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पंथी नर्तक राधेश्याम बारले ने भुखमरी से जूझते हुए पद्मश्री तक का किया सफर - Panthi dance in chhattisgarh

छत्तीसगढ़ में पंथी नृत्य को नया आयाम देने और बाबा गुरु घासीदास के संदेशों को जन-जन तक पहुंचाने वाले पद्मश्री से सम्मानित राधेश्याम बारले ने ईटीवी भारत से खास बातचीत में अपने जीवन के कई अच्छे और कड़वे अनुभव साझा किए. देखिए, ईटीवी भारत के साथ राधेश्याम बारले से बातचीत के कुछ खास अंश...

राधेश्याम बारले
राधेश्याम बारले
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Published : Feb 27, 2021, 10:22 PM IST

दुर्ग/भिलाई: साल 2021 के पद्म पुरस्कारों की सूची में छत्तीसगढ़ के राधेश्याम बारले का भी नाम है. छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के एक छोटे से गांव मरोदा के रहने राधेश्याम पंथी नृत्य शैली के कलाकार हैं.

छत्तीसगढ़ में पंथी नृत्य को जन-जन तक पहुंचाने का श्रेय राधेश्याम बारले को जाता है. बारले बाबा गुरु घासीदास के संदेशों को लोगों तक पहुंचाते रहे हैं. गुरु घासीदास के संदेशों को प्रसारित करने में उनका अमूल्य योगदान रहा है, जिसे देखते हुए छत्तीसगढ़ सरकार उन्हें पहले ही सम्मानित कर चुकी है. पद्मश्री पुरस्कार के लिए बारले का चयन बाबा गुरु घासीदास के प्रति सम्मान माना जा रहा है.

राधेश्याम बारले से खास बातचीत.

ईटीवी भारत ने राधेश्याम बारले से उनके अब तक के सफर पर चर्चा की. राधेश्याम बारले ने बताया कि गरीबी और भुखमरी से जूझते हुए उन्होंने पंथी नृत्य को जारी रखा. एक समय ऐसा भी आया, जब छह महीने तक मछेरिया और मुस्कइनी भाजी खाकर उन्होंने दिन गुजारे. तंगी ऐसी थी कि धान के भूसे की बनी रोटी खाकर अपना पेट भरा करते थे.

1978 से जारी है सफर
बारले 1978 से पंथी कला से जुड़े हैं. उनका गांव खोला कलाकारों का गांव है. पहले गांव में रामधुनी, रामसत्ता और जस गीत का आयोजन हुआ करता था. पूरे गांव के लोग इसमें शामिल हुआ करते थे. इस दौरान गांव के ही एक कलाकार अर्जुन माहेश्वरी ने उन्हें पंथी के गुण के बारे में बताया, ताकि बाबा गुरु घासीदास के उद्देश्यों को पंथी के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाया जा सके.

बारले बताते हैं कि उस दौरान उनके पास वाद्य यंत्र नहीं थे. बोरवाय गांव के मधुसूदन डहरे और लालजी डहरे की टीम ने उन्हें वाद्य यंत्र दिया, उससे उन्होंने गाना-बजाना सीखा. 1978 में पहली बार आनंद चौदस गणेश पक्ष में उन्होंने गाना-बजाना शुरू किया, तब से निरंतर जारी है.

साइकिल से जाते थे पंथी करने
बारले बताते हैं कि पहले हम लोग के पास गाड़ी नहीं हुआ करती थी, सभी साथी साइकिल से पंथी नृत्य करने जाया करते थे. करीब तीन साल तक साइकिल से ही हमें लगभग 90 किलोमीटर तक का सफर तय करना होता था. 18 दिसंबर से लेकर 31 दिसंबर तक गांव में जाकर झंडा चढ़ाते थे. इसका हमें 25 से 30 रुपये मिलता था. उसके बाद धीरे-धीरे हम लोग शहर तक जाने लगे.

यह भी पढ़ें- माओवाद से राजनीति में आए कामेश्वर बोले- पहले से अधिक लूट, पर स्वरूप अलग

उन्होंने कहा कि 1990 के आसपास कलेक्टर सेवक राम के समय पंथी के माध्यम से हमारी टीम ने साक्षरता और टीकाकरण में जन जागरूकता लाने का भी काम किया. इसमें हमारे गांव के कलाकार साथियों की हमें बहुत ही मदद मिली.

नागर जोत कर की पढ़ाई
उन्होंने कहा कि गरीबी इतनी थी कि मुझे हल और नागर जोत कर पढ़ाई पूरी करनी होती थी. उस समय टीएस चंद्राकर सर ने मुझे अपने घर काम पर रखा. उनके यहां खेतों पर मैंने हल चलाया. मेहनताना के रूप में मास्टर जी ने मेरे लिए कॉपी किताब खरीदी. उनकी बदौलत ही मैं अपनी शिक्षा पूरी करने में कामयाब हो पाया.

पंथी के विकास में किया काम
बारले ने पंथी अकादमी के नाम से पंथी कलाकारों को मंच दिया और पूरे प्रदेश में घूम-घूम कर पंथी के विकास के लिए लगातार प्रयास किया. भारत के पूरे प्रदेश में पंथी को ले जाने का गौरव आकाशवाणी रायपुर के नियमित कलाकार राधेश्याम बारले ने अभी तक देश और प्रदेश के कई महोत्सव में पंथी के जलवे दिखाए हैं. लगभग 1200 मंचीय प्रस्तुति के माध्यम से बाबा के उपदेशों को लोगों तक पहुंचाने में सफल रहे.

दुर्ग/भिलाई: साल 2021 के पद्म पुरस्कारों की सूची में छत्तीसगढ़ के राधेश्याम बारले का भी नाम है. छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के एक छोटे से गांव मरोदा के रहने राधेश्याम पंथी नृत्य शैली के कलाकार हैं.

छत्तीसगढ़ में पंथी नृत्य को जन-जन तक पहुंचाने का श्रेय राधेश्याम बारले को जाता है. बारले बाबा गुरु घासीदास के संदेशों को लोगों तक पहुंचाते रहे हैं. गुरु घासीदास के संदेशों को प्रसारित करने में उनका अमूल्य योगदान रहा है, जिसे देखते हुए छत्तीसगढ़ सरकार उन्हें पहले ही सम्मानित कर चुकी है. पद्मश्री पुरस्कार के लिए बारले का चयन बाबा गुरु घासीदास के प्रति सम्मान माना जा रहा है.

राधेश्याम बारले से खास बातचीत.

ईटीवी भारत ने राधेश्याम बारले से उनके अब तक के सफर पर चर्चा की. राधेश्याम बारले ने बताया कि गरीबी और भुखमरी से जूझते हुए उन्होंने पंथी नृत्य को जारी रखा. एक समय ऐसा भी आया, जब छह महीने तक मछेरिया और मुस्कइनी भाजी खाकर उन्होंने दिन गुजारे. तंगी ऐसी थी कि धान के भूसे की बनी रोटी खाकर अपना पेट भरा करते थे.

1978 से जारी है सफर
बारले 1978 से पंथी कला से जुड़े हैं. उनका गांव खोला कलाकारों का गांव है. पहले गांव में रामधुनी, रामसत्ता और जस गीत का आयोजन हुआ करता था. पूरे गांव के लोग इसमें शामिल हुआ करते थे. इस दौरान गांव के ही एक कलाकार अर्जुन माहेश्वरी ने उन्हें पंथी के गुण के बारे में बताया, ताकि बाबा गुरु घासीदास के उद्देश्यों को पंथी के माध्यम से जन-जन तक पहुंचाया जा सके.

बारले बताते हैं कि उस दौरान उनके पास वाद्य यंत्र नहीं थे. बोरवाय गांव के मधुसूदन डहरे और लालजी डहरे की टीम ने उन्हें वाद्य यंत्र दिया, उससे उन्होंने गाना-बजाना सीखा. 1978 में पहली बार आनंद चौदस गणेश पक्ष में उन्होंने गाना-बजाना शुरू किया, तब से निरंतर जारी है.

साइकिल से जाते थे पंथी करने
बारले बताते हैं कि पहले हम लोग के पास गाड़ी नहीं हुआ करती थी, सभी साथी साइकिल से पंथी नृत्य करने जाया करते थे. करीब तीन साल तक साइकिल से ही हमें लगभग 90 किलोमीटर तक का सफर तय करना होता था. 18 दिसंबर से लेकर 31 दिसंबर तक गांव में जाकर झंडा चढ़ाते थे. इसका हमें 25 से 30 रुपये मिलता था. उसके बाद धीरे-धीरे हम लोग शहर तक जाने लगे.

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उन्होंने कहा कि 1990 के आसपास कलेक्टर सेवक राम के समय पंथी के माध्यम से हमारी टीम ने साक्षरता और टीकाकरण में जन जागरूकता लाने का भी काम किया. इसमें हमारे गांव के कलाकार साथियों की हमें बहुत ही मदद मिली.

नागर जोत कर की पढ़ाई
उन्होंने कहा कि गरीबी इतनी थी कि मुझे हल और नागर जोत कर पढ़ाई पूरी करनी होती थी. उस समय टीएस चंद्राकर सर ने मुझे अपने घर काम पर रखा. उनके यहां खेतों पर मैंने हल चलाया. मेहनताना के रूप में मास्टर जी ने मेरे लिए कॉपी किताब खरीदी. उनकी बदौलत ही मैं अपनी शिक्षा पूरी करने में कामयाब हो पाया.

पंथी के विकास में किया काम
बारले ने पंथी अकादमी के नाम से पंथी कलाकारों को मंच दिया और पूरे प्रदेश में घूम-घूम कर पंथी के विकास के लिए लगातार प्रयास किया. भारत के पूरे प्रदेश में पंथी को ले जाने का गौरव आकाशवाणी रायपुर के नियमित कलाकार राधेश्याम बारले ने अभी तक देश और प्रदेश के कई महोत्सव में पंथी के जलवे दिखाए हैं. लगभग 1200 मंचीय प्रस्तुति के माध्यम से बाबा के उपदेशों को लोगों तक पहुंचाने में सफल रहे.

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