देहरादून(उत्तराखंड): देशभर में आज श्री कृष्ण जन्माष्टमी मनाई जा रही है. 'नंद के आनंद भयो, जय कन्हैया लाल की जैसे जयकारों के साथ भगवान कृष्ण की लीलाओं को याद कर सेलिब्रेट किया जा रहा है. माना जाता है जितनी लीलाएं भगवान कृष्ण की हैं शायद ही उतनी लीलाएं किसी देवी देवता ने की होंगी. आमतौर पर भगवान कृष्ण का संबंध मथुरा, वृंदावन और गोकुल से बताया जाता है, मगर आज हम आपको श्रीकृष्ण के उत्तराखंड कनेक्शन के बारे में बताने जा रहे हैं. ये कनेक्शन ऐसा है जिसके बिना कृष्ण अधूरे हैं.
उत्तराखंड से श्रीकृष्ण का नाता: भगवान श्रीकृष्ण का उत्तराखंड से जीवन का नाता है. अगर यह कहे कि भगवान के प्राण बचाने में उत्तराखंड के पर्वतों की बहुत बड़ी भूमिका रही है तो गलत नहीं होगा. भगवान कृष्ण का जन्म द्वापर युग में हुआ था, कहा जाता है कि भगवान कृष्ण का जब जन्म हुआ तब वर्ष लग्न में रोहिणी नक्षत्र था. तब सूर्य सिंह राशि में था. भगवान कृष्ण ने जब जन्म लिया उस वक्त ठीक रात के 12 बज रहे थे. गौशाला में पैदा हुए भगवान कृष्ण ने कंस की वजह से कई पीड़ाएं झेली. उनके माता-पिता ने भी बमुश्किल दिन काटे. ये सब कुछ श्रीकृष्ण के जन्म से ही शुरू हो गया था. भगवान कृष्ण के जन्म के बाद जब उनके गृह नक्षत्र और कुंडली को दिखाने के लिए ऋषि कात्यायन को बुलाया गया. उन्होंने भगवान कृष्ण की कुंडली में ऐसा दोष बता दिया जिसका निवारण सिर्फ हिमालय के पर्वतों से हो सकता था.
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बिल्व पर्वत ने कृष्ण के सर्प दोष में दिया साथ: कहा जाता है ऋषि कात्यायन ने भगवान कृष्ण की कुंडली में सर्प दोष देखा. उन्होंने बताया उन्हें आने वाले समय में किसी नाग से खतरा हो सकता है. जैसे ही कुंडली देखने के बाद ऋषि ने यह बात उनके माता-पिता को बताई तो दोनों ही परेशान हो गये. ऋषि कात्यायन से उन्होंने इसका निवारण पूछा. तब ऋषि कात्यायन ने बताया अगर भगवान श्रीकृष्ण के माथे पर मोर पंख लगाया जाये तो उनका ये दोष काफी हद तक दूर हो सकता है. साथ ही उन्होंने इसके साथ कुछ ऐसी चीजें जोड़ी जिसका सीधा संबंध उत्तराखंड से था. ऋषि कात्यायन ने कहा श्रीकृष्ण के माथे पर लगने वाला ये मोर पंख किसी ऐसे वैसे पर्वत या मोर का नहीं होना चाहिए. तभी ऋषि ने श्रीकृष्ण के परिजनों को सुझाव दिया कि वे हरिद्वार के बिल्व पर्वत पर स्थित मां मनसा देवी के मंदिर के आसपास घूमने वाले मोर के पंख का इसके लिए इस्तेमाल करें.
पुराणों में मिलता है जिक्र: हरिद्वार के जाने-माने धर्माचार्य प्रतीक मिश्रा पुरी कहते ऋषि कात्यायन ने हरिद्वार का क्षेत्र इसलिए बताया क्योंकि इस पर्वत पर मां मनसा देवी का मंदिर है. मां मनसा देवी नाग पुत्री कही जाती हैं. प्रतीक मिश्र पुरी कहते हैं कालिका पुराण, भविष्य पुराण और अग्नि पुराण में भी इस बात का जिक्र है. इस पर्वत से एक स्रोत बहता है. जिसका नाम नारायणी स्रोत है. इसका अंतिम छोर नाई सोता है. इस श्रोत के आसपास से ही मोर पंख लाना होगा. इस बात को भगवान कृष्ण के माता-पिता ने बेहद गंभीरता से लिया. जब तक भगवान कृष्ण धरती पर रहे तब तक उनके लिए मोर पंख इसी पर्वत से जाता था.
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कभी इस पर्वत पर मिलते थे सबसे अधिक मोर: कभी इस पर्वत या पूरे इस क्षेत्र में सबसे ज्यादा मोर हुआ करते थे. चारों तरफ मोरों की आवाजें सुनाई देती थी. अब धीरें धीरे समय के साथ यहां ना के बराबर मोर रह गये हैं. अगर आज भी आप पर्वत के ऊंचाई वाले इलाके में जाएंगे तो आपको यहां मोर दिखाई दे जाएंगे. कहा जाता है कि ऋषि कात्यायन ने श्रीकृष्ण के लिए मोर पंख को इसलिए कारगर बताया था क्योंकि मोर, सांप का दुश्मन होता है. ऐसे में अगर माथे पर हमेशा मोर पंख रहे तो सर्पदंश से मुक्ति मिलती है. हालांकि, इसके बावजूद भी जब भगवान श्रीकृष्ण की लड़ाई शेषनाग से हुई तब भी वह उनका बाल भी बांका नहीं कर पाया था.