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माओवाद में 'हिडमा' का उदय, दे रहा बड़े बदलाव का संकेत

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Published : Apr 6, 2021, 9:45 PM IST

माओवादियों ने शनिवार को छत्तीसगढ़ में सुरक्षा बलों पर घात लगाकर हमला किया. हमले में मडवी हिडमा का नाम सामने आया है, जो इस बात का संकेत है कि अब माओवादी आंदोलन का नेतृत्व तेलुगु बोलने वालों के हाथों से आदिवासियों हाथों में जा रहा है. पढ़िए वरिष्ठ पत्रकार संजीब कुमार बरुआ की रिपोर्ट.

हिडमा
हिडमा

नई दिल्ली : 1980 के दशक से बड़े पैमाने पर मध्य भारत में जो आदिवासी माओवादी विद्रोह में शामिल हुए, उनमें से बेहद कम लोग ही शीर्ष नेता बने और जो आंध्र प्रदेश के प्रभुत्व वाले आंदोलन में ऊपरी और मध्यवर्ती जाति के तेलुगु नेताओं के साथ खड़े रहे. झारखंड के मिहिर बेसरा के अलावा बहुत कम स्थानीय आदिवासियों ने उग्रवादी आंदोलन का नेतृत्व किया. लेकिन इन सब में से किसी ने भी मडवी हिडमा जैसी छवि हासिल नहीं की.

शनिवार (3 अप्रैल, 2021) छत्तीसगढ़ के बीजापुर-सुकमा सीमा पर जोनागुड़ा के जंगलों के पास सुरक्षा बलों पर हुए हमले में हिडमा का नाम सामने आया है. इसमें गोंड समुदाय के 50 आदिवासी जो 'खूंखार' बटालियन 1'के प्रमुख शामिल हैं.

हिडमा को 'हिडमालु' और 'संतोष' नाम से भी जाना जाता है. सरकार के खुफिया सूत्रों के अनुसार इसे 'केंद्रीय समिति' और साथ ही सीपीआई के 'केंद्रीय सैन्य आयोग' दोनों का सदस्य माना जाता है. यह (माओवादी) - पार्टी में शक्तिशाली निर्णय लेने वाली इकाई है.

इस सबंध में प्रोफेसर कुमार संजय सिंह जो दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाते हैं का कहना है कि हिडमा का उदय एक जैविक आदिवासी नेतृत्व के उदय का संकेत है और सरकार को यह समझना चाहिए. यदि जनजातियों ने आंदोलन की बागडोर संभाली, तो यह संथाल उलगुलान की तरह आदिवासियों में अशांति पैदा कर सकता है, इसे नियंत्रित करना मुश्किल होगा.

माओवादी विद्रोह को ऐतिहासिक प्रक्रिया की पृष्ठभूमि में अधिक समग्र तरीके से तेजी से देखने की आवश्यकता है, जो कश्मीर उग्रवाद और पूर्वोत्तर उग्रवाद के साथ, देश के सामने तीन सबसे अधिक दबाव वाली आंतरिक सुरक्षा स्थितियों का गठन करता है.

सिंह ने कहा कि भारत के आदिवासी इलाकों को माओवादी आंदोलन नहीं माना जा सकता है, क्योंकि मध्य भारत से लेकर पश्चिमी घाट तक फैले पूरे क्षेत्र में आदिवासी प्रतिरोध हमेशा से ही देखने को मिला है.

यह 2,500 किलोमीटर लंबा क्षेत्र है, जिसे रेड कॉरिडोर के रूप में भी जाना जाता है, जो कई जनजातियों और भीलों में शामिल जनजातियों द्वारा बसा हुआ है. यह जनजातियां मजबूरी के कारण आई हैं न की अपनी मर्जी से. उनका (आदिवासियों) मानना है कि यह शायद उनका अंतिम जीवन है.

सिंह बताते हैं कि राजनीतिक रूप से उभरने के कारण ऐतिहासिक विस्थापन की एक श्रृंखला के बाद जनजातियां अपने वर्तमान निवास स्थान पर पहुंच गई हैं.

शुरू में ये जनजातियां धर्मशाला क्षेत्रों में बस गईं, लेकिन राजनीतिक स्वरूप सामने आने लगे जिसके परिणामस्वरूप ये जनजातियां दुर्गम और दूरस्थ क्षेत्रों में चली गईं, लेकिन यह भी कि उन्हें आर्थिक पिछड़ेपन से नहीं बचा सका.

कभी राजपूत राज्यों और फिर मुगलों और अंग्रेजों के उदय ने जनजातियों को लगातार अधिक घने और दुर्गम जंगलों की ओर धकेल दिया. अधिक दबाव के परिणामस्वरूप वह पीछे ढकेल दिए गए. यही कारण है कि 19वीं सदी के आखिर से यह क्षेत्र लगातार एक के बाद एक आदिवासी विद्रोह का गवाह बना. इन क्षेत्रों में जब भी विकास की पहल की जाती उसका उलटा प्रभाव पड़ता. यहां विकास जनजातियों के दृष्टिकोण से विकास नहीं है.

वे विकास को अपनी स्थिरता के अलगाव के रूप में देखते हैं, इसलिए स्थानीय जनजातियों के लिए यह मुद्दा बड़ी संख्या में लोगों के लिए अच्छा नहीं है.

इतिहास के प्रोफेसर का कहना है कि इसलिए वहां एक आर्थिक मॉडल पर काम किया जाना चाहिए, जो उनके सतत विकास को सुनिश्चित करे. जब तक ऐसा नहीं होता है, तब तक एक के बाद दूसरा संगठन जन्म लेता रहेगा.

पढ़ें- जानें कौन है नक्सली हिडमा, जिसने सुरक्षाबलों को एम्बुश में फंसाया

आखिरकार माओवाद सिर्फ एक लक्षण है, कारण नहीं. यह राजनीति का एक रूप है. दिलचस्प बात यह है कि पूरे नक्सल प्रभावित क्षेत्र ने भी इस तरह के आंदोलनों को जारी रखा है.

इस क्षेत्र ने गांधीवाद से लेकर समाजवाद तक की संपूर्ण राजनीति को बनाए रखा है. इसका कारण यह है कि इन क्षेत्रों में यह धारणा है कि उनके सबमर्ज होने से आर्थिक, सामाजिक और संस्कृति पर गंभीर खतरा हो सकता है. आदिवासियों को डर है कि अगर उन्हें और आगे धकेला गया तो वे जिंदा नहीं रहेंगे.

सिंह ने कहा कि ये दो अलग-अलग दुनिया हैं, जो एक उदार विकास मॉडल के माध्यम से सामने आए हैं, जिसने 1880 के दशक के बाद टकराव पैदा किया.

दूसरे शब्दों में, एक नए विकासात्मक मॉडल पर काम किया जाए, जो उन जनजातियों के अनुरूप हो, जिसमें जल, जंगल, जमीन के जनजातीय अवधारणात्मक लोकाचार शामिल हो.

नीति-निर्माताओं को पुराने विकास मैट्रिक्स को पुनर्गठित कर और सभी के लिए एक जीत की स्थिति तैयार करनी होगी.

सिंह ने कहा कि जब तक हिंसा खत्म नहीं होती है, तब तक नक्सलियों के आंदोलन की आड़ में आदिवासियों में अशांति बनी रहेगी.

नई दिल्ली : 1980 के दशक से बड़े पैमाने पर मध्य भारत में जो आदिवासी माओवादी विद्रोह में शामिल हुए, उनमें से बेहद कम लोग ही शीर्ष नेता बने और जो आंध्र प्रदेश के प्रभुत्व वाले आंदोलन में ऊपरी और मध्यवर्ती जाति के तेलुगु नेताओं के साथ खड़े रहे. झारखंड के मिहिर बेसरा के अलावा बहुत कम स्थानीय आदिवासियों ने उग्रवादी आंदोलन का नेतृत्व किया. लेकिन इन सब में से किसी ने भी मडवी हिडमा जैसी छवि हासिल नहीं की.

शनिवार (3 अप्रैल, 2021) छत्तीसगढ़ के बीजापुर-सुकमा सीमा पर जोनागुड़ा के जंगलों के पास सुरक्षा बलों पर हुए हमले में हिडमा का नाम सामने आया है. इसमें गोंड समुदाय के 50 आदिवासी जो 'खूंखार' बटालियन 1'के प्रमुख शामिल हैं.

हिडमा को 'हिडमालु' और 'संतोष' नाम से भी जाना जाता है. सरकार के खुफिया सूत्रों के अनुसार इसे 'केंद्रीय समिति' और साथ ही सीपीआई के 'केंद्रीय सैन्य आयोग' दोनों का सदस्य माना जाता है. यह (माओवादी) - पार्टी में शक्तिशाली निर्णय लेने वाली इकाई है.

इस सबंध में प्रोफेसर कुमार संजय सिंह जो दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाते हैं का कहना है कि हिडमा का उदय एक जैविक आदिवासी नेतृत्व के उदय का संकेत है और सरकार को यह समझना चाहिए. यदि जनजातियों ने आंदोलन की बागडोर संभाली, तो यह संथाल उलगुलान की तरह आदिवासियों में अशांति पैदा कर सकता है, इसे नियंत्रित करना मुश्किल होगा.

माओवादी विद्रोह को ऐतिहासिक प्रक्रिया की पृष्ठभूमि में अधिक समग्र तरीके से तेजी से देखने की आवश्यकता है, जो कश्मीर उग्रवाद और पूर्वोत्तर उग्रवाद के साथ, देश के सामने तीन सबसे अधिक दबाव वाली आंतरिक सुरक्षा स्थितियों का गठन करता है.

सिंह ने कहा कि भारत के आदिवासी इलाकों को माओवादी आंदोलन नहीं माना जा सकता है, क्योंकि मध्य भारत से लेकर पश्चिमी घाट तक फैले पूरे क्षेत्र में आदिवासी प्रतिरोध हमेशा से ही देखने को मिला है.

यह 2,500 किलोमीटर लंबा क्षेत्र है, जिसे रेड कॉरिडोर के रूप में भी जाना जाता है, जो कई जनजातियों और भीलों में शामिल जनजातियों द्वारा बसा हुआ है. यह जनजातियां मजबूरी के कारण आई हैं न की अपनी मर्जी से. उनका (आदिवासियों) मानना है कि यह शायद उनका अंतिम जीवन है.

सिंह बताते हैं कि राजनीतिक रूप से उभरने के कारण ऐतिहासिक विस्थापन की एक श्रृंखला के बाद जनजातियां अपने वर्तमान निवास स्थान पर पहुंच गई हैं.

शुरू में ये जनजातियां धर्मशाला क्षेत्रों में बस गईं, लेकिन राजनीतिक स्वरूप सामने आने लगे जिसके परिणामस्वरूप ये जनजातियां दुर्गम और दूरस्थ क्षेत्रों में चली गईं, लेकिन यह भी कि उन्हें आर्थिक पिछड़ेपन से नहीं बचा सका.

कभी राजपूत राज्यों और फिर मुगलों और अंग्रेजों के उदय ने जनजातियों को लगातार अधिक घने और दुर्गम जंगलों की ओर धकेल दिया. अधिक दबाव के परिणामस्वरूप वह पीछे ढकेल दिए गए. यही कारण है कि 19वीं सदी के आखिर से यह क्षेत्र लगातार एक के बाद एक आदिवासी विद्रोह का गवाह बना. इन क्षेत्रों में जब भी विकास की पहल की जाती उसका उलटा प्रभाव पड़ता. यहां विकास जनजातियों के दृष्टिकोण से विकास नहीं है.

वे विकास को अपनी स्थिरता के अलगाव के रूप में देखते हैं, इसलिए स्थानीय जनजातियों के लिए यह मुद्दा बड़ी संख्या में लोगों के लिए अच्छा नहीं है.

इतिहास के प्रोफेसर का कहना है कि इसलिए वहां एक आर्थिक मॉडल पर काम किया जाना चाहिए, जो उनके सतत विकास को सुनिश्चित करे. जब तक ऐसा नहीं होता है, तब तक एक के बाद दूसरा संगठन जन्म लेता रहेगा.

पढ़ें- जानें कौन है नक्सली हिडमा, जिसने सुरक्षाबलों को एम्बुश में फंसाया

आखिरकार माओवाद सिर्फ एक लक्षण है, कारण नहीं. यह राजनीति का एक रूप है. दिलचस्प बात यह है कि पूरे नक्सल प्रभावित क्षेत्र ने भी इस तरह के आंदोलनों को जारी रखा है.

इस क्षेत्र ने गांधीवाद से लेकर समाजवाद तक की संपूर्ण राजनीति को बनाए रखा है. इसका कारण यह है कि इन क्षेत्रों में यह धारणा है कि उनके सबमर्ज होने से आर्थिक, सामाजिक और संस्कृति पर गंभीर खतरा हो सकता है. आदिवासियों को डर है कि अगर उन्हें और आगे धकेला गया तो वे जिंदा नहीं रहेंगे.

सिंह ने कहा कि ये दो अलग-अलग दुनिया हैं, जो एक उदार विकास मॉडल के माध्यम से सामने आए हैं, जिसने 1880 के दशक के बाद टकराव पैदा किया.

दूसरे शब्दों में, एक नए विकासात्मक मॉडल पर काम किया जाए, जो उन जनजातियों के अनुरूप हो, जिसमें जल, जंगल, जमीन के जनजातीय अवधारणात्मक लोकाचार शामिल हो.

नीति-निर्माताओं को पुराने विकास मैट्रिक्स को पुनर्गठित कर और सभी के लिए एक जीत की स्थिति तैयार करनी होगी.

सिंह ने कहा कि जब तक हिंसा खत्म नहीं होती है, तब तक नक्सलियों के आंदोलन की आड़ में आदिवासियों में अशांति बनी रहेगी.

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