नई दिल्ली : तिब्बत पर रणनीतियों के लिए महत्व से परिपूर्ण एक दिलचस्प विकास में, भारत और पश्चिम दोनों के लिए - चीन ने तिब्बती बौद्ध धर्म के आध्यात्मिक नेता दलाई लामा को नियुक्त करने के अधिकारों का दावा करने के लिए इतिहास का सहारा लिया है.
चीन ने शुक्रवार को कहा कि उसकी मंजूरी पर ही मौजूदा दलाई लामा के किसी उत्तराधिकारी को मान्यता दी जाएगी. साथ ही, उसने दलाई लामा या उनके अनुयायियों द्वारा नामित किसी व्यक्ति को मान्यता देने से इनकार किया.
चीनी सरकार द्वारा जारी एक आधिकारिक श्वेत पत्र 'तिब्बत सिंस 1951 : लिबरेशन, डेवलपमेंट एंड प्रॉस्पेरिटी' में दावा किया गया कि किंग राजवंश (1677-1911) के बाद से केंद्र सरकार द्वारा दलाई लामा और अन्य आध्यात्मिक बौद्ध नेताओं को मान्यता दी जाती है. तब से, यह एक स्थापित परंपरा बन गई कि केंद्र सरकार दलाई लामा और पंचेन एर्डेनी की उपाधियां प्रदान करे. किंग सरकार ने केंद्रीय अधिकारियों की ओर से स्थानीय सैन्य और राजनीतिक मामलों की देखरेख और संयुक्त रूप से प्रबंधन करने के लिए तिब्बत में रहने वाले ग्रैंड मिनिस्टर्स को तैनात करना शुरू किया. कुल मिलाकर इसने 100 से अधिक ऐसे मंत्रियों को नियुक्त किया.
इस पत्र में कहा गया है कि किंग सरकार ने 'तिब्बत के बेहतर शासन' के लिए '29-अनुच्छेद अध्यादेश' की घोषणा की, जिसमें यह निर्धारित किया गया था कि दलाई लामा और बौद्ध धर्मगुरु के के अवतार के संबंध में प्रक्रिया का पालन करना होता है और चुनिंदा उम्मीदवार को मान्यता चीन की केंद्रीय सरकार के अधीन है.
चीन द्वारा दलाई लामा के उत्तराधिकारी को चुने जाने और उसे चीनी सरकार द्वारा अनुमोदित किए जाने की बात को वर्तमान दलाई लामा ने अस्वीकार किया है.
इस स्थिति पर अमेरिका के विदेश विभाग के प्रवक्ता नेड प्राइस ने कहा था, हम मानते हैं कि दलाई लामा की उत्तराधिकार प्रक्रिया में चीनी सरकार की कोई भूमिका नहीं होनी चाहिए. प्राइस ने कहा कि उत्तराधिकारी तय करने का चीन का प्रयास धार्मिक स्वतंत्रता का अपमानजनक दुरुपयोग है.
भारत का रुख अमेरिका के रुख से जुड़ा है.
हाल ही में केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (सीटीए) की कार्यकारी शाखा के प्रमुख के रूप में चुने गए पेन्पा सेरिंग ने भी दोहराया था कि अगले दलाई लामा को चुनना वर्तमान दलाई लामा का विशेषाधिकार है और बीजिंग को इस मामले में कुछ नहीं कहना चाहिए.
चीन श्वेत पत्र के माध्यम से जो प्रयास कर रहा है (जो कि राज्य की नीति का एक हिस्सा है) वो भारत, अमेरिका और पश्चिम द्वारा चीन पर प्रहार करने के लिए उठाए जाने वाले राजनयिक लाभ को कम करने का है.
यदि चीन दलाई लामा की नियुक्ति करता है, तो इस बात की संभावना है कि दलाई लामा की वर्तमान संस्था की विश्वसनीयता समाप्त हो जाएगी और तिब्बती बौद्ध धर्म में विभाजन हो सकता है जो मौजूदा दोष-रेखाओं पर निर्मित होगा.
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तिब्बती आंदोलन का समर्थन करने में भारत की भागीदारी का संकेत देते हुए, श्वेत पत्र में उल्लेख किया गया है कि कैसे एक तिब्बती सशस्त्र विद्रोह के नेता 1959 में भारत भाग गए.
बता दें कि तिब्बत में स्थानीय आबादी के आंदोलन पर चीन की कार्रवाई के बाद वर्तमान दलाई लामा (14 वें) दलाई लामा 1959 में भारत आ गए थे.हिमाचल प्रदेश के मैक्लोडगंज में उनकी उपस्थ्ति और उनका मुख्यालय चीनियों के लिए लगातार परेशान करने वाला रहा है.
भारत में तिब्बती शरणार्थियों द्वारा गठित गुप्त कमांडो फोर्स के संदर्भ में, जिसे स्पेशल फ्रंटियर फोर्स (एसएफएफ) कहा जाता है, पत्र में लिखा है कि चीन-भारत सीमा पर चीनी सैनिकों और नागरिकों को परेशान करने के लिए 1962 में, बाहरी शक्तियों के समर्थन से, उन्होंने मुख्य रूप से तिब्बती निर्वासितों का एक पैरा-कमांडो बल बनाया.
एसएफएफ, जिसमें मूल रूप से खंपा क्षेत्र के मूल रूप से रहने वाले जातीय तिब्बती सैनिक शामिल थे, ने पिछले साल पूर्वी लद्दाख में हुए गतिरोध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिससे भारत-चीन सीमा तनाव के दौरान भारत को एक महत्वपूर्ण सैन्य सामरिक लाभ मिला था.