इंदौर। कर्नाटक में चुनाव जीतने के बाद जहां कांग्रेस के नवनियुक्त मुख्यमंत्री की घोषणा को लेकर सस्पेंस बरकरार है. वहीं इस मुद्दे पर अब कांग्रेस बचाव की मुद्रा में है. यही वजह है कि पार्टी अब मुख्यमंत्री घोषित करने के फैसले में देरी की वजह चिंतन और मनन को बता रही है. इंदौर में कांग्रेस सांसद व कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने इस मामले में स्पष्ट किया है कि कर्नाटक में जनता ने ऐतिहासिक फैसला किया है. जब ऐतिहासिक फैसले होते हैं तो बहुत गहरे चिंतन मनन की जरूरत होती है, फिलहाल चिंतन चल रहा है और इसका नतीजा जल्द सबके सामने आ जाएगा.
प्रियंका के नाम पर शीर्ष नेतृत्व करेगा निर्णय: गौरतलब है कर्नाटक के नए सीएम के नाम पर आज दिनभर मंथन का दौर जारी रहा. इस दौरान सिद्धारमैया और डीके शिवकुमार को लेकर दिन भर चर्चाओं का बाजार गर्म रहा. वहीं कांग्रेस नेताओं के बीच भी इस मामले को लेकर बेचैनी दिखी. इधर इस स्थिति पर कर्नाटक के वर्तमान मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने आरोप लगाते हुए कहा मुख्यमंत्री को लेकर जल्द फैसला करने में कांग्रेस पंगु साबित हो रही है, यह शर्मनाक स्थिति है. इस बीच इंदौर में अभ्यास मंडल की व्याख्यान माला में अपना वक्तव्य देने के लिए पहुंचे कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने कर्नाटक में मुख्यमंत्री के फैसले के सवाल पर स्पष्ट किया कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री के चयन का फैसला ऐतिहासिक है. जिसमें बहुत गहरे चिंतन और मनन की जरूरत है. उन्होंने कहा मुख्यमंत्री चयन में देरी का सवाल नहीं है, लेकिन फिलहाल इस मामले में चिंतन चल रहा है और इसका जो भी नतीजा है. वह आपके सामने जल्द आ जाएगा. मनीष तिवारी ने इस दौरान मोदी सरकार को चुनाव हराने के लिए सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री घोषित करने संबंधी आचार्य प्रमोद कृष्णन की मांग को लेकर कहा इस तरह के फैसले कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व करता है. कांग्रेस के साथ विपक्षी दल भी करते हैं. उनसे राय मशवरा करके इस तरह के डिसीजन होते हैं. यह बात स्पष्ट है कि प्रियंका गांधी की कांग्रेस में विशेष भूमिका है. कर्नाटक में प्रियंका गांधी ने जिस तरह से प्रचार किया, उसका फायदा कांग्रेस को मिला पर इस तरह के फैसले कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व ही करता है.
संविधान के साथ संवैधानिक संस्थाएं भी खतरे में: अभ्यास मंडल के व्याख्यान के दौरान मनीष तिवारी ने वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य विषय पर अपना विचार व्यक्त करते हुए कहा देश में 1952 से लेकर 1971 तक भारत की संसद करीब 120 से 130 दिन चलती थी. अब यह 60 से 62 दिन रह गई है. संसद चलने का समय हर साल घट रहा है. बजट सत्र भी 2 दिन का ही होता है. यही हाल देश की विधानसभाओं का है, जो साल भर में 20 से 25 दिन ही चल पा रही हैं. लिहाजा लोकतंत्र में अब एग्जीक्यूटिव और न्यायपालिका के बीच गहरी खाई बन रही है. उन्होंने कहा चुने हुए प्रतिनिधियों की संसद और विधानसभा सर्वोच्च पंचायत होती है. जिसकी देश के प्रशासन में भागीदारी होती है, लेकिन अब स्थिति यह है कि विधायकों का काम शादी जन्मदिन और अंतिम संस्कारों में शोक व्यक्त करने जैसा बचा है. उन्होंने मांग करते हुए कहा इस स्थिति से उबरने के लिए संविधान के दृश्य अनुच्छेद पर पुनर्विचार की जरूरत है, क्योंकि देश में लोकसभा और विधानसभाओं के नहीं चल पाने से जनप्रतिनिधियों की भूमिका भी समाप्त हो रही है. यह किसी भी देश के लोकतंत्र के लिए घातक स्थिति है.