कॉलेजियम प्रणाली और वरिष्ठ पदनाम प्रक्रिया में सुधार के बारे में सोचना चाहिए.
मामले में सुनवाई करते हुए सीजेआई ने नेदुमपारा से कहा कि एक वकील के रूप में आपको अपने दिल की इच्छा पूरी करने की आजादी है. लेकिन इस न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में, मैं कानून और संविधान का सेवक हूं. सीजेआई ने जोर देकर कहा कि मुझे पद और निर्धारित कानून का पालन करना होगा.
नेदुम्पारा ने कहा कि यद्यपि न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने सुधारों की एक श्रृंखला शुरू की है. नेदुमपारा ने कहा कि न्यायपालिका को नई ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए कॉलेजियम और वरिष्ठ पदनाम से संबंधित सुधारों की बहुत आवश्यकता है. नेदुम्पारा वकीलों के एक समूह का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, जिन्होंने मौजूदा न्यायाधीशों की चयन प्रणाली और वकीलों को वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में नामित करने की प्रणाली को चुनौती देते हुए अलग-अलग याचिकाएं दायर की हैं.
कॉलेजियम प्रणाली या न्यायाधीशों के चयन के संबंध में एक याचिका में सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों में न्यायिक नियुक्तियों की कॉलेजियम प्रणाली को खत्म करने का निर्देश देने की मांग की गई थी. याचिका में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) को पुनर्जीवित करने की मांग की गई है. याचिकाकर्ताओं ने कॉलेजियम प्रणाली को 'भाई-भतीजावाद और पक्षपात का पर्याय' कहा और एनजेएसी फैसले की समीक्षा की मांग की. याचिका में दलील दी गई कि 2015 के फैसले को शुरू से ही रद्द कर दिया जाना चाहिए क्योंकि इसने कॉलेजियम प्रणाली को पुनर्जीवित कर दिया था.
याचिकाकर्ताओं ने दूसरी याचिका में शीर्ष अदालत के हालिया फैसले की समीक्षा की मांग की. जिसने शीर्ष अदालत और उच्च न्यायालयों में वकीलों के एक वर्ग को वरिष्ठ वकील के रूप में नामित करने की प्रथा को सही बताया था.
2014 में एनडीए सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) अधिनियम पारित किया, जिससे संवैधानिक अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक वैकल्पिक प्रणाली स्थापित की गई, जिसने इस प्रक्रिया में सरकार के लिए एक बड़ी भूमिका का भी प्रस्ताव रखा. 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि यह कानून असंवैधानिक है क्योंकि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता के साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश करता है.