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हिमालयी ग्लेशियरों के लिए घातक है जंगलों में लगी आग

जंगलों में लगी आग से ग्लेशियरों को काफी नुकसान पहुंच रहा है. जंगलों की आग से वायु प्रदूषण की समस्या भी बढ़ रही है. आग लगने की घटनाओं के कारण अब वैज्ञानिकों की चिंताएं भी बढ़ने लगी हैं. वैज्ञानिकों के अनुसार आग लगने से पर्यावरण में काले कार्बन की मात्रा बढ़ जाती है, इससे तापमान में बढ़ोतरी होती है, जिससे ग्लेशियर तेजी से पिघलने लगते हैं.

हिमालयी ग्लेशियरों के लिए घातक है जंगलों में लगी आग
हिमालयी ग्लेशियरों के लिए घातक है जंगलों में लगी आग
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Published : Apr 11, 2021, 1:58 AM IST

देहरादून : उत्तराखंड के पहाड़ों पर हर साल जंगलों में आग लगने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं. इससे बड़ी संख्या में पेड़ों, जीव जंतुओं और पर्यावरण को नुकसान हो रहा है. जंगलों की आग से वायु प्रदूषण की समस्या भी बढ़ रही है. आग लगने की घटनाओं के कारण अब वैज्ञानिकों की चिंताएं भी बढ़ने लगी हैं. वैज्ञानिक आग की धुंध, धुंए और गर्मी से पर्यावरण व हिमालयी ग्लेशियरों के नुकसान की संभावना जता रहे हैं.

पहाड़ी क्षेत्रों के जंगलों में लगी आग का उच्च हिमालयी क्षेत्रों तक भी असर पड़ता है. वैज्ञानिकों के अनुसार आग लगने से पर्यावरण में काले कार्बन की मात्रा बढ़ जाती है, इससे तापमान में बढ़ोतरी होती है, जिससे ग्लेशियर तेजी से पिघलने लगते हैं.

बढ़ रही ग्लेशियरों के पिघलने की दर

अल्मोड़ा स्थित जीबी पंत राष्ट्रीय हिमालय पर्यावरण संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक जेसी कुनियाल बताते हैं कि जंगलों की आग से पीएम-10, पीएम-2.5 और ब्लैक कार्बन की मात्रा बढ़ रही है. यह वायु को प्रदूषित तो कर ही रहा है, साथ ही यह वायु के जरिये हिमालयी ग्लेशियरों तक भी पहुंच रहा है, जिससे ग्लेशियरों के पिघलने की दर बढ़ रही है.

ईटीवी भारत की रिपोर्ट

कुनियाल कहते हैं जिस प्रकार से जंगलों में आग की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं, उसका प्रभाव आने वाले दिनों में जैव विविधिता और पर्यावरण पर पड़ेगा. यही नहीं, पर्यावरण में फैली यह धुंध ऑक्सीजन लेवल को घटा देती है, जिसका सीधा प्रभाव मानव जीवन व उनके स्वास्थ्य पर पड़ता है.

आर्यभट्ट प्रेक्षण संस्थान के वैज्ञानिक भी चिंतित

वहीं, कुमाऊं क्षेत्र में लगी भयावह आग को देखकर नैनीताल आर्यभट्ट प्रेक्षण संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक मनीष नाजा भी परेशान हैं. वो बताते हैं कि आग की वजह से पूरे कुमाऊं क्षेत्र में घातक गैसों की मात्रा बढ़ने लगी है, जो वायुमंडल समेत मानव जाति के लिए बेहद खतरनाक है.

हिमालय के लिए घातक है जंगलों की आग

मनीष बताते हैं कि वायुमंडल में ब्लैक कार्बन की मात्रा 500 से बढ़कर 1500 नैनोग्राम होती है, जो इन दिनों जंगलों में लगने वाली आग की वजह से बढ़कर 12 हजार नैनोग्राम हो गई है. वहीं, ओजोन गैस की जो मात्रा सामान्यतः 40 से 50 पीपीबीवी होती है वो भी बढ़कर 115 हो गई है, जो हिमालय के लिए बेहद घातक है. इसी वजह से तेजी से बढ़ रहे वायु प्रदूषण पर अब वैज्ञानिक अपनी नजर रखने लगे हैं. हर रोज आग से होने वाले प्रदूषण के आंकड़ों पर अध्ययन कर रहे हैं.

आंकड़े
आंकड़े

आग से घट रहे जंगल

गौर हो कि पिछले कुछ सालों में उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने की दर बहुत तेजी से बढ़ी है, जिससे यहां की इकोलॉजी को भारी नुकसान पहुंच रहा है. इसके अलावा पर्यावरणविदों और एक्सपर्ट्स का मानना है कि उत्तराखंड में ग्लेशियर पिघलने और इनमें ब्लैक कार्बन जमा होने के पीछे भी जंगलों की आग ही सबसे बड़ा कारण है. आंकड़ों के मुताबिक, उत्तराखंड में साल 2000 से अबतक करीब 45 हजार हेक्टेयर फॉरेस्ट एरिया को नुकसान पहुंचा है.

आंकड़े
आंकड़े

फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक, उत्तराखंड के जंगलों में आग अमूमन फरवरी से जून के बीच लगती है, मगर इस बार सर्दियों में केदारनाथ घाटी, पंचाचूली घाटी कई इलाकों में कई कई दिनों तक जंगल जलते नजर आए. वहीं, इस बार फायर सीजन से पहले ही देवभूमि के जंगल धधकने लगे.

खिसक रहे ग्लेशियर

विशेषज्ञ मानते हैं कि आग के कारण जंगल खत्म हो रहे हैं. आग लगने की घटनाओं से गर्मी बढ़ रही है. पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन हो रहा है, जिसका सीधा असर हिमालयी ग्लेशियर पर पड़ रहा है. ग्लेशियर खिसक रहे हैं, गंगोत्री और गोमुख ग्लेशियर्स इसके उदारहण हैं.

वैज्ञानिक बताते हैं कि जंगलों के जलने से बड़ी मात्रा में कार्बनडाई ऑक्साइड गैस निकलती है, इसके साथ ही आग से निकलने वाली राख और सूक्ष्म कण ग्लेशियर से चिपकर सीधे तौर पर बर्फ के पिघलने की गति को बढ़ा देते हैं. आग लगने से सारा क्षेत्र गर्म हो जाता है, जिसके कारण ग्लेशियर और तेजी से पिघलने लगते हैं.

आग पर कंट्रोल है जरूरी

कुछ एक्सपर्ट्स बताते हैं कि कई जंगलों को आग की जरूरत होती है. जैसे- चीड़ के जंगल. इससे पेड़ फिर से अच्छे से पनपते हैं. पहले जमाने में भी आग लगाई जाती है, इससे जंगलों का कूड़ा (पत्तियां, लकड़ी वगैरह)) खत्म होता है, नई घास उगती है, जो जानवरों के काम आती है. मगर इसके लिए आग पर कंट्रोल होना भी जरूरी है.

जगंलों के जलने से होता है जलवायु परिवर्तन

इतना ही नहीं, जंगलों के जलने के कारण जलवायु परिवर्तन भी होता है. जंगल जितने ज्यादा जलेंगे, जलवायु परिवर्तन की रफ्तार तेज होने का जोखिम भी उतना ही बढ़ेगा. यह एक कुचक्र है. जंगलों की आग हिमालय की पर्वतमालाओं की बर्फ और ग्लेशियर पर सीधा असर डालेगी. बढ़ते तापमान की वजह से बरसों से जमी बर्फ तेजी से पिघलेगी, जिसके आने वाले भविष्य में कई दुष्परिणाम हो सकते हैं. ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी भीषण आग जलवायु परिवर्तन का निर्मम उदाहरण है. साथ ही यह पूरी दुनिया के लिए भी सबक है कि पर्यावरण से मुंह मोड़ना का अंजाम किस कदर डरावना होता है?

आंकड़े
आंकड़े

देश में जंगलों की आग को लेकर इस बार हालात बेकाबू हो सकते हैं. 15 फरवरी से शुरू हुए फायर सीजन का पीक समय 15 जून तक माना जाता है, ऐसे में अभी अगले 3 महीनों तक जंगल आग की लपटों से कितना प्रभावित होंगे. यह एक बड़ी चिंता का विषय बना हुआ है. पिछले सीजन के मुकाबले इस बार साढ़े 4 गुना तेजी से जंगल जल रहे हैं. प्रदेश के जंगलों में लगी यह आग राज्य सरकार और वन विभाग की मुसीबत बढ़ाती दिखाई दे रही है.

पढ़ें - हरियाणा के पानीपत में 100 एकड़ में फैली फसल जलकर राख

एक अक्टूबर से अब तक का डाटा

  1. राज्य में पिछले 6 महीने में कुल 928 जंगलों में आग की घटनाएं सामने आई हैं.
  2. इसमें 591 आरक्षित वन क्षेत्र में हुई हैं, जबकि 337 वन पंचायत वन क्षेत्रों में हुई है.
  3. आग की इन घटनाओं में 1207.88 हेक्टेयर जंगल जले हैं.
  4. इस तरह पिछले 6 महीने में कुल 37,16,772 रुपये का नुकसान आंका गया है.
  5. इन घटनाओं में 2 लोग घायल हुए हैं, जबकि दो लोगों की मौत भी हुई है.इन घटनाओं में 22 जानवर घायल हुए हैं और 7 की मौत भी हुई है.

जानिए क्या कहते हैं आंकड़े

आंकड़े
आंकड़े
  1. वर्ष 2015 में जंगल में आग लगने की वजह से न किसी व्यक्ति की मौत हुई और न ही कोई जख्मी हुआ.
  2. साल 2016 में जंगल में लगी आग की वजह से प्रदेश में 6 लोगों की मौत हुई थी और 31 लोग घायल हुए थे.
  3. साल 2017 में जंगल में लगी आग की वजह से किसी भी व्यक्ति की मौत नहीं हुई. लेकिन प्रदेश में आग की चपेट में आने से मात्र एक शख्स जख्मी हुआ था.
  4. साल 2018 में भी जंगल में लगी आग की वजह से किसी व्यक्ति की मौत नहीं हुई.
  5. इन मामलों में 6 लोग आग की चपेट में आने से झुलस गए.
  6. साल 2019 में जंगल में लगी आग से एक व्यक्ति की मौत हुई और 15 लोग घायल हुए.
  7. साल 2020 में जंगल में लगी आग की वजह से प्रदेश में दो व्यक्तियों की मौत और एक जख्मी हुआ.
  8. साल 2021 मार्च तक जंगल में लगी आग की वजह से 4 लोगों की मौत और 2 लोग जख्मी हुए हैं.

मंडलवार नुकसान के आंकड़े

  • गढ़वाल मंडल में बीते चार महीनों में आग लगने की 430 घटनाएं हो चुकी हैं.
  • जिसमें 501 हेक्टेयर जंगल जले हैं. इस आग में 6350 पेड़ जले हैं.
  • कुल मिलाकर 18 लाख 44 हजार 700 रुपए का नुकसान हुआ है.
  • कुमाऊं मंडल में बीते चार महीने में आग लगने की 276 घटनाएं सामने आईं.
  • आग की घटनाओं में 396 हेक्टेयर जंगल जलकर राख हो गया और 2603 लोग इन घटनाओं में प्रभावित हुए.
  • साथ ही 11 लाख 45 हजार 260 रुपए का नुकसान हुआ है.

उत्तराखंड के वाइल्ड लाइफ क्षेत्र में कुल 17 घटनाएं हुईं, जिसमें 20.9 हेक्टेयर जंगल जले और 28,838 का नुकसान हुआ. आंकड़ों पर गौर करें तो बीते चार महीने में प्रदेश के जंगलों में आग लगने की 723 घटनाएं हुईं, जिसमें 917 हेक्टेयर जंगल जले और 8,950 पेड़ों में आग लगी. इस दौरान 30 लाख 18 हजार 798 रुपए का नुकसान हुआ.

स्थानीय लोगों को करना होगा नीतियों में शामिल

आंकड़ों पर गौर किया जाये तो ये काफी डराने वाले हैं. केवल वन विभाग आग लगने की घटनाओं को नहीं रोक सकता. पेड़ों और जंगलों की रक्षा के लिए जब से नियम बनने लगे तब से पेड़ों की रक्षा पर उलटा असर पड़ा है. जंगलों को संरक्षित करने के लिए जो नियम बने उनमें ये कहीं नहीं बताया गया कि जंगल को बचाने की जिम्मेदारी किसकी है, जंगल बचाने हैं तो लोगों को उससे जोड़ना होगा. जंगल बचाने के लिए स्थानीय लोगों को नीतियों में शामिल करना जरूरी है. इसके अलावा जंगलों में लगने वाली आग को बुझाने के वैज्ञानिक तरीके इजाद करने होंगे.

देहरादून : उत्तराखंड के पहाड़ों पर हर साल जंगलों में आग लगने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं. इससे बड़ी संख्या में पेड़ों, जीव जंतुओं और पर्यावरण को नुकसान हो रहा है. जंगलों की आग से वायु प्रदूषण की समस्या भी बढ़ रही है. आग लगने की घटनाओं के कारण अब वैज्ञानिकों की चिंताएं भी बढ़ने लगी हैं. वैज्ञानिक आग की धुंध, धुंए और गर्मी से पर्यावरण व हिमालयी ग्लेशियरों के नुकसान की संभावना जता रहे हैं.

पहाड़ी क्षेत्रों के जंगलों में लगी आग का उच्च हिमालयी क्षेत्रों तक भी असर पड़ता है. वैज्ञानिकों के अनुसार आग लगने से पर्यावरण में काले कार्बन की मात्रा बढ़ जाती है, इससे तापमान में बढ़ोतरी होती है, जिससे ग्लेशियर तेजी से पिघलने लगते हैं.

बढ़ रही ग्लेशियरों के पिघलने की दर

अल्मोड़ा स्थित जीबी पंत राष्ट्रीय हिमालय पर्यावरण संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक जेसी कुनियाल बताते हैं कि जंगलों की आग से पीएम-10, पीएम-2.5 और ब्लैक कार्बन की मात्रा बढ़ रही है. यह वायु को प्रदूषित तो कर ही रहा है, साथ ही यह वायु के जरिये हिमालयी ग्लेशियरों तक भी पहुंच रहा है, जिससे ग्लेशियरों के पिघलने की दर बढ़ रही है.

ईटीवी भारत की रिपोर्ट

कुनियाल कहते हैं जिस प्रकार से जंगलों में आग की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं, उसका प्रभाव आने वाले दिनों में जैव विविधिता और पर्यावरण पर पड़ेगा. यही नहीं, पर्यावरण में फैली यह धुंध ऑक्सीजन लेवल को घटा देती है, जिसका सीधा प्रभाव मानव जीवन व उनके स्वास्थ्य पर पड़ता है.

आर्यभट्ट प्रेक्षण संस्थान के वैज्ञानिक भी चिंतित

वहीं, कुमाऊं क्षेत्र में लगी भयावह आग को देखकर नैनीताल आर्यभट्ट प्रेक्षण संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक मनीष नाजा भी परेशान हैं. वो बताते हैं कि आग की वजह से पूरे कुमाऊं क्षेत्र में घातक गैसों की मात्रा बढ़ने लगी है, जो वायुमंडल समेत मानव जाति के लिए बेहद खतरनाक है.

हिमालय के लिए घातक है जंगलों की आग

मनीष बताते हैं कि वायुमंडल में ब्लैक कार्बन की मात्रा 500 से बढ़कर 1500 नैनोग्राम होती है, जो इन दिनों जंगलों में लगने वाली आग की वजह से बढ़कर 12 हजार नैनोग्राम हो गई है. वहीं, ओजोन गैस की जो मात्रा सामान्यतः 40 से 50 पीपीबीवी होती है वो भी बढ़कर 115 हो गई है, जो हिमालय के लिए बेहद घातक है. इसी वजह से तेजी से बढ़ रहे वायु प्रदूषण पर अब वैज्ञानिक अपनी नजर रखने लगे हैं. हर रोज आग से होने वाले प्रदूषण के आंकड़ों पर अध्ययन कर रहे हैं.

आंकड़े
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आग से घट रहे जंगल

गौर हो कि पिछले कुछ सालों में उत्तराखंड के जंगलों में आग लगने की दर बहुत तेजी से बढ़ी है, जिससे यहां की इकोलॉजी को भारी नुकसान पहुंच रहा है. इसके अलावा पर्यावरणविदों और एक्सपर्ट्स का मानना है कि उत्तराखंड में ग्लेशियर पिघलने और इनमें ब्लैक कार्बन जमा होने के पीछे भी जंगलों की आग ही सबसे बड़ा कारण है. आंकड़ों के मुताबिक, उत्तराखंड में साल 2000 से अबतक करीब 45 हजार हेक्टेयर फॉरेस्ट एरिया को नुकसान पहुंचा है.

आंकड़े
आंकड़े

फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक, उत्तराखंड के जंगलों में आग अमूमन फरवरी से जून के बीच लगती है, मगर इस बार सर्दियों में केदारनाथ घाटी, पंचाचूली घाटी कई इलाकों में कई कई दिनों तक जंगल जलते नजर आए. वहीं, इस बार फायर सीजन से पहले ही देवभूमि के जंगल धधकने लगे.

खिसक रहे ग्लेशियर

विशेषज्ञ मानते हैं कि आग के कारण जंगल खत्म हो रहे हैं. आग लगने की घटनाओं से गर्मी बढ़ रही है. पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन हो रहा है, जिसका सीधा असर हिमालयी ग्लेशियर पर पड़ रहा है. ग्लेशियर खिसक रहे हैं, गंगोत्री और गोमुख ग्लेशियर्स इसके उदारहण हैं.

वैज्ञानिक बताते हैं कि जंगलों के जलने से बड़ी मात्रा में कार्बनडाई ऑक्साइड गैस निकलती है, इसके साथ ही आग से निकलने वाली राख और सूक्ष्म कण ग्लेशियर से चिपकर सीधे तौर पर बर्फ के पिघलने की गति को बढ़ा देते हैं. आग लगने से सारा क्षेत्र गर्म हो जाता है, जिसके कारण ग्लेशियर और तेजी से पिघलने लगते हैं.

आग पर कंट्रोल है जरूरी

कुछ एक्सपर्ट्स बताते हैं कि कई जंगलों को आग की जरूरत होती है. जैसे- चीड़ के जंगल. इससे पेड़ फिर से अच्छे से पनपते हैं. पहले जमाने में भी आग लगाई जाती है, इससे जंगलों का कूड़ा (पत्तियां, लकड़ी वगैरह)) खत्म होता है, नई घास उगती है, जो जानवरों के काम आती है. मगर इसके लिए आग पर कंट्रोल होना भी जरूरी है.

जगंलों के जलने से होता है जलवायु परिवर्तन

इतना ही नहीं, जंगलों के जलने के कारण जलवायु परिवर्तन भी होता है. जंगल जितने ज्यादा जलेंगे, जलवायु परिवर्तन की रफ्तार तेज होने का जोखिम भी उतना ही बढ़ेगा. यह एक कुचक्र है. जंगलों की आग हिमालय की पर्वतमालाओं की बर्फ और ग्लेशियर पर सीधा असर डालेगी. बढ़ते तापमान की वजह से बरसों से जमी बर्फ तेजी से पिघलेगी, जिसके आने वाले भविष्य में कई दुष्परिणाम हो सकते हैं. ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी भीषण आग जलवायु परिवर्तन का निर्मम उदाहरण है. साथ ही यह पूरी दुनिया के लिए भी सबक है कि पर्यावरण से मुंह मोड़ना का अंजाम किस कदर डरावना होता है?

आंकड़े
आंकड़े

देश में जंगलों की आग को लेकर इस बार हालात बेकाबू हो सकते हैं. 15 फरवरी से शुरू हुए फायर सीजन का पीक समय 15 जून तक माना जाता है, ऐसे में अभी अगले 3 महीनों तक जंगल आग की लपटों से कितना प्रभावित होंगे. यह एक बड़ी चिंता का विषय बना हुआ है. पिछले सीजन के मुकाबले इस बार साढ़े 4 गुना तेजी से जंगल जल रहे हैं. प्रदेश के जंगलों में लगी यह आग राज्य सरकार और वन विभाग की मुसीबत बढ़ाती दिखाई दे रही है.

पढ़ें - हरियाणा के पानीपत में 100 एकड़ में फैली फसल जलकर राख

एक अक्टूबर से अब तक का डाटा

  1. राज्य में पिछले 6 महीने में कुल 928 जंगलों में आग की घटनाएं सामने आई हैं.
  2. इसमें 591 आरक्षित वन क्षेत्र में हुई हैं, जबकि 337 वन पंचायत वन क्षेत्रों में हुई है.
  3. आग की इन घटनाओं में 1207.88 हेक्टेयर जंगल जले हैं.
  4. इस तरह पिछले 6 महीने में कुल 37,16,772 रुपये का नुकसान आंका गया है.
  5. इन घटनाओं में 2 लोग घायल हुए हैं, जबकि दो लोगों की मौत भी हुई है.इन घटनाओं में 22 जानवर घायल हुए हैं और 7 की मौत भी हुई है.

जानिए क्या कहते हैं आंकड़े

आंकड़े
आंकड़े
  1. वर्ष 2015 में जंगल में आग लगने की वजह से न किसी व्यक्ति की मौत हुई और न ही कोई जख्मी हुआ.
  2. साल 2016 में जंगल में लगी आग की वजह से प्रदेश में 6 लोगों की मौत हुई थी और 31 लोग घायल हुए थे.
  3. साल 2017 में जंगल में लगी आग की वजह से किसी भी व्यक्ति की मौत नहीं हुई. लेकिन प्रदेश में आग की चपेट में आने से मात्र एक शख्स जख्मी हुआ था.
  4. साल 2018 में भी जंगल में लगी आग की वजह से किसी व्यक्ति की मौत नहीं हुई.
  5. इन मामलों में 6 लोग आग की चपेट में आने से झुलस गए.
  6. साल 2019 में जंगल में लगी आग से एक व्यक्ति की मौत हुई और 15 लोग घायल हुए.
  7. साल 2020 में जंगल में लगी आग की वजह से प्रदेश में दो व्यक्तियों की मौत और एक जख्मी हुआ.
  8. साल 2021 मार्च तक जंगल में लगी आग की वजह से 4 लोगों की मौत और 2 लोग जख्मी हुए हैं.

मंडलवार नुकसान के आंकड़े

  • गढ़वाल मंडल में बीते चार महीनों में आग लगने की 430 घटनाएं हो चुकी हैं.
  • जिसमें 501 हेक्टेयर जंगल जले हैं. इस आग में 6350 पेड़ जले हैं.
  • कुल मिलाकर 18 लाख 44 हजार 700 रुपए का नुकसान हुआ है.
  • कुमाऊं मंडल में बीते चार महीने में आग लगने की 276 घटनाएं सामने आईं.
  • आग की घटनाओं में 396 हेक्टेयर जंगल जलकर राख हो गया और 2603 लोग इन घटनाओं में प्रभावित हुए.
  • साथ ही 11 लाख 45 हजार 260 रुपए का नुकसान हुआ है.

उत्तराखंड के वाइल्ड लाइफ क्षेत्र में कुल 17 घटनाएं हुईं, जिसमें 20.9 हेक्टेयर जंगल जले और 28,838 का नुकसान हुआ. आंकड़ों पर गौर करें तो बीते चार महीने में प्रदेश के जंगलों में आग लगने की 723 घटनाएं हुईं, जिसमें 917 हेक्टेयर जंगल जले और 8,950 पेड़ों में आग लगी. इस दौरान 30 लाख 18 हजार 798 रुपए का नुकसान हुआ.

स्थानीय लोगों को करना होगा नीतियों में शामिल

आंकड़ों पर गौर किया जाये तो ये काफी डराने वाले हैं. केवल वन विभाग आग लगने की घटनाओं को नहीं रोक सकता. पेड़ों और जंगलों की रक्षा के लिए जब से नियम बनने लगे तब से पेड़ों की रक्षा पर उलटा असर पड़ा है. जंगलों को संरक्षित करने के लिए जो नियम बने उनमें ये कहीं नहीं बताया गया कि जंगल को बचाने की जिम्मेदारी किसकी है, जंगल बचाने हैं तो लोगों को उससे जोड़ना होगा. जंगल बचाने के लिए स्थानीय लोगों को नीतियों में शामिल करना जरूरी है. इसके अलावा जंगलों में लगने वाली आग को बुझाने के वैज्ञानिक तरीके इजाद करने होंगे.

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