नई दिल्ली : कर्नाटक के पूर्व सीएम और जनता दल सेक्यूलर के नेता एचडी कुमारस्वामी ने मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई को पत्र लिखकर 'हिंदी दिवस' नहीं मनाने का अनुरोध करके एक बार फिर से हिन्दी का विरोध (Hindi Diwas 2022 Protest) शुरू कर दिया है. 14 सितंबर को देश भर में हिंदी दिवस (Hindi Diwas 2022) मनाने के पहले इस विरोध को देखते हुए तरह तरह की चर्चाओं का बाजार गर्म है. देश के सामाजिक कार्यकर्ताओं व अन्य विद्वानों लोगों का यह कहना है कि हिन्दी राजभाषा है, इसकी किसी के साथ कोई प्रतिस्पर्धा नहीं है. राज्यों की क्षेत्रीय भाषाओं का हिन्दी के साथ कोई झगड़ा नहीं है. हिन्दी और भारतीय भाषाओं का परिवार एक है. यह बात समझाने के बजाय लोग बेवजह गलत तरह के तर्कों को तूल देते हैं.
भले ही राजभाषा के रुप में घोषित हिन्दी देश में अक्सर होने वाले विरोध प्रदर्शनों व राजनैतिक सूझबूझ के अभाव में राष्ट्रभाषा नहीं बन पायी, लेकिन देश में धीरे धीरे लोगों का रुझान रोजी रोजगार व फिल्मों के कारण हिन्दी के प्रति बढ़ा है. साथ पर्यटन व अखिल भारतीय सेवाओं ने इसके प्रचार में एक बड़ी भूमिका निभायी है. लोगों ने कहा कि हिंदी का विरोध वास्तविक रूप से केवल राजनैतिक है. सांस्कृतिक व भाषागत विरोध न के बराबर है. अब भी जो यदा कदा विरोध होता है वह राजनीति से प्रेरित होता है. आप देश में कहीं भी जाकर हिन्दी में बात करके रोजगार कर सकते हैं या पर्यटन स्थल से घूमकर वापस आ सकते हैं. यही बात उन लोगों पर भी लागू होती है, जो हिन्दी नहीं जानते लेकिन बाहर निकलते ही वह इसे स्वीकार कर लेते हैं. धीरे धीरे वह इसे बोलने भी लगते हैं. देश की राजनीति में बड़ा मुकाम बनाने वाले कई राजनेताओं ने पहले तो युवावस्था में किए गए हिन्दी विरोधी आंदोलनों में भाग लिया, लेकिन देश की राजनीति में जैसे जैसे भागीदारी बढ़ी तो वह हिन्दी सीखकर अपनी राष्ट्रीय नेता के रुप में पहचान बनायी.
आज भी आंकड़ों को देखेंगे तो पता चलेगा कि देश में सर्वाधित हिन्दी बोली जाती है. उसके बाद लोग अंग्रेजी भाषा में बातचीत करना पसंद करते हैं. इस आंकड़े में आप देश की अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की स्थिति देख सकते हैं......
यह है एचडी कुमारस्वामी को आपत्ति
एचडी कुमारस्वामी ने मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई को लिखे पत्र में कहा है कि अगर राज्य में 'हिंदी दिवस' मनाया गया तो यह कन्नड़ लोगों के लिए अपमानजनक होगा. जद (एस) नेता ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री से टैक्सपेयर्स के पैसे का इस्तेमाल करके 'हिंदी दिवस' नहीं मनाने का आग्रह करते हुए लिखा है कि 14 सितंबर को होने वाला हिंदी दिवस जबरदस्ती मनाना कर्नाटक के लोगों के साथ "अन्याय" होगा. कुमारस्वामी ने अपने पत्र में लिखा है कि देश में हजारों भाषाएं और बोलियां, 560 से अधिक रियासतें, और विविध सामाजिक व सांस्कृतिक प्रथाएं भारत को एक "महान संघ" बनाती हैं। ऐसी भूमि में, एक विशेष भाषा का जश्न मनाना अन्याय है ..." पूर्व मुख्यमंत्री कुमारस्वामी ने इसके पहले भी हिंदी दिवस समारोह का विरोध करते हुए कहा था कि इसका उन लोगों के लिए कोई मतलब नहीं है, जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं है, और इसे खत्म करने की भी मांग की थी.
अमित शाह के बयान पर विवाद
आपको बता दें कि 2019 में जब देश के गृहमंत्री अमित शाह ने एक देश एक भाषा की बात कही थी तब भी इसका जोरशोर से विरोध हुआ था. इस मामले में हैदराबाद सांसद असदुद्दीन औवेसी, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, डीएमके नेता स्टालिन, पन्नीरसेल्वम, संगीतकार एआर रहमान, कर्नाटक के पूर्व सीएम एचडी कुमारस्वामी विरोध में कूद पड़े थे. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि पूरे देश को एकता की डोर में बांधने का काम अगर कोई एक भाषा कर सकती है, तो वह सर्वाधिक बोली जाने वाली हिंदी भाषा ही है. उन्होंने एक देश, एक भाषा की बात का हवाला देते हुए कहा कि महात्मा गांधी और सरदार पटेल के साथ साथ देश के कई गैर हिन्दी भाषी नेताओं ने इसकी पैरवी की थी. हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का बीड़ा हिंदी भाषी नेताओं ने नहीं बल्कि महात्मा गांधी, रवीन्द्र नाथ टैगोर, सी. राजगोपालाचारी, सरदार पटेल और सुभाषचन्द्र बोस सरीखे गैर-हिंदी भाषी नेताओं ने उठाया था. ये सभी हिंदी भाषी प्रदेशों से न होते हुए भी हिंदी की ताकत से वाकिफ थे.
एकबार फिर से केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 10 अप्रैल को संसदीय राजभाषा समिति की 37वीं बैठक की अध्यक्षता करते हुए कहा था कि हिंदी को अंग्रेजी की वैकल्पिक भाषा के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए, लेकिन स्थानीय भाषाओं के रूप में नहीं. साथ ही गृह मंत्री ने सभी पूर्वोत्तर राज्यों में कक्षा 10 तक हिंदी को अनिवार्य विषय बनाने की घोषणा पर भी घमासान मचा था. गृह मंत्री ने कथित तौर पर बैठक में कहा, "पूर्वोत्तर के 9 आदिवासी समुदायों ने अपनी बोलियों की लिपियों को देवनागरी में बदल दिया है, जबकि पूर्वोत्तर के सभी 8 राज्यों ने कक्षा 10 तक के स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य करने पर सहमति व्यक्त की है। छात्रों को हिंदी का प्रारंभिक ज्ञान देने की जरूरत है। कक्षा 9 तक के छात्रों को हिंदी का प्रारंभिक ज्ञान देने और हिंदी शिक्षण परीक्षाओं पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है।"
तमिलनाडु में हिंसक हो गया था आंदोलन
कहा जाता है कि तमिलनाडु में हिंदी को लेकर विरोध 1937 से ही है, जब चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की सरकार ने मद्रास प्रांत में हिंदी को लाने का समर्थन किया था पर द्रविड़ कषगम के नेताओं ने इसका विरोध किया था. लेकिन साल 1965 में दूसरी बार जब हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने की कोशिश की गई तो एक बार फिर से गैर हिंदी भाषी राज्यों में पारा चढ़ गया था. डीएमके नेता डोराई मुरुगन बताते हैं कि उस समय वह कॉलेज में पढ़ रहे थे. तब उन्हें विरोध करने पर मद्रास शहर के पचाइअप्पन कॉलेज से गिरफ़्तार किया गया था. उस समय के नेता सीएन अन्नादुराई 25 जनवरी को सभी घरों की छत पर काला झंडा फहराने का ऐलान किया. राज्य भर में हज़ारों लोग गिरफ़्तार किए गए थे, लेकिन मदुरई में विरोध प्रदर्शनों ने हिंसक रूप ले लिया था.यहां पर कांग्रेस दफ्तर के बाहर एक हिंसक झड़प में आठ लोगों को ज़िंदा जला दिया गया. ये विरोध प्रदर्शन और हिंसक झड़पें तकरीबन दो हफ्ते तक चलीं और आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक 70 लोगों की जानें गयीं थीं.
कहा जाता है कि कई कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी विरोध किया था. पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बीसी रॉय भी हिंदी थोपे जाने के खिलाफ थे और कहा कि जबरन कोई भाषा थोपी नहीं जानी चाहिए.
करुणानिधि का यही था मेन एजेंडा
कहा जाता है कि तमिलनाडु की राजनीति में करुणानिधिको पहली पहचान हिंदी विरोध के चलते मिली थी. इस विरोध को उन्होंने इतनी मजबूती से पकड़ा और इतना इस्तेमाल किया कि वह द्रविण मुनैत्र कषगम के दमदार नेता ही बने बल्कि मुख्यमंत्री की कुर्सी तक भी जा पहुंचे. दक्षिण भारत की राजनीति में हिंदी का विरोध करने का फायदा उन्होंने बहुत अच्छी तरह से समझ लिया था. इसलिए कभी इस मौके को हाथ से नहीं जाने दिया और जब भी मौका मिला वह अपनी आवाज बुलंद करते रहे. इसी मुद्दे को लेकर डीएमके ने 1967 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को सत्ता से ऐसा बेदखल किया. हिंदी विरोध पर करुणानिधि जोशीले भाषण देते थे. तमिलनाडु में स्कूल-कॉलेजों में हिंदी की पढाई बंद हो चुकी थी. रेलवे स्टेशन या सरकारी आफिसों, बैंकों के साइन बोर्डों तक पर हिंदी का प्रयोग बैन हो गया. करुणानिधि राष्ट्रीय स्तर पर सबसे प्रबल हिंदी विरोध नेता के रूप में पहचान बना चुके थे. साथ डीएमके में उनकी स्थिति इतनी मजबूत हो चुकी थी कि जब 03 फरवरी 1969 को मुख्यमंत्री अन्नादुरई का निधन हुआ तो करुणानिधि पार्टी के नेता भी बने और मुख्यमंत्री भी.
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