नई दिल्ली : पुरुषों में जिस तरह श्रीराम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है, वैसे ही महिलाओं में माता सीता का चरित्र सर्वोत्तम माना गया है. माता सीता महिलाओं के लिए एक आदर्श और प्रेरणा का प्रतीक है. राम कथाओं में सीता जी का विस्तार तो नहीं है, लेकिन उनके चरित्र में गहराई है. सीता दृढ़ निश्चय, संस्कार, आत्मविश्वास और समझदारी की मूरत हैं. वैसे तो उनका जीवन संघर्षपूर्ण रहा है, लेकिन उनके इस जीवन में आज की कामकाजी या घरेलू महिलाओं के लिए बेहतर और संतुलित जीवन के अनमोल सूत्र छिपे हैं.
पौराणिक कथा के अनुसार, मिथिला के राजा जनक की ज्येष्ठ पुत्री थीं सीता, जिन्हें 'जानकी' भी कहा जाता है. जिनका विवाह अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र श्रीराम से हुआ. विवाह के उपरांत माता सीता के जीवन में कई तरह के उतार-चढ़ाव आये. उनका जीवन चुनौतियों से भरा रहा. जब श्रीराम को राज्याभिषेक के बदले 14 वर्ष का वनवास दिया गया तो सीता स्वयं ही उनके साथ वन गमन के लिए तैयार हो गईं. वन गमन के समय जब पति ने नीति की बात कहते हुए सीता जी को वन के अनेक दुखों, कष्टों का वर्णन करते हुए कहा कि सास-ससुर की सेवा ही स्त्री का परम कर्तव्य है. तब सीता ने अपने मधुर वाणी में 'पति सेवा' ही नारी का सबसे बड़ा कर्तव्य है कहकर श्रीराम को साथ ले चलने के लिए विवश कर दिया. जिस सीता ने कभी पलंग से जमीन पर पांव तक नहीं रखा था. वही सीता नंगे पांव जंगल की पथरीले और कंटीले रास्तों पर सहज ही चल रही थीं.
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वन में जब रावण ने अपनी माया से उनका हरण कर लिया, तब भी वे हताश और निराश नहीं हुईं. सीता जी मानसिक रूप से इतनी सबल थीं कि रावण की धमकियों और माया का प्रभाव उनके आत्मविश्वास के आगे नहीं टिक पाया. वे सत्य के साथ डटी रहीं, लेकिन अशोक वाटिका में रहने के दौरान एक वक्त ऐसा भी आया जब माता सीता का विश्वास डगमगाने लगा, तब राम के दूत के रूप में लंका आए हनुमान ने उन्हें श्रीराम की मुद्रिका दी. हनुमान को देख पहले तो उन्हें इस बात का संदेह हुआ कि वानर सेना के साथ राम कैसे रावण से जीत सकेंगे तब हनुमान ने अपना विराट रूप दिखा उन्हें इस बात का विश्वास दिलाया कि वानर सेना में एक से एक विशालकाय और बलशाली वानर हैं, जिनके आगे रावण की सेना का कोई मुकाबला नहीं है.
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लंका विजय के बाद जब सीता जी राम के पास पहुंचीं तो उन्हें अपनी पवित्रता साबित करने के लिए अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ा. इस अग्निपरीक्षा के बाद भी जनसमुदाय में तरह-तरह की बातें बनाई जाने लगीं. जिस सीता के बिना राम जीवित नहीं रह सकते थे, जिस सीता के लिए राम ने रावण से इतना बड़ा युद्ध किया, उसी सीता का जब वह गर्भवती थीं त्याग कर दिया. गृह त्याग के बाद माता सीता तपोवन में महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में रहने लगीं. वहीं उन्होंने लव और कुश नामक दो जुड़वां बच्चों को जन्म दिया. वहीं पर उन्होंने अपने दोनों पुत्रों को पाला और उन्हें अच्छी शिक्षा और संस्कार दिये.
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पति सेवा को अपना सबसे बड़ा कर्तव्य समझने वाली माता सीता का जीवन सिखाता है कि दाम्पत्य जीवन को सुगम तरीके से चलाने के लिए पति-पत्नी का आपसी सामंजस्य बेहद जरूरी है. हर कदम पर एक-दूसरे का साथ देने से जीवन आसान हो जाता है. लेकिन जब जिंदगी में अकेले पड़ने पर परिस्थितियों को कैसे हैंडल करना है उसकी भी सीख देती है.