नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा के कुछ हिस्सों में सांप्रदायिक हिंसा भड़कने के कुछ दिन बाद शुक्रवार को कहा कि नफरत फैलाने वाले भाषण को परिभाषित करना जटिल है, लेकिन उनसे निपटने में असली समस्या कानून और न्यायिक घोषणाओं के क्रियान्वयन एवं निष्पादन की है.
जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस एसवीएन भट्टी की पीठ हरियाणा में सांप्रदायिक झड़पों को लेकर दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र में हिंदूवादी संगठनों- विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल द्वारा आयोजित की जाने वाली रैलियों तथा नफरत फैलाने वाले भाषणों के खिलाफ अन्य याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी. पीठ ने पूछा कि क्या कार्यक्रम शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न हुआ. याचिकाकर्ता शाहीन अब्दुल्ला की ओर से पेश वरिष्ठ वकील सीयू सिंह ने कहा कि रैलियों में कुछ नफरत भरे भाषण दिए गए, लेकिन कोई हिंसा की सूचना नहीं मिली.
पीठ ने सिंह से कहा कि नफरत फैलाने वाले भाषणों का समाधान सामूहिक प्रयासों से ही खोजा जा सकता है. न्यायमूर्ति खन्ना ने याचिकाकर्ता की ओर से पेश सीयू सिंह और केंद्र की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से कहा कि आप एक साथ बैठकर समाधान खोजने का प्रयास क्यों नहीं करते. आप देखते हैं कि नफरत फैलाने वाले भाषण की परिभाषा काफी जटिल है और यह सुनिश्चित किये जाने की आवश्यकता है कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे को पार न कर जाए.
जस्टिस खन्ना ने कहा कि अमीश देवगन बनाम भारत सरकार के मामले में मेरा 2020 का फैसला है, जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रतिस्पर्धी हितों के संतुलन और नफरत एवं सांप्रदायिक वैमनस्य के प्रसार को रोकने की आवश्यकता से संबंधित है. शीर्ष अदालत के कई अन्य फैसले भी हैं. आप देखिए, मुख्य समस्या कार्यान्वयन और निष्पादन की है.
मेहता ने कहा कि शीर्ष अदालत ने तहसीन पूनावाला मामले में 2018 के फैसले में निर्दिष्ट किया है कि घृणास्पद भाषण क्या है और कोई भी किसी भी समुदाय के खिलाफ घृणास्पद भाषण को उचित नहीं ठहरा सकता. मेहता ने कहा कि कानून बहुत स्पष्ट है कि अगर कोई नफरत भरा भाषण दिया जाता है, तो कोई भी प्राथमिकी दर्ज करा सकता है और अगर प्राथमिकी दर्ज नहीं होती है, तो कोई भी अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है.
हालांकि, उन्होंने कहा कि कुछ व्यक्ति और संगठन अब नफरत फैलाने वाले भाषणों की शिकायतों को लेकर संबंधित थाने के बजाय सीधे उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटा रहे हैं तथा आदेशों के उल्लंघन पर अवमानना कार्रवाई का अनुरोध कर रहे हैं. उन्होंने कहा कि इतना ही नहीं, एक नई प्रथा सामने आई है, जहां लोग किसी कार्यक्रम में नफरत भरे भाषण दिये जाने की आशंका व्यक्त करते हुए, अदालत का दरवाजा खटखटाते हैं और अग्रिम फैसले का अनुरोध करते हैं.
मेहता शीर्ष अदालत के 28 अप्रैल के उस आदेश का जिक्र कर रहे थे, जिसमें इसने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों (यूटी) को बिना किसी शिकायत के भी नफरती भाषण देने वालों के खिलाफ मामले दर्ज करने का निर्देश दिया था. न्यायालय ने अपने आदेश में ऐसे भाषणों को देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को प्रभावित करने में सक्षम गंभीर अपराध बताया था.
कोर्ट ने अपने 2022 के आदेश का दायरा तीन राज्यों- उत्तर प्रदेश, दिल्ली और उत्तराखंड से आगे बढ़ाते हुए अधिकारियों को स्पष्ट कर दिया था कि नफरत फैलाने वाले भाषणों के खिलाफ कार्रवाई करने में किसी भी तरह की हिचकिचाहट को सुप्रीम कोर्ट की अवमानना के रूप में देखा जाएगा और दोषी अधिकारियों के खिलाफ उचित कार्रवाई की जाएगी. पीठ ने कहा कि ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए ताकि कोई भी व्यक्ति बार-बार शीर्ष अदालत न आये.
कोर्ट ने कहा कि सामाजिक तनाव किसी के हित में नहीं है. कोर्ट ने कहा कि हर किसी को समाधान ढूंढ़ना होगा, क्योंकि नफरत फैलाने वाले भाषणों से निपटने का कोई तरीका होना चाहिए. हर किसी को अदालत में नहीं आना चाहिए और कुछ तंत्र होना चाहिए. हमने कुछ सोचा है और हम आप सभी को बताएंगे. इसके साथ ही सुप्रीम अदालत ने मामले को दो सप्ताह बाद सुनवाई के लिए सूचीबद्ध कर दिया.