देहरादून (उत्तराखंड): पूरी दुनिया में गिद्धों की घटती संख्या आज एक बड़ी चिंता बन गई है. भारत में भी 80 के दशक में बहुतायत में मिलने वाले गिद्ध अब विलुप्त होने की कगार पर हैं. वैसे तो सभी जीवों का पारिस्थितिकी तंत्र में अपना एक अहम योगदान है, लेकिन गिद्धों की भूमिका सामाजिक रूप से भी काफी ज्यादा है. दरअसल, गिद्ध मुर्दा खोर पक्षी है और बड़े जानवरों के शवों को कुछ ही समय में चट कर जाते हैं. इनकी यही खासियत इन्हें पर्यावरण स्वच्छता के लिहाज से भी खास बना देती है.
गिद्ध की अहमियत को दुनियाभर देश भी अच्छी तरह से समझते हैं. यही वजह कि विलुप्त होते गिद्धों को बचाने के लिए कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं. भारत में भी केंद्रीय मंत्रालय की तरफ से गिद्धों के संरक्षण पर विशेष प्रोग्राम चलाए गए हैं. खास बात ये है कि अब उत्तराखंड में भी अंतरराष्ट्रीय स्तर की संस्थाओं की मदद से एक विशेष कार्यक्रम शुरू किया जा रहा है. जिसके जरिए प्रदेश में विलुप्त होती गिद्धों की तीन प्रजातियों समेत एक ईगल प्रजाति पर भी अध्ययन किया जाएगा.
भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की तरफ से गिद्धों की तीन प्रजाति और एक ईगल प्रजाति के अध्ययन के लिए काम किए जाने की मंजूरी दी जा चुकी है. उत्तराखंड में कॉर्बेट टाइगर रिजर्व और राजाजी नेशनल पार्क क्षेत्र को इसकी जिम्मेदारी दी गई है. जिसमें राजाजी नेशनल पार्क कार्यक्रम के नोडल के रूप में इस पूरे अध्ययन कार्यक्रम को आगे बढ़ाएगा.
विलुप्त होते इन शिकारी प्रजाति के पक्षियों पर अध्ययन के कुछ खास बिंदुः गिद्धों की तीन प्रजातियों में सफेद गिद्ध, लाल सिर वाले गिद्ध और सफेद पूंछ वाले गिद्ध शामिल हैं. प्लास फिश ईगल पर नजर रखकर अध्ययन किया जाएगा. शिकारी पक्षियों की पीठ पर पंखों के बीच उपकरण लगाए जाएंगे. सैटेलाइट टैग के माध्यम से इनकी हर गतिविधियों पर नजर रखी जाएगी. गिद्धों के भोजन, पानी की स्थिति और वास स्थल की भी जानकारी ली जाएगी.
अध्ययन के बाद इनके सुरक्षित फीडिंग समेत दूसरी स्थितियों में भी काम होगा. प्लास फिश ईगल की गतिविधियों पर भी जानकारी लेकर काम होगा. राजाजी और कॉर्बेट क्षेत्र में कार्यक्रम के तहत काम होगा. इसमें 1 साल से 3 साल तक अध्ययन होने की संभावना है. चार प्रजातियों के 2-2 पक्षियों पर सैटेलाइट टैग लगाया जाएगा. वहीं, सैटेलाइट के माध्यम से आसमान की ऊंचाई हो या लंबी दूरी सभी जगह इन पर नजर रहेगी.
उत्तराखंड के कॉर्बेट टाइगर रिजर्व और राजाजी नेशनल पार्क में इस कार्यक्रम को भारत सरकार समेत अंतरराष्ट्रीय स्तर की एजेंसी की मदद से किया जा रहा है. राजाजी नेशनल पार्क को इसका नोडल बनाया गया है और दक्षिण भारत से इसके लिए पक्षियों को पकड़ने वाले विशेषज्ञों को भी बुलाया जा रहा है. इसके तहत विशेषज्ञों की ओर से ही सैटेलाइट टैग लगाया जाएगा. इस आधुनिक सैटेलाइट टैग के जरिए पक्षियों पर नजर रखी जा सकेगी और इसके लगाए जाने से उन्हें कोई नुकसान भी नहीं होगा. यह उपकरण बेहद हल्का होने के कारण आसानी से ये शिकारी पक्षी इसे लेकर उड़ सकेंगे.
हिंदू मान्यताओं में गिद्ध या गरुड़ का विशेष उल्लेखः वैसे तो गिद्ध सामाजिक रूप से बेहद अहम हैं और इसकी पर्यावरण स्वच्छता में विशेष भूमिका है, लेकिन हिंदू मान्यताओं में भी गिद्ध या गरुड़ का विशेष उल्लेख पाया जाता है. रामायण में माता सीता के हरण के दौरान रावण के साथ जटायु जो कि गरुड़ का ही रूप है, उसका भयंकर युद्ध होने का उल्लेख है. इसके अलावा गरुड़ को भगवान विष्णु की सवारी के रूप में माना जाता है. इसीलिए गरुड़ का हिंदू मान्यताओं के लिहाज से विशेष महत्व भी है.
पेन किलर बन रही गिद्धों की मौत की वजहः गिद्धों की कम होती संख्या और उनके संकटग्रस्त होने के पीछे कई वजह मानी जाती हैं. इसके लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर की एजेंसियों के साथ ही भारत के तमाम संस्थाओं की तरफ से भी अपनी रिपोर्ट समय-समय पर दी गई है. माना गया है कि जानवरों के चिकित्सा के दौरान डाइक्लोफिनेक का इस्तेमाल भी गिद्धों के लिए मौत के कारण बन रहा है. इसके अलावा दर्द निवारक क्रीमों और स्प्रे का इस्तेमाल भी घातक माना जाता है.
ये भी पढ़ेंः हिमाचल में सफल हो रहा गिद्ध बचाओ अभियान, सैटेलाइट टैगिंग से हो रही स्टडी
विशेषज्ञों की मानें तो जब इन दवाओं का इस्तेमाल पशुओं पर किया जाता और उस पशु को गिद्ध अपना निवाला बनाते हैं तो उन पर विपरीत असर पड़ता है. इसके कारण उनकी मौत हो जाती है. इसके अलावा खतरनाक कीटनाशक भी न केवल उनकी मौत का वजह बन रहे हैं. बल्कि, इनके अंडों में भ्रूण की मौत भी इसके कारण हो रही है.
मुर्दाखोर शिकारी पक्षियों के लिए जहरीले मृत जानवरों को खाना उनकी अकाल मृत्यु की वजह बन जाता है, इसके लिए जरूरत है कि जानवरों में ऐसी दवाओं का चिकित्सा इस्तेमाल न हो. फिलहाल, उत्तराखंड में अब तक का सबसे बड़ा शिकारी पक्षियों पर अध्ययन का कार्यक्रम शुरू होने जा रहा है और इसमें पहली बार सैटेलाइट टैगिंग का इस्तेमाल हो रहा है.
माना जा रहा है कि इसके जरिए इन शिकारी पक्षियों की दिनचर्या को देखकर इस पर पूरा अध्ययन किया जाएगा. दूसरी तरफ जिन जगहों पर उनकी मौजूदगी होती है, वहां पर उनके लिए बेहतर माहौल बनाने की भी कोशिश होगी. ताकि, इनकी संख्या में इजाफा किया जा सके. हालांकि, कॉर्बेट से गिद्धों की गिनती का काम भी पहले ही शुरू किया गया था, लेकिन अब इनके अध्ययन को लेकर कार्यक्रम चलाया गया है.