दमोह : यूपी के गौतम बुद्ध नगर में काम की तलाश में पहुंचे छतरपुर और दमोह जिले के 41 मजदूरों को स्थानीय प्रशासन ने ठेकेदार के चंगुल से मुक्त कराया है. दरअसल मजदूरी करने गए इन मजदूरों को ठेकेदार ने बंधुआ बना लिया था. वह न उन्हें वेतन दे रहा था, न ही भोजन दे रहा था.
साथ ही उन्हें कैंपस से बाहर भी जाने नहीं दिया जा रहा था. किसी फिल्मी क्लाइमैक्स की तरह यह घटना दमोह और छतरपुर जिले के मजदूरों के लिए 6 महीने तक हकीकत बनी रही. जिन 41 मजदूरों को बंधन मुक्त कराया गया है, उनमें 6 मजदूर दमोह जिले के और शेष 34 मजदूर छतरपुर जिले के रहने वाले हैं. मजदूरों को लेकर एक बस देर रात दमोह कलेक्ट्रेट पहुंची. वहां से उन्हें जिला अस्पताल लाकर मेडिकल कराया गया. मेडिकल जांच के बाद सभी मजदूरों को उनके घर वापस भेज दिया गया है.
काम कराया और बंधक बना लिया
हटा ब्लॉक के ग्राम खैरी हरकिशन के रहने वाले मजदूर मोहन अहिरवार ने बताया कि वह अपनी पत्नी, भतीजी और दो नाती-नातिन के साथ 6 महीने पहले काम की तलाश में यूपी गया था. वहां उसे एक ठेकेदार ने काम पर तो रख लिया, लेकिन जब भी उससे मजदूरी की मांग करते तो ठेकेदार यह कहकर टाल देता कि कुछ दिन बाद दे देंगे.
इस तरह करते-करते करीब 2 महीने बीत गए. वह केवल खर्चे के लिए कभी 100 रुपए तो कभी 200 रुपए दे दिया करता था. लेकिन इस अवधि में उसने खाने के लिए भी भोजन नहीं दिया. वहां पर हालत बहुत खराब थी. लेकिन इस बीच किसी ने उसे सलाह दी कि पुलिस थाने में किसी तरह पहुंचकर शिकायत दर्ज करा दो.
जिसके बाद एक स्थानीय व्यक्ति के सहयोग से उसने अपनी शिकायत थाने में दर्ज कराई. जानकारी के बाद प्रशासन ने मोहन और उसके परिवार सहित छतरपुर के 34 मजदूरों को मुक्त करा दिया.
खाना भी नहीं मिलता था
ऐसी ही कहानी खैरी हरकिशन की रहने वाली रोशनी अहिरवार की भी है. वह बताती हैं कि जब वह मजदूरी करने के लिए दिल्ली पहुंची, तो सराय काले खां से महेश यादव नाम का एक व्यक्ति उन्हें मजदूरी के लिए ठेकेदार के पास ले गया था. ठेकेदार ने कभी उन्हें पूरा पैसा नहीं दिया. मात्र खर्चे के लिए रुपए दिए जाते थे.
इतनी अधिक पाबंदी थी कि परिवार के एक सदस्य को ही राशन-पानी लेने के लिए बाहर जाने की छूट थी. बाकी लोगों को बंधक बनाकर अंदर रखा जाता था. ठेकेदार गाली-गलौज भी उनके साथ करता था. मजदूरों से दिनभर काम कराया जाता था. कभी-कभी तो ओवरटाइम भी कराया जाता था. भूख से बेहाल लोग परेशान हो जाते थे.
पंचायत सचिव का अलग तर्क
बाकी मजदूरों से अलग कहानी ग्राम पंचायत रौंडा के सचिव हनुमत बता रहे हैं. हनुमत ने कहा, 'पिछले ही वर्ष बंधुआ बनाए गए मोहन अहिरवार को पीएम आवास दिया गया. उसका गरीबी रेखा का कार्ड है, खाद्यान्न भी उसे दिया जाता है. गांव में काम भी मिलता है.
लेकिन वह यहां पर करना नहीं चाहते. ऐसा क्यों होता है कि हर बार इन्हीं को बाहर बंधुआ बना लिया जाता है. 2 साल पहले भी इन्हें बंधुआ बनाया गया था और 20 हजार रुपए की सरकार से सहायता मिली थी. आगे आप खुद समझदार हैं, मैं क्या कहूं'.
हनुमत ने आगे कहा कि सरकार की जो भी योजनाएं चल रही हैं. उनका भी लाभ इन्हें दिया जाएगा. लेकिन सवाल यह है कि आखिर दूसरे मजदूरों को बंधुआ क्यों नहीं बनाया जाता. सचिव की बात मानें तो कहीं न कहीं पूरे मामले में एक बड़ा झोल है, या तो सरकार वास्तव में इन मजदूरों को काम नहीं दे पा रही है या फिर यह पैसों की लालच में बंधुआ होने के लिए स्वयं ही बाहर चले जाते हैं.
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ज्यादा पैसों के लिए बाहर जाते हैं मजदूर
प्रभारी श्रम अधिकारी जी.डी गुप्ता कहते हैं कि स्थानीय स्तर पर रोजगार तो मिलता है लेकिन यहां पर मजदूरी दर कम है. जबकि दिल्ली आदि में इन्हें अधिक पैसा मिलता है. इसलिए यह मजदूर बाहर चले जाते हैं. हालांकि गौतम बुद्ध नगर प्रशासन ने उन्हें मुक्त करा दिया है, और अभी हम इन्हें ले आए हैं.
मजदूरों को ग्रेटर नोएडा प्रशासन ने मुक्त कराया है. बताया गया है कि उन्हें वहां पर मजदूरी और भोजन नहीं दिया जाता था. उनसे बेतहाशा काम भी लिया जाता था. कभी-कभी 100 रुपए तो कभी 500 रुपए खर्चे के लिए दिए जाते थे. उन्हें बंधुआ बनाकर काम कराया जा रहा था.
- विजय साहू, तहसीलदार