हैदराबाद : 9 नवंबर को उत्तर प्रदेश के कासगंज जिले के एक थाने में अल्ताफ नाम के युवक की संदिग्ध परिस्थियों में मौत हो गई थी. पुलिस ने दावा किया था कि अल्ताफ ने हवालात के शौचालय में लगी नल की टोंटी से हुडी का फीता बांधकर फंदा बना लिया और इसे गले में डालकर फांसी लगा ली. उसकी मौत के बाद पुलिस के दावे पर सवाल उठे. सबने एक ही सवाल किया कि 5.6 फीट का अल्ताफ नाड़े से बाथरूम की 2 फीट ऊंची टोंटी से कैसे लटक सकता है ? अल्ताफ के पिता ने पुलिस कस्टडी में हत्या का दावा करते हुए पुलिसकर्मियों के खिलाफ तहरीर दी.
अल्ताफ ही नहीं, देश में सभी राज्यों में हिरासत में मौत के बाद पुलिस कठघरे में खड़ी होती रही है. भारत के गृह मंत्रालय नित्यानंद राय ने भारतीय संसद में कहा कि पिछले तीन वर्षों में 348 लोगों की पुलिस हिरासत और 5,221 लोग न्यायिक हिरासत में मौत हुई. इस तीन साल की अवधि में उत्तर प्रदेश में पुलिस हिरासत में 23 और न्यायिक हिरासत में 1,295 लोगों की मौत हुई है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से मिली सूचना के अनुसार, 2018 में पुलिस हिरासत में 136 लोगों की मौत हुई. 2019 में 112 और 2020 में 100 लोगों की जान गई.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, पिछले 10 वर्षों में पुलिस हिरासत में 1,004 लोगों की मौत हुई, जिनमें से 40 प्रतिशत की मौत स्वाभाविक रूप से या बीमारी के कारण हुई, जबकि 29 प्रतिशत ने आत्महत्या की. एनसीआरबी के मुताबिक, पिछले चार वर्षों में हिरासत में हुई मौतों के सिलसिले में 96 पुलिसकर्मियों को गिरफ्तार किया गया है.
आंकड़ों के मुताबिक, पिछले 20 वर्षों के दौरान हिरासत में 1,888 मौतें हुईं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, 2001 के बाद से 1,185 मौतें पुलिस हिरासत या लॉकअप में हुई जबकि 703 लोग जूडिशियल कस्टडी में मारे गए. कोर्ट या मानवाधिकार आयोग के निर्देश के बाद टॉर्चर के आरोपी पुलिस कर्मियों के खिलाफ 893 मामलों में केस दर्ज किए गए.
358 पुलिसकर्मियों के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया गया, लेकिन इस अवधि में केवल 26 पुलिसकर्मियों को दोषी ठहराया गया. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार, 2017 में 33 पुलिसकर्मियों को गिरफ्तार किया गया था जबकि 43 पुलिस कर्मियों को चार्जशीट किया गया था लेकिन किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया था. एनसीआरबी के 2019 में हिरासत में मौत के 85 मामले दर्ज किए गए, लेकिन किसी भी पुलिसकर्मी को दोषी नहीं ठहराया गया, हालांकि गुजरात के 14 कर्मियों को गिरफ्तार किया गया और चार्जशीट किया गया.
नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, 2020 में हिरासत में 76 मौतें हुईं, जिनमें गुजरात में सबसे ज्यादा 15 मौतें हुईं. नैशनल कैंपेन अंगेस्ट टॉर्चर का दावा है कि 2021 के पहले पांच महीनों में 1,067 लोगों की हिरासत में मौत हो गई.
हिरासत में मौत के मामले में जांच और कार्रवाई के लिए कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसिजर के तहत नियम बनाए गए. कानून कहता है कि पुलिस हिरासत में किसी की मौत होने पर प्राथमिकी दर्ज की जाए. साथ ही जूडिशियल मजिस्ट्रेट या मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट भी मामले की जांच करे. मैजिस्ट्रेट को मौत के 24 घंटे के भीतर शव को नजदीकी सिविल सर्जन के पास भेजने की जिम्मेदारी लेनी होती है. मैजिस्ट्रेट ही तय करते हैं कि जांच के दौरान पुलिस कस्टडी में मरे व्यक्ति के परिजन उपस्थित रहेंगे या नहीं.
इसके अलावा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने हिरासत में होने वाली मौतों के मामले गाइडलाइन बनाई है. गाइडलाइन के अनुसार, कस्टडी में मौत के 24 घंटे के भीतर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को मौत की सूचना देनी होती है. साथ ही, पोस्टमॉर्टम की वीडियो रिकॉर्डिंग कराना होता है. मैजिस्ट्रेट को अपनी जांच रिपोर्ट दो महीने के भीतर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भेजनी होती है. 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने हिरासत में होने वाली अप्राकृतिक मौतों वाले सभी कैदियों की पहचान करने और उन्हें मुआवजा देने का निर्देश दिया था. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी अनिवार्य किया है कि सभी पुलिस स्टेशनों और जांच एजेंसियों में सीसीटीवी कैमरे होने चाहिए. हालांकि, राइट टु इन्फॉर्मेशन के तहत मांगी गई जानकारियों और सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों से पता चलता है कि इसका पालन नहीं किया जा रहा है.
अल्ताफ की मौत के मामले में पेंच उलझता ही जा रहा है. पूछताछ में उसके पिता लगातार बयान बदल रहे हैं. इस केस में जांच इस तथ्य पर टिक गई है कि इसे हिरासत में टॉर्चर से मौत माना भी जाएगा या नहीं. अगर जांच के बाद इसे आत्महत्या करने की बात सामने आएगी तो पुलिस को क्लीन चिट मिल जाएगी.