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कोरोना प्रभाव : भारत में शिक्षा का आपातकाल माना जाना चाहिए - Krishna kumar interview

शिक्षाविद् और पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित कृष्ण कुमार ने कहा कि देश भर में करोड़ों बच्चे कोविड-19 के कारण शिक्षा से वंचित हैं. यदि इसे आपातकाल के रूप में नहीं माना जाता है तो भारत को भारी कीमत चुकानी होगी. उन्होंने चेतावनी दी कि यदि स्थिति की गंभीरता को कमतर आंका गया तो देश में शिक्षा की प्रगति रसातल में चली जाएगी. उन्होंने कहा कि स्कूल जाने वाले बच्चों पर महामारी के प्रभाव को समझने के लिए एक व्यापक सर्वेक्षण किया जाना चाहिए. ईनाडु के एन. विस्व प्रसाद के साथ अपने साक्षात्कार में कृष्ण कुमार ने भारत में शिक्षा प्रणाली के संबंध में कई सुझाव दिए हैं. यहां उसके अंश दिए गए हैं.

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Published : Apr 26, 2021, 6:13 PM IST

Updated : Apr 30, 2021, 3:14 PM IST

हैदराबाद : कृष्ण कुमार पूर्व में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान व प्रशिक्षण परिषद (NCERT) के निदेशक के रूप में कार्य किया है. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षा के प्रोफेसर के रूप में भी काम किया है. कृष्ण कुमार ने कहा कि केंद्र और राज्य सरकारों को बंद हुए स्कूलों को फिर से खोलने और बाहर निकले बच्चों को फिर से पढ़ने के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करनी चाहिए.

दूसरी लहर का असर शिक्षा पर कैसे पड़ेगा?

लाखों प्रवासी श्रमिकों के बच्चों की शैक्षिक स्थिति पर कोई अध्ययन नहीं किया गया है जो अपने मूल स्थानों पर वापस चले गए हैं. मेट्रो शहरों में भी बड़ी संख्या में बच्चे शिक्षा से वंचित हैं. हालांकि पहली लहर के बाद मजदूर वापस शहरों में तो चले गए लेकिन वे अपने बच्चों को साथ नहीं ले गए हैं. देश भर के लाखों निजी स्कूल बंद हो गए. उन स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों की स्थिति कोई नहीं जानता.

केंद्र-राज्य सरकारों को प्रभाव को कम करने के लिए क्या करना चाहिए था? अभी वे क्या उपाय कर सकते हैं?

छात्रों पर कोविड-19 के प्रभाव के बारे में एक व्यापक सर्वेक्षण पहले आयोजित किया जाना चाहिए. विश्वसनीय आंकड़े एकत्र किए जाने चाहिए. सटीक क्षेत्र-स्तरीय डाटा के बिना सामूहिक योजनाएं नहीं बनाई जा सकतीं. पिछले एक साल में मध्याह्न भोजन योजना कैसे प्रभावित हुई है, इसका स्कूल के बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ा है, इसका विश्लेषण अवश्य किया जाना चाहिए. यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि निजी स्कूलों के बंद होने के बाद छात्र कहां हैं. उनमें से कुछ सरकारी स्कूलों में शामिल हो गए होंगे लेकिन हमें संख्याओं को जानना चाहिए.

इसके बाद ही हम राज्य संचालित स्कूलों में अतिरिक्त स्थान और शिक्षण सुविधाएं प्रदान कर सकते हैं. ऐसा लगता है कि बड़ी संख्या में बच्चे विशेषकर ग्रामीण गरीब और प्रवासी कामगारों की लड़कियां स्कूल से बाहर होकर बाल मजदूर बन गई हैं. यदि हम डाटा एकत्र करें तो उन्हें वापस स्कूल में लाने के लिए योजना तैयार कर सकते हैं.

सीबीएसई और राज्य बोर्डों ने परीक्षाओं को रद्द या स्थगित कर दिया है. इसके परिणाम क्या होंगे?

10वीं की परीक्षा रद होना और 12वीं कक्षा की परीक्षाओं का स्थगित होना वाजिब है. वास्तव में 12 वीं कक्षा के छात्रों के पास पिछले साल केवल ऑनलाइन कक्षाएं थीं. तो परीक्षा भी ऑनलाइन आयोजित की जा सकती है. यह कोई असंभव भी नहीं है. जिन बच्चों को जरूरत है, उनके लिए अस्थाई आधार पर डिजिटल उपकरण लगाए जा सकते हैं. वर्तमान में कई विश्वविद्यालय 1 वर्ष के छात्रों के लिए ऑनलाइन परीक्षा आयोजित कर रहे हैं.

अमीर और गरीब के बीच की खाई शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित कर रही है. इस अंतर को कैसे पाटा जाए?

यह अंतर महामारी से पहले भी मौजूद था लेकिन यह अब स्पष्ट हो गया है. सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों के शिक्षकों के लिए न्यूनतम वेतन निश्चित होना चाहिए. सरकार को निजी स्कूलों को वित्तीय सहायता प्रदान करनी चाहिए जो न्यूनतम मजदूरी का भुगतान नहीं कर सकते. इस तरह हम कुशल शिक्षकों को नियुक्त कर सकते हैं.

इसी तरह सरकार को उन स्कूलों का समर्थन करना चाहिए जो महामारी के कारण बंद हो गए हैं. इसे बोझ नहीं माना जा सकता. यदि सभी बच्चे वापस स्कूलों में आते हैं तो पर्याप्त संकाय और बुनियादी ढांचा प्रदान करने के लिए बहुत अधिक लागत आएगी. नौकरशाही के कारण कार्यान्वयन में देरी होगी. शिक्षा की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए यह किया जाना चाहिए.

4 साल से कम उम्र के बच्चे भी डिजिटल क्लास ले रहे हैं. इसका उन पर क्या असर पड़ेगा?

भारत को छोड़कर दुनिया का कोई भी देश बालवाड़ी और पूर्व स्कूली बच्चों के लिए ई-कक्षाएं आयोजित नहीं कर रहा है. बाल मनोविज्ञान और विकास के दृष्टिकोण से इसे देखें तो यह उनकी मानसिक स्थिति के लिए अच्छा नहीं है. बड़ों और वयस्कों के माध्यम से बच्चों को पढ़ाने के तरीकों के बारे में विचार करके, हम एक रास्ता खोज सकते हैं.

मेरी राय में यह 4 साल के बच्चों के लिए बेहतर होगा जिन्होंने महामारी शुरु होने के बाद ऑनलाइन कक्षाओं में अपनी दृष्टि और समग्र विकास का परीक्षण किया. इस उम्र के बच्चों को सीखने की कठोर दिनचर्या की आवश्यकता नहीं है. उन्हें कुछ बुनियादी शिक्षण के साथ स्वतंत्र रूप से छोड़ा जा सकता है.

महामारी के कारण करोड़ों लोगों ने अपनी आजीविका खो दी. सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए क्या करना चाहिए कि उन परिवारों में बच्चों की शिक्षा तक पहुंच है?

ऐसे सभी छात्रों को वित्तीय सहायता प्रदान की जानी चाहिए. करोड़ों बच्चे ऐसे हैं, जो अभावग्रस्त हैं और बुनियादी शिक्षा तक उनकी कमी है. एक बार सर्वेक्षण हो जाने के बाद सरकार यह तय कर सकती है कि प्रत्येक ग्रेड को कितनी मदद दी जा सकती है. सरकारों को निजी स्कूलों को वित्तीय सहायता प्रदान करनी चाहिए जो लॉकडाउन के दौरान बंद हो गए.

यह भी पढ़ें-बच्चों के लिए एक्सक्लूसिव चैनल 'ईटीवी बाल भारत' कल से शुरू

अभी यह सार्वजनिक या निजी का सवाल नहीं है. एक बार स्थिति में सुधार होने के बाद सरकार सहायता की निरंतरता के बारे में समीक्षा कर सकती है. फिलहाल हम गहरे संकट में हैं. हमें उसी हिसाब से जवाब देना चाहिए. अगर हम फिर ड्रॉप आउट को स्कूलों में नहीं ला सकते तो भारत को भारी कीमत चुकानी होगी. इसलिए वर्तमान चरण को राष्ट्रीय शिक्षा आपातकाल माना जाना चाहिए.

हैदराबाद : कृष्ण कुमार पूर्व में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान व प्रशिक्षण परिषद (NCERT) के निदेशक के रूप में कार्य किया है. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षा के प्रोफेसर के रूप में भी काम किया है. कृष्ण कुमार ने कहा कि केंद्र और राज्य सरकारों को बंद हुए स्कूलों को फिर से खोलने और बाहर निकले बच्चों को फिर से पढ़ने के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करनी चाहिए.

दूसरी लहर का असर शिक्षा पर कैसे पड़ेगा?

लाखों प्रवासी श्रमिकों के बच्चों की शैक्षिक स्थिति पर कोई अध्ययन नहीं किया गया है जो अपने मूल स्थानों पर वापस चले गए हैं. मेट्रो शहरों में भी बड़ी संख्या में बच्चे शिक्षा से वंचित हैं. हालांकि पहली लहर के बाद मजदूर वापस शहरों में तो चले गए लेकिन वे अपने बच्चों को साथ नहीं ले गए हैं. देश भर के लाखों निजी स्कूल बंद हो गए. उन स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों की स्थिति कोई नहीं जानता.

केंद्र-राज्य सरकारों को प्रभाव को कम करने के लिए क्या करना चाहिए था? अभी वे क्या उपाय कर सकते हैं?

छात्रों पर कोविड-19 के प्रभाव के बारे में एक व्यापक सर्वेक्षण पहले आयोजित किया जाना चाहिए. विश्वसनीय आंकड़े एकत्र किए जाने चाहिए. सटीक क्षेत्र-स्तरीय डाटा के बिना सामूहिक योजनाएं नहीं बनाई जा सकतीं. पिछले एक साल में मध्याह्न भोजन योजना कैसे प्रभावित हुई है, इसका स्कूल के बच्चों पर क्या प्रभाव पड़ा है, इसका विश्लेषण अवश्य किया जाना चाहिए. यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि निजी स्कूलों के बंद होने के बाद छात्र कहां हैं. उनमें से कुछ सरकारी स्कूलों में शामिल हो गए होंगे लेकिन हमें संख्याओं को जानना चाहिए.

इसके बाद ही हम राज्य संचालित स्कूलों में अतिरिक्त स्थान और शिक्षण सुविधाएं प्रदान कर सकते हैं. ऐसा लगता है कि बड़ी संख्या में बच्चे विशेषकर ग्रामीण गरीब और प्रवासी कामगारों की लड़कियां स्कूल से बाहर होकर बाल मजदूर बन गई हैं. यदि हम डाटा एकत्र करें तो उन्हें वापस स्कूल में लाने के लिए योजना तैयार कर सकते हैं.

सीबीएसई और राज्य बोर्डों ने परीक्षाओं को रद्द या स्थगित कर दिया है. इसके परिणाम क्या होंगे?

10वीं की परीक्षा रद होना और 12वीं कक्षा की परीक्षाओं का स्थगित होना वाजिब है. वास्तव में 12 वीं कक्षा के छात्रों के पास पिछले साल केवल ऑनलाइन कक्षाएं थीं. तो परीक्षा भी ऑनलाइन आयोजित की जा सकती है. यह कोई असंभव भी नहीं है. जिन बच्चों को जरूरत है, उनके लिए अस्थाई आधार पर डिजिटल उपकरण लगाए जा सकते हैं. वर्तमान में कई विश्वविद्यालय 1 वर्ष के छात्रों के लिए ऑनलाइन परीक्षा आयोजित कर रहे हैं.

अमीर और गरीब के बीच की खाई शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित कर रही है. इस अंतर को कैसे पाटा जाए?

यह अंतर महामारी से पहले भी मौजूद था लेकिन यह अब स्पष्ट हो गया है. सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों के शिक्षकों के लिए न्यूनतम वेतन निश्चित होना चाहिए. सरकार को निजी स्कूलों को वित्तीय सहायता प्रदान करनी चाहिए जो न्यूनतम मजदूरी का भुगतान नहीं कर सकते. इस तरह हम कुशल शिक्षकों को नियुक्त कर सकते हैं.

इसी तरह सरकार को उन स्कूलों का समर्थन करना चाहिए जो महामारी के कारण बंद हो गए हैं. इसे बोझ नहीं माना जा सकता. यदि सभी बच्चे वापस स्कूलों में आते हैं तो पर्याप्त संकाय और बुनियादी ढांचा प्रदान करने के लिए बहुत अधिक लागत आएगी. नौकरशाही के कारण कार्यान्वयन में देरी होगी. शिक्षा की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए यह किया जाना चाहिए.

4 साल से कम उम्र के बच्चे भी डिजिटल क्लास ले रहे हैं. इसका उन पर क्या असर पड़ेगा?

भारत को छोड़कर दुनिया का कोई भी देश बालवाड़ी और पूर्व स्कूली बच्चों के लिए ई-कक्षाएं आयोजित नहीं कर रहा है. बाल मनोविज्ञान और विकास के दृष्टिकोण से इसे देखें तो यह उनकी मानसिक स्थिति के लिए अच्छा नहीं है. बड़ों और वयस्कों के माध्यम से बच्चों को पढ़ाने के तरीकों के बारे में विचार करके, हम एक रास्ता खोज सकते हैं.

मेरी राय में यह 4 साल के बच्चों के लिए बेहतर होगा जिन्होंने महामारी शुरु होने के बाद ऑनलाइन कक्षाओं में अपनी दृष्टि और समग्र विकास का परीक्षण किया. इस उम्र के बच्चों को सीखने की कठोर दिनचर्या की आवश्यकता नहीं है. उन्हें कुछ बुनियादी शिक्षण के साथ स्वतंत्र रूप से छोड़ा जा सकता है.

महामारी के कारण करोड़ों लोगों ने अपनी आजीविका खो दी. सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए क्या करना चाहिए कि उन परिवारों में बच्चों की शिक्षा तक पहुंच है?

ऐसे सभी छात्रों को वित्तीय सहायता प्रदान की जानी चाहिए. करोड़ों बच्चे ऐसे हैं, जो अभावग्रस्त हैं और बुनियादी शिक्षा तक उनकी कमी है. एक बार सर्वेक्षण हो जाने के बाद सरकार यह तय कर सकती है कि प्रत्येक ग्रेड को कितनी मदद दी जा सकती है. सरकारों को निजी स्कूलों को वित्तीय सहायता प्रदान करनी चाहिए जो लॉकडाउन के दौरान बंद हो गए.

यह भी पढ़ें-बच्चों के लिए एक्सक्लूसिव चैनल 'ईटीवी बाल भारत' कल से शुरू

अभी यह सार्वजनिक या निजी का सवाल नहीं है. एक बार स्थिति में सुधार होने के बाद सरकार सहायता की निरंतरता के बारे में समीक्षा कर सकती है. फिलहाल हम गहरे संकट में हैं. हमें उसी हिसाब से जवाब देना चाहिए. अगर हम फिर ड्रॉप आउट को स्कूलों में नहीं ला सकते तो भारत को भारी कीमत चुकानी होगी. इसलिए वर्तमान चरण को राष्ट्रीय शिक्षा आपातकाल माना जाना चाहिए.

Last Updated : Apr 30, 2021, 3:14 PM IST
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