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भारतीय आर्थिक परियोजनाओं को रोकने की चीनी चाल, ETC समझौते से निकला श्रीलंका - ETC समझौते से निकला श्रीलंका

कोलंबो बंदरगाह पर इस्टर्न कंटेनर टर्मिनल स्थापित करने के लिए भारत, जापान और श्रीलंका के बीच 2018 में मैत्रिपाला सिरिसेना-रानिल विक्रमसिंघे प्रशासन के दौरान समझौता हुआ था. यह विक्रमसिंघे थे, जिन्होंने एसएलएफपी के साथ हाथ मिलाया और सहयोगी देशों के बीच सहयोग समझौता ज्ञापन को संभव बनाया.

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Published : Feb 5, 2021, 9:25 PM IST

हैदराबाद : श्रीलंका सरकार ने इस्टर्न कंटेनर टर्मिनल (ईसीटी) समझौते से बाहर निकलने का फैसला किया है. यह इस बात का भी उदाहरण है कि चीन कैसे भारतीय सहयोग से जुड़ी परियोजनाओं को रोकने के लिए विवेकहीन तरीके से ढोंग रचता है.

कैबिनेट की एक बैठक में जब विक्रमसिंघे ने ईसीटी को अपग्रेड करने के लिए विदेशी निवेश की बात की, तब उनके और मैत्रिपाला सिरिसेना के बीच शब्दों का गर्मागर्म आदान-प्रदान हुआ था. इस समझौते का मुख्य उद्देश्य क्षेत्र में चीनी प्रभाव को कम करना और परियोजना से श्रीलंका को अधिकतम लाभ देना था.

यदि साझेदारी सफल हो गई तो देश के पास 100 प्रतिशत स्वामित्व बरकरार रहेगा और ऑपरेशन में साझेदारी की 51 प्रतिशत हिस्सेदारी मालिक के पास रहेगी. चीन और श्रीलंका से जुड़ी अन्य परियोजनाओं में एशियाई आर्थिक दिग्गज प्रमुख हिस्सेदारी बरकरार रखते हैं.

चुनावी जीत के लिए चली चाल
हालांकि, गोटबाया राजपक्षे ने ईसीटी पर त्रिपक्षीय समझौते के खिलाफ एक निरंतर अभियान चलाया. जिसने न केवल परियोजना को ध्वस्त कर दिया, बल्कि 2020 के चुनावों में विरोधियों पर बढ़त बना ली. इसने कोलंबो बंदरगाह में ईसीटी समझौते का विरोध करने के लिए आंदोलनकारी बंदरगाह संघ कार्यकर्ताओं को और उकसाया.

यह राजपक्षे के चुनाव अभियान का हिस्सा बन गया और उन्होंने आंदोलनकारी कार्यकर्ताओं से वादा किया कि वे ईसीटी समझौते को रद्द कर देंगे. राजपक्षे के सत्ता में आने के बाद यह स्पष्ट हो गया कि इस द्वीपीय राष्ट्र में भारत के लिए कई चीजें बदल जाएंगी.

परियोजना पर थी चीन की नजर
ईसीटी परियोजना पर चीन की नजर थी, क्योंकि यह कोलंबो इंटरनेशनल कंटेनर टर्मिनल के करीब है. जहां चीन श्रीलंका के साथ साझेदारी करता है और 1.4 बिलियन डॉलर की परियोजना में अधिकतम 84 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखता है. यह समझना महत्वपूर्ण हो जाता है कि कैसे चीन ने अन्य देशों के हितों को कमजोर करते हुए पड़ोस और उससे आगे तक अपने पैरों के निशान बढ़ाए हैं.

यह चीन के विशाल बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के बाद का समुद्री व्यापार मार्ग है. जिसका उद्देश्य एशिया, यूरोप और उससे आगे के क्षेत्रों में अपने आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव का विस्तार करने के लिए सड़कों का जाल बनाना है.

अन्य परियोजनाओं पर भी चीन चौकन्ना
चीन चाहता है कि उसके उद्देश्य पूरे हों और वह अछूता भी रहे. भारत के आकार और भू-राजनीतिक स्थिति को देखते हुए वह नई दिल्ली को अपनी विस्तारवाद की नीति से एक संभावित चुनौती देता है. यही कारण है कि चीन हर जगह भारत का पीछा करता है और देश को आर्थिक रूप से कमजोर करने के लिए उसकी सभी विकास परियोजनाओं को पटरी से उतारने की कोशिश करता है.

ईसीटी के अलावा चाबहार-जाहेदान रेल लिंक, जिसे भारत को अपनी निर्माण एजेंसी इरकॉन के माध्यम से निर्माण करना था. चीन ने परियोजना को बंद रखने के लिए ईरानी नेतृत्व से चुपके से मुलाकात की, जिससे भारत को झटका लगा. हालांकि ईरान ने भारत के लिए विकल्पों को पूरी तरह से बंद नहीं किया है. वास्तव में चाबहार बंदरगाह पर भारत की गतिविधि विशेष रूप से डोनाल्ड ट्रंप के व्हाइट हाउस से बाहर निकलने के बाद तेज हो गई है.

चीन की विभाजनकारी राजनीति
राजपक्षे बंधुओं और बौद्ध-सिंहली जातीयता में उनके समर्थन के आधार पर उनकी अपनी पार्टी श्रीलंका पोडुजाना पेरमुना (एसएलपीपी या श्रीलंका पीपुल्स फ्रंट) की लोकप्रियता में जबरदस्त वृद्धि हुई है. नए पीपुल्स फ्रंट ने द्वीप के दो प्रमुख दलों, श्रीलंका फ्रीडम पार्टी (एसएलएफपी) और यूनाइटेड नेशनल पार्टी (यूएनपी) के राजनीतिक परिदृश्य को बुलंद किया है.

हालांकि, महिंदा राजपक्षे ने एसएलएफपी कोटे से श्रीलंका के प्रधानमंत्री के रूप में अपना पहला कार्यकाल पूरा किया था, लेकिन यह उनके छोटे भाई थे, जिन्होंने राजपक्षे को वापस सत्ता में लाने के लिए चीन के आशीर्वाद के साथ अपनी पार्टी शुरू करने के बारे में सोचा. अन्यथा महिंदा युद्ध अपराधों में उनकी कथित भागीदारी के लिए सलाखों के पीछे होते.

राजपक्षे और उनके भाई पिछली सरकार के उस फैसले को पलटने के फायदे उठा रहे हैं, जिसे चीन ने माना कि वे उनके हितों के खिलाफ थे. श्रीलंका के लिए भारत को किसी भी रणनीतिक परियोजना में शामिल करना मुश्किल है. इसलिए इस क्षेत्र में कुछ वैकल्पिक सहयोगियों की तलाश करना आवश्यक है.

यह भी पढ़ें-दुनिया के 50 प्रतिशत कुपोषित बच्चे भारत में, फिर भी पोषण पर कम हुआ आंवटन

वास्तव में ईसीटी को छोड़ना भारत के लिए समझदार कदम नहीं होगा. कोलंबो बंदरगाह पर रुकी हुई परियोजना पर बातचीत जारी रहनी चाहिए.

(बिलाल भट, न्यूज एडिटर, ईटीवी भारत)

हैदराबाद : श्रीलंका सरकार ने इस्टर्न कंटेनर टर्मिनल (ईसीटी) समझौते से बाहर निकलने का फैसला किया है. यह इस बात का भी उदाहरण है कि चीन कैसे भारतीय सहयोग से जुड़ी परियोजनाओं को रोकने के लिए विवेकहीन तरीके से ढोंग रचता है.

कैबिनेट की एक बैठक में जब विक्रमसिंघे ने ईसीटी को अपग्रेड करने के लिए विदेशी निवेश की बात की, तब उनके और मैत्रिपाला सिरिसेना के बीच शब्दों का गर्मागर्म आदान-प्रदान हुआ था. इस समझौते का मुख्य उद्देश्य क्षेत्र में चीनी प्रभाव को कम करना और परियोजना से श्रीलंका को अधिकतम लाभ देना था.

यदि साझेदारी सफल हो गई तो देश के पास 100 प्रतिशत स्वामित्व बरकरार रहेगा और ऑपरेशन में साझेदारी की 51 प्रतिशत हिस्सेदारी मालिक के पास रहेगी. चीन और श्रीलंका से जुड़ी अन्य परियोजनाओं में एशियाई आर्थिक दिग्गज प्रमुख हिस्सेदारी बरकरार रखते हैं.

चुनावी जीत के लिए चली चाल
हालांकि, गोटबाया राजपक्षे ने ईसीटी पर त्रिपक्षीय समझौते के खिलाफ एक निरंतर अभियान चलाया. जिसने न केवल परियोजना को ध्वस्त कर दिया, बल्कि 2020 के चुनावों में विरोधियों पर बढ़त बना ली. इसने कोलंबो बंदरगाह में ईसीटी समझौते का विरोध करने के लिए आंदोलनकारी बंदरगाह संघ कार्यकर्ताओं को और उकसाया.

यह राजपक्षे के चुनाव अभियान का हिस्सा बन गया और उन्होंने आंदोलनकारी कार्यकर्ताओं से वादा किया कि वे ईसीटी समझौते को रद्द कर देंगे. राजपक्षे के सत्ता में आने के बाद यह स्पष्ट हो गया कि इस द्वीपीय राष्ट्र में भारत के लिए कई चीजें बदल जाएंगी.

परियोजना पर थी चीन की नजर
ईसीटी परियोजना पर चीन की नजर थी, क्योंकि यह कोलंबो इंटरनेशनल कंटेनर टर्मिनल के करीब है. जहां चीन श्रीलंका के साथ साझेदारी करता है और 1.4 बिलियन डॉलर की परियोजना में अधिकतम 84 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखता है. यह समझना महत्वपूर्ण हो जाता है कि कैसे चीन ने अन्य देशों के हितों को कमजोर करते हुए पड़ोस और उससे आगे तक अपने पैरों के निशान बढ़ाए हैं.

यह चीन के विशाल बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के बाद का समुद्री व्यापार मार्ग है. जिसका उद्देश्य एशिया, यूरोप और उससे आगे के क्षेत्रों में अपने आर्थिक और राजनीतिक प्रभाव का विस्तार करने के लिए सड़कों का जाल बनाना है.

अन्य परियोजनाओं पर भी चीन चौकन्ना
चीन चाहता है कि उसके उद्देश्य पूरे हों और वह अछूता भी रहे. भारत के आकार और भू-राजनीतिक स्थिति को देखते हुए वह नई दिल्ली को अपनी विस्तारवाद की नीति से एक संभावित चुनौती देता है. यही कारण है कि चीन हर जगह भारत का पीछा करता है और देश को आर्थिक रूप से कमजोर करने के लिए उसकी सभी विकास परियोजनाओं को पटरी से उतारने की कोशिश करता है.

ईसीटी के अलावा चाबहार-जाहेदान रेल लिंक, जिसे भारत को अपनी निर्माण एजेंसी इरकॉन के माध्यम से निर्माण करना था. चीन ने परियोजना को बंद रखने के लिए ईरानी नेतृत्व से चुपके से मुलाकात की, जिससे भारत को झटका लगा. हालांकि ईरान ने भारत के लिए विकल्पों को पूरी तरह से बंद नहीं किया है. वास्तव में चाबहार बंदरगाह पर भारत की गतिविधि विशेष रूप से डोनाल्ड ट्रंप के व्हाइट हाउस से बाहर निकलने के बाद तेज हो गई है.

चीन की विभाजनकारी राजनीति
राजपक्षे बंधुओं और बौद्ध-सिंहली जातीयता में उनके समर्थन के आधार पर उनकी अपनी पार्टी श्रीलंका पोडुजाना पेरमुना (एसएलपीपी या श्रीलंका पीपुल्स फ्रंट) की लोकप्रियता में जबरदस्त वृद्धि हुई है. नए पीपुल्स फ्रंट ने द्वीप के दो प्रमुख दलों, श्रीलंका फ्रीडम पार्टी (एसएलएफपी) और यूनाइटेड नेशनल पार्टी (यूएनपी) के राजनीतिक परिदृश्य को बुलंद किया है.

हालांकि, महिंदा राजपक्षे ने एसएलएफपी कोटे से श्रीलंका के प्रधानमंत्री के रूप में अपना पहला कार्यकाल पूरा किया था, लेकिन यह उनके छोटे भाई थे, जिन्होंने राजपक्षे को वापस सत्ता में लाने के लिए चीन के आशीर्वाद के साथ अपनी पार्टी शुरू करने के बारे में सोचा. अन्यथा महिंदा युद्ध अपराधों में उनकी कथित भागीदारी के लिए सलाखों के पीछे होते.

राजपक्षे और उनके भाई पिछली सरकार के उस फैसले को पलटने के फायदे उठा रहे हैं, जिसे चीन ने माना कि वे उनके हितों के खिलाफ थे. श्रीलंका के लिए भारत को किसी भी रणनीतिक परियोजना में शामिल करना मुश्किल है. इसलिए इस क्षेत्र में कुछ वैकल्पिक सहयोगियों की तलाश करना आवश्यक है.

यह भी पढ़ें-दुनिया के 50 प्रतिशत कुपोषित बच्चे भारत में, फिर भी पोषण पर कम हुआ आंवटन

वास्तव में ईसीटी को छोड़ना भारत के लिए समझदार कदम नहीं होगा. कोलंबो बंदरगाह पर रुकी हुई परियोजना पर बातचीत जारी रहनी चाहिए.

(बिलाल भट, न्यूज एडिटर, ईटीवी भारत)

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