नई दिल्ली : नाटो (उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन) शिखर सम्मेलन भारत के लिए अब तक कोई महत्व नहीं रखता था. लेकिन, सोमवार को ब्रसेल्स में हुआ नाटो शिखर सम्मेलन भारत के लिए महत्वपूर्ण माना जा रहा है, क्योंकि नाटो के सदस्य देशों ने चीन की विस्तारवादी नीति और बढ़ती सैन्य ताकत के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया है.
हालांकि भारत नाटो का हिस्सा नहीं है, फिर भी शिखर सम्मेलन में चर्चा की गई रणनीतियों का भारत की विदेश के साथ-साथ रक्षा नीति पर नए भू-राजनीतिक संदर्भ में दूरगामी प्रभाव पड़ने की संभावना है.
ईटीवी भारत से बात करते हुए पूर्व भारतीय राजनयिक अशोक सज्जनहार (Ashok Sajjanhar) ने कहा, 'जहां तक चीन का संबंध है, भारत, नाटो, अमेरिका और यूरोपीय देश एक जैसा दृष्टिकोण रखते हैं. जहां तक रूस का मुकाबला करने का संबंध है, वे एक पटल पर नहीं हैं, लेकिन निश्चित रूप से चीन का मुकाबला करने के मामले में एक साथ हैं. चीन की बढ़ती आक्रामकता और मुखरता पर लगाम लगाने की अपनी उत्सुकता और इच्छा के मामले में भारत नाटो, यूरोपीय संघ और अमेरिका से थोड़ा आगे है. उस संदर्भ में, ऐसी कई संभावनाएं हैं कि भारत और नाटो दोनों मिलकर काम कर सकते हैं.'
लातविया और स्वीडन में भारत के राजदूत रह चुके अशोक सज्जनहार ने कहा, नाटो प्रमुख जेन्स स्टोल्टेनबर्ग (Jens Stoltenberg) ने कुछ महीने पहले भारत में आयोजित रायसीना संवाद (Raisina Dialogue) में भाग लेते हुए कहा था कि वह भारत के साथ मजबूत सहयोग का स्वागत करेंगे. भारत निश्चित रूप से नाटो का सदस्य नहीं बनना चाहता है, लेकिन अपनी साझेदारी, प्रशिक्षण और अन्य सहयोग बढ़ाने की दिशा में काम करेगा और मुझे लगता है कि इसका एक अच्छा भविष्य है.
चीन से जिम्मेदारी से कार्य करने का आह्वान
सोमवार को आयोजित नाटो शिखर सम्मेलन के दौरान, सदस्य देशों ने चीन से अपनी अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को बनाए रखने और अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में जिम्मेदारी से कार्य करने का आह्वान किया.
ब्रसेल्स में नाटो के 30 सदस्य देशों के राष्ट्राध्यक्षों और सरकार के प्रमुखों ने घोषणा की कि चीन के बढ़ते प्रभाव और अंतरराष्ट्रीय नीतियां गठबंधन की सुरक्षा के लिए चुनौतियां पेश करती हैं और देश को 'व्यवस्थित चुनौतियों' के रूप में निर्दिष्ट करती हैं.
नाटो नेताओं ने शिखर सम्मेलन के बाद एक विज्ञप्ति में कहा, चीन की घोषित महत्वाकांक्षाएं और मुखर व्यवहार नियम-आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था और गठबंधन सुरक्षा के लिए प्रासंगिक क्षेत्रों के लिए प्रणालीगत चुनौतियां पेश करते हैं.
शिखर सम्मेलन में नाटो नेताओं ने मुख्य रूप से चीन का मुकाबला करने पर ध्यान केंद्रित किया और एक गठबंधन के रूप में चीन द्वारा पेश किए गए खतरे को संबोधित करने के लिए सहमत हुए.
चीन के अलावा, नेताओं ने नाटो 2030 बैनर के तहत प्रस्तावों के एक सेट पर सहमति व्यक्त की, जिसमें कई मुद्दे जैसे- महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे की सुरक्षा, नवाचार को बढ़ावा देना, साझेदारी को बढ़ावा देना और जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई को पहली बार नाटो के लिए एक महत्वपूर्ण कार्य बनाना शामिल है.
चीन से निपटने में नाटो की भूमिका
चीन द्वारा उत्पन्न सुरक्षा खतरे से निपटने में नाटो की भूमिका के साथ आगे बढ़ने के बारे में पूछे जाने पर सज्जनहार ने रेखांकित किया कि चीन से निपटना या उसका सामना करना नाटो के लिए एक बड़ी दुविधा और चुनौती होगी.
उन्होंने कहा, 'नाटो सोवियत संघ (अब रूस) से निपटने के लिए बनाया गया था. सोवियत संघ के साथ, पश्चिम, यूरोप और अमेरिका के बीच बहुत महत्वपूर्ण आर्थिक सहयोग और साझेदारी नहीं थी. लेकिन चीन के लिए यह उलट है, क्योंकि अधिकांश देश चीन में बहुत अधिक निवेश करते हैं. चीन में जर्मन, इतालवी, फ्रेंच या ब्रिटिश कंपनियां बहुत बड़े पैमाने पर मौजूद हैं. इसी तरह चीनी कंपनियां भी इन देशों में बड़े पैमाने पर मौजूद हैं. ये सभी देश चीन के साथ 'ज्वाइंट एट द हिप' हैं, ऐसे में उनके लिए चीन के साथ रिश्ते से बाहर निकलना मुश्किल साबित होगा.'
पूर्व राजनयिक ने कहा कि चीन यह संदेश देने की कोशिश कर रहा है कि उसकी सत्तावादी व्यवस्था (Authoritarian System) लोकतांत्रिक व्यवस्था (Democratic System) से बेहतर है. इसलिए, चीन दुनिया भर में अपना प्रभाव बढ़ा रहा है. इसलिए, यह जीवन के लोकतांत्रिक तरीके, बहुलवाद, अंतरराष्ट्रीय नियम-आधारित व्यवस्था के लिए एक चुनौती है और यही यूरोपीय संघ के देशों, अन्य नाटो सदस्य देशों को महसूस करना है और चीन के खिलाफ पीछे हटना है.
शिखर सम्मेलन से पहले, नाटो प्रमुख स्टोल्टेनबर्ग ने कहा था कि चीन के साथ कोई नया शीत युद्ध नहीं है, लेकिन पश्चिमी सहयोगियों को चीन के उदय की चुनौती के अनुकूल होना होगा.
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इस मामले पर टिप्पणी करते हुए सज्जनहार ने कहा, 'मुझे नहीं लगता, हम अमेरिका और सोवियत संघ के बीच 1945-1991 के समान प्रकृति के शीत युद्ध की उम्मीद कर सकते हैं क्योंकि चीन और पश्चिमी देश व्यापार और निवेश के मामले में बहुत निकटता से जुड़े हुए हैं. इसलिए मुझे नहीं लगता कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद और सोवियत संघ के विघटन से पहले की प्रकृति का शीत युद्ध संभव है. हालांकि, पश्चिमी देशों को उन चुनौतियों का सामना करना होगा जो चीन पेश करता है.