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गुजरात में भाजपा 27 सालों में नहीं जीत सकी दर्जनभर सीट, कांग्रेस करीब चार दर्जन सीटों पर रही विफल -

गुजरात में भाजपा शहरी इलाकों में अच्छा प्रदर्शन करती रही है, जबकि आरक्षित सीटों पर कांग्रेस ने उसे कड़ी टक्कर दी है. बनासकांठा जिले की दांता, साबरकांठा की खेडब्रह्मा, अरवल्ली की भिलोड़ा, राजकोट की जसदण और धोराजी, खेड़ा जिले की महुधा, आणंद की बोरसद, भरूच की झगाडिया और तापी जिले की व्यारा ऐसी सीटे हैं, जिस पर भाजपा ने 1998 के बाद से कभी भी जीत हासिल नहीं की है. इसी तरह से कांग्रेस भी करीब चार दर्जन सीटों पर जीत हासिल नहीं कर सकी है.

modi, shah
मोदी, शाह
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Published : Oct 16, 2022, 3:30 PM IST

नई दिल्ली : अगले कुछ दिनों में चुनावों का सामना करने जा रहे गुजरात में विधानसभा की लगभग एक दर्जन सीटें ऐसी हैं, जिन्हें पिछले डेढ़ दशक से सत्ता में होने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) जीतने में विफल रही है. हालांकि इसी अवधि में राज्य की तकरीबन चार दर्जन सीटें ऐसी हैं, जहां राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस भी जीत का इंतजार कर रही है.

निर्वाचन आयोग की वेबसाइट से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक 1998 से लेकर 2017 तक गुजरात में हुए पांच विधानसभा चुनावों में भाजपा जिन सीटों को जीत नहीं सकी हैं, उनमें बनासकांठा जिले की दांता, साबरकांठा की खेडब्रह्मा, अरवल्ली की भिलोड़ा, राजकोट की जसदण और धोराजी, खेड़ा जिले की महुधा, आणंद की बोरसद, भरूच की झगाडिया और तापी जिले की व्यारा शामिल हैं.

इनमें से दांता, खेडब्रह्मा, भिलोड़ा, झागड़िया और व्यारा अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटें हैं जबकि जसडण, धोराजी, महुधा और बोरसड सामान्य श्रेणी में आती हैं. वलसाड जिले की कपराडा भी एक ऐसी आरक्षित (अनुसूचित जनजाति) सीट है, जिसे भाजपा 1998 के बाद हुए किसी भी विधानसभा चुनाव में नहीं जीत सकी है. यह सीट 2008 के परिसीमन के बाद अस्तित्व में आई. वर्ष 2012 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के जीतू भाई हरिभाई चौधरी ने यहां से जीत हासिल की थी.

परिसीमन से पहले यह सीट मोटा पोंढा के नाम से अस्तित्व में थी. इसके ज्यादातर हिस्से को शामिल कर 2008 में कपराडा सीट अस्तित्व में आई थी और 1998 से इस सीट पर कांग्रेस का कब्जा रहा. इसी प्रकार परिसीमन से पहले खेड़ा जिले में कठलाल विधानसभा सीट थी. आजादी के बाद हुए सभी चुनावों में इस सीट पर कांग्रेस का कब्जा रहा। पहली बार, भाजपा ने 2010 में इस सीट पर उपचुनाव में जीत दर्ज की। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उस वक्त गुजरात के मुख्यमंत्री थे.

हालांकि परिसीमन के बाद कठलाल सीट का अस्तित्व खत्म कर उसका कपडवंज में विलय कर दिया गया. इसके बावजूद 2012 और 2017 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने यहां से जीत दर्ज की. 2007 के चुनाव में कपडवंज सीट कांग्रेस ने जीती थी लेकिन इससे पहले के तीन चुनावों में इस सीट पर भाजपा का दबदबा रहा. भाजपा जिन सीटों को नहीं जीत सकी हैं, उनमें से ज्यादातर सीट अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित है.

गुजरात की 182 सदस्यीय विधानसभा में 27 सीट अनुसूचित जनजाति के लिए और 13 सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है. इस साल के अंत तक गुजरात विधानसभा के चुनाव होने हैं. नब्बे के दशक से ही गुजरात में भाजपा का दबदबा बढ़ा है और 1995 के बाद से अब तक हुए सभी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन (2017 को छोड़कर) बेहद निराशाजनक रहा है. इस दौरान हुए चुनावों में तकरीबन चार दर्जन सीटें ऐसी रहीं जिसे वह कभी भी नहीं जीत सकी है.

इनमें मुख्य रूप से अहमदाबाद जिले की दसक्रोई, साबरमती, एलिस ब्रिज, असारवा, मणिनगर और नरोदा, सूरत जिले की मांडवी, मंगरोल, ओलपाड़, महुवा और सूरत उत्तर, वडोदरा जिले की वडोदरा, रावपुरा और वाघोडिया, नवसारी जिले की नवसारी, जलालपुर और गणदेवी, भरूच जिले की अंकलेश्वर, खेड़ा जिले की नादियाड, पंचमहल की सेहरा, साबरकांठा की इडर, मेहसाणा की विसनगर, बोताड़ जिले की बोताड़, जूनागढ़ जिले की केशोद, पोरबंदर की कुटियाना, राजकोट की गोंडल और सुरेंद्रनगर जिले की वधावन सीट प्रमुख रूप से शामिल हैं. इनमें से ज्यादातर सीटें सामान्य श्रेणी में आती हैं जबकि कुछ अनुसूचित जाति एवं जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित हैं.

इतने लंबे समय तक शासन में रहने के बावजूद भाजपा ने जिस प्रकार गुजरात के अधिकांश शहरी क्षेत्रों में एकतरफा जीत हासिल करती रही है, उसी प्रकार की जीत राज्य की आरक्षित सीटों पर हासिल नहीं कर सकी है. सत्ता से दूर रहने के बावजूद इन सीटों पर कांग्रेस ने भाजपा को कड़ी टक्कर दी है. संभवत: यही वजह है कि भाजपा ने पिछले दिनों जिन पांच गुजरात गौरव यात्रा को रवाना किया, उनके मार्गों के चयन में आदिवासी बहुल इलाकों का खासा ध्यान रखा गया है.

गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी के नेतृत्व में 1985 में कांग्रेस को 149 सीटों पर जीत मिली थी. कांग्रेस की इस सफलता की वजह क्षत्रियों, हरिजनों, आदिवासी और मुसलमानों को एक साथ लाने के सोलंकी के खाम फार्मूले को माना जाता है. यह आज भी किसी एक पार्टी को गुजरात में मिली सबसे अधिक सीटों की संख्या है.

वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 99 सीटों पर जीत दर्ज की थी. इनमें नौ सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित थी और सात सीट अनुसूचित जाति के लिए. कांग्रेस ने पिछले चुनाव में 77 सीटों पर जीत दर्ज की थी. इनमें से 15 सीट अनुसूचित जनजाति और पांच सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित थी.

सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के शोध कार्यक्रम लोकनीति के सह-निदेशक संजय कुमार ने कहा कि आरक्षित सीटों पर हार जीत का अर्थ यह नहीं है कि जिस समुदाय के लिए सीटें आरक्षित हैं वह बहुसंख्यक है. उन्होंने कहा कि अन्य जातियां भी तो होती हैं और कई स्थानीय कारक रहे होंगे जिसकी वजह से भाजपा इन सीटों पर जीत हासिल करने में नाकाम रही है और कांग्रेस सफल रही है.

उन्होंने कहा, यह जरूर है कि इन आंकड़ों से एक संकेत मिलता है कि इन सीटों पर कुछ अलग तरह की बात है, जिसकी वजह से अन्य सीटों के मुकाबले भाजपा और कांग्रेस को यहां एक-दूसरे से संघर्ष करना पड़ता है. सीएसडीएस के आंकड़ों के मुताबिक गुजरात में अनुसूचित जनजाति की आबादी 14 प्रतिशत के करीब है जबकि अनुसूचित जाति की आबादी सात प्रतिशत के आसपास है.

नई दिल्ली : अगले कुछ दिनों में चुनावों का सामना करने जा रहे गुजरात में विधानसभा की लगभग एक दर्जन सीटें ऐसी हैं, जिन्हें पिछले डेढ़ दशक से सत्ता में होने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) जीतने में विफल रही है. हालांकि इसी अवधि में राज्य की तकरीबन चार दर्जन सीटें ऐसी हैं, जहां राज्य की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस भी जीत का इंतजार कर रही है.

निर्वाचन आयोग की वेबसाइट से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक 1998 से लेकर 2017 तक गुजरात में हुए पांच विधानसभा चुनावों में भाजपा जिन सीटों को जीत नहीं सकी हैं, उनमें बनासकांठा जिले की दांता, साबरकांठा की खेडब्रह्मा, अरवल्ली की भिलोड़ा, राजकोट की जसदण और धोराजी, खेड़ा जिले की महुधा, आणंद की बोरसद, भरूच की झगाडिया और तापी जिले की व्यारा शामिल हैं.

इनमें से दांता, खेडब्रह्मा, भिलोड़ा, झागड़िया और व्यारा अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटें हैं जबकि जसडण, धोराजी, महुधा और बोरसड सामान्य श्रेणी में आती हैं. वलसाड जिले की कपराडा भी एक ऐसी आरक्षित (अनुसूचित जनजाति) सीट है, जिसे भाजपा 1998 के बाद हुए किसी भी विधानसभा चुनाव में नहीं जीत सकी है. यह सीट 2008 के परिसीमन के बाद अस्तित्व में आई. वर्ष 2012 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के जीतू भाई हरिभाई चौधरी ने यहां से जीत हासिल की थी.

परिसीमन से पहले यह सीट मोटा पोंढा के नाम से अस्तित्व में थी. इसके ज्यादातर हिस्से को शामिल कर 2008 में कपराडा सीट अस्तित्व में आई थी और 1998 से इस सीट पर कांग्रेस का कब्जा रहा. इसी प्रकार परिसीमन से पहले खेड़ा जिले में कठलाल विधानसभा सीट थी. आजादी के बाद हुए सभी चुनावों में इस सीट पर कांग्रेस का कब्जा रहा। पहली बार, भाजपा ने 2010 में इस सीट पर उपचुनाव में जीत दर्ज की। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उस वक्त गुजरात के मुख्यमंत्री थे.

हालांकि परिसीमन के बाद कठलाल सीट का अस्तित्व खत्म कर उसका कपडवंज में विलय कर दिया गया. इसके बावजूद 2012 और 2017 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने यहां से जीत दर्ज की. 2007 के चुनाव में कपडवंज सीट कांग्रेस ने जीती थी लेकिन इससे पहले के तीन चुनावों में इस सीट पर भाजपा का दबदबा रहा. भाजपा जिन सीटों को नहीं जीत सकी हैं, उनमें से ज्यादातर सीट अनुसूचित जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित है.

गुजरात की 182 सदस्यीय विधानसभा में 27 सीट अनुसूचित जनजाति के लिए और 13 सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है. इस साल के अंत तक गुजरात विधानसभा के चुनाव होने हैं. नब्बे के दशक से ही गुजरात में भाजपा का दबदबा बढ़ा है और 1995 के बाद से अब तक हुए सभी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन (2017 को छोड़कर) बेहद निराशाजनक रहा है. इस दौरान हुए चुनावों में तकरीबन चार दर्जन सीटें ऐसी रहीं जिसे वह कभी भी नहीं जीत सकी है.

इनमें मुख्य रूप से अहमदाबाद जिले की दसक्रोई, साबरमती, एलिस ब्रिज, असारवा, मणिनगर और नरोदा, सूरत जिले की मांडवी, मंगरोल, ओलपाड़, महुवा और सूरत उत्तर, वडोदरा जिले की वडोदरा, रावपुरा और वाघोडिया, नवसारी जिले की नवसारी, जलालपुर और गणदेवी, भरूच जिले की अंकलेश्वर, खेड़ा जिले की नादियाड, पंचमहल की सेहरा, साबरकांठा की इडर, मेहसाणा की विसनगर, बोताड़ जिले की बोताड़, जूनागढ़ जिले की केशोद, पोरबंदर की कुटियाना, राजकोट की गोंडल और सुरेंद्रनगर जिले की वधावन सीट प्रमुख रूप से शामिल हैं. इनमें से ज्यादातर सीटें सामान्य श्रेणी में आती हैं जबकि कुछ अनुसूचित जाति एवं जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित हैं.

इतने लंबे समय तक शासन में रहने के बावजूद भाजपा ने जिस प्रकार गुजरात के अधिकांश शहरी क्षेत्रों में एकतरफा जीत हासिल करती रही है, उसी प्रकार की जीत राज्य की आरक्षित सीटों पर हासिल नहीं कर सकी है. सत्ता से दूर रहने के बावजूद इन सीटों पर कांग्रेस ने भाजपा को कड़ी टक्कर दी है. संभवत: यही वजह है कि भाजपा ने पिछले दिनों जिन पांच गुजरात गौरव यात्रा को रवाना किया, उनके मार्गों के चयन में आदिवासी बहुल इलाकों का खासा ध्यान रखा गया है.

गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी के नेतृत्व में 1985 में कांग्रेस को 149 सीटों पर जीत मिली थी. कांग्रेस की इस सफलता की वजह क्षत्रियों, हरिजनों, आदिवासी और मुसलमानों को एक साथ लाने के सोलंकी के खाम फार्मूले को माना जाता है. यह आज भी किसी एक पार्टी को गुजरात में मिली सबसे अधिक सीटों की संख्या है.

वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 99 सीटों पर जीत दर्ज की थी. इनमें नौ सीट अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित थी और सात सीट अनुसूचित जाति के लिए. कांग्रेस ने पिछले चुनाव में 77 सीटों पर जीत दर्ज की थी. इनमें से 15 सीट अनुसूचित जनजाति और पांच सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित थी.

सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के शोध कार्यक्रम लोकनीति के सह-निदेशक संजय कुमार ने कहा कि आरक्षित सीटों पर हार जीत का अर्थ यह नहीं है कि जिस समुदाय के लिए सीटें आरक्षित हैं वह बहुसंख्यक है. उन्होंने कहा कि अन्य जातियां भी तो होती हैं और कई स्थानीय कारक रहे होंगे जिसकी वजह से भाजपा इन सीटों पर जीत हासिल करने में नाकाम रही है और कांग्रेस सफल रही है.

उन्होंने कहा, यह जरूर है कि इन आंकड़ों से एक संकेत मिलता है कि इन सीटों पर कुछ अलग तरह की बात है, जिसकी वजह से अन्य सीटों के मुकाबले भाजपा और कांग्रेस को यहां एक-दूसरे से संघर्ष करना पड़ता है. सीएसडीएस के आंकड़ों के मुताबिक गुजरात में अनुसूचित जनजाति की आबादी 14 प्रतिशत के करीब है जबकि अनुसूचित जाति की आबादी सात प्रतिशत के आसपास है.

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