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120 किलोमीटर पैदल चल अपने पिता से मिलने आईं 'देवी' की अनोखी प्रथा

छत्तीसगढ़ के बस्तर में अद्धभुत और अनोखी परंपराओं का समावेश है, जहां पुरखा और देवी-देवताओं से जुड़ी कई कहानियों व प्रथाओं का सम्मान आज भी उनकी परंपराओं में झलकता है. इसी प्रकार बस्तर में एक ऐसी ही परंपरा सदियों से निभाई जा रही है, जिसे जानकर हर कोई हैरान है.

अनोखी प्रथा
अनोखी प्रथा
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Published : Mar 12, 2021, 12:57 PM IST

कांकेर: छत्तीसगढ़ बस्तर जितना अद्धभुत है, उतनी ही अनोखी हैं यहां की परंपराएं. यहां रहने वाले आदिवासियों ने रीति-रिवाजों को अपने आंगन में बचा रखा है. प्रकृति को पूजने वाले आदिवासियों ने संस्कृति को बहुत खूबसूरती से सहेजा है. इस जगह को देवी-देवताओं को गढ़ भी मानते हैं और इससे जुड़ी कई कहानियां प्रथाओं में नजर आती हैं. हम आपको आज ऐसी ही एक कहानी से रूबरू करा रहे हैं.

बस्तर के गांव और टोले में स्थानीय आदिवासियों के अपने देवी देवता होते हैं. जिस तरह मानवीय रिश्तो में मां-बाप, पति-पत्नी, भाई-बहन होते हैं ऐसे ही इन देवी-देवताओं में भी होता है. यह एक प्रतीक के रूप में होता है, जिसे आदिवासी अपना पुरखा भी कहते हैं. यहीं इनका विवाह होता है. मायका और ससुराल होता है. इन्हीं में एक देवी लहरी अपने पिता पटवन मुदिया देव से मिलने पहुंची. पूरी रीति-रिवाज के साथ उन्हें डोली में लाया गया और पिता से मिलवाया गया. इस दौरान गांववाले भावुक भी हुए.

120 किलोमीटर पैदल चल कर अपने पिता से मिलने आईं 'देवी'

पढ़ें- कुंभ : पहले शाही स्नान पर 32 लाख से ज्यादा श्रद्धालुओं ने लगाई आस्था की डुबकी, दिखा अलग ही नजारा

120 किलोमीटर दूर आई डोली
जिला मुख्यालय से 17 किलोमीटर दूरी पलेवा गांव में राजनांदगांव के बनाबरस क्षेत्र के कुंजामटोला से 120 किलोमीटर का पैदल सफर तय कर लहरी देवी अपने पिता से मिलने पहुंचीं थीं. इसमें उन्हें तीन दिन का समय लगा था. अपने बेटी को लेने गांव की सीमा से पांच किलोमीटर दूर पिता पटवन मुदिया महानदी के बीच गए. पिता और बेटी के इस मिलन को देखने के लिए बड़ी संख्या में गांववाले पहुंचे थे. ग्रामीण फूल-मालाओं के साथ नाचते-गाते पहुंचे थे.

120 किमी दूर हुई थी तीसरी बेटी की शादी
पलेवा गांव के प्रमुख ने बताया कि उनके गांव के देवता को पटवन मुदिया कहा जाता है. कहते हैं कि उनकी तीन बेटियां हैं. सबसे बड़ी वाली उन्हीं के पास रहती थी. मंझली की शादी पास के कुरना गांव में हुई थी. तीसरी की शादी 120 किलोमीटर दूर राजनांदगांव के बनाबरस क्षेत्र के कुंजामटोला में हुई थी. गांव प्रमुख ने बताया कि हमारी संस्कृति में देवी-देवता पैदल ही कहीं आते-जाते हैं. बेटी को आने के लिए निमंत्रण दिया जाता है. वहां के लोग पैदल बेटी को लेकर आते हैं और पिता से मिलवाते हैं. कहते हैं कि बेटी, पिता से जब बीच नदी में मिलती हैं तो उनकी गोद में बैठ जाती हैं.

पढ़ें- अयोध्या में ऐसी दरगाह जहां लगती है 'भूतों की अदालत'

देवी का होता है स्वागत
गांव प्रमुख ने बताया कि हमारे देवता की बेटी हैं तो पूरे गांव की बेटी होती हैं. उसके स्वगात सत्कार में कोई कमी नहीं की जाती. जिस तरह मानवीय रिश्तों में स्वागत सत्कार होता है, वैसे ही इन देवताओं का भी होता है. रस्में निभाई जाती हैं. एक बुजुर्ग बताते हैं कि उनके गांव के देव 26 गांवों के देवता हैं और जो उनकी बेटी हैं वो 12 गांवों की बेटी हैं. ये परंपरा कब से शुरू हुई इसकी जानकारी नहीं है.

रो पड़ता है पूरा गांव
गांव के बुजुर्ग घनश्याम जुर्री बताते हैं नदी हमारे गांव की सीमा है. लंबी दूरी तय कर आई बेटी को लेने पिता इसी नदी में आते हैं. हमने हमेशा से यही परंपरा देखी है. जब बेटी अपने देव पिता से मिलने इतनी दूर से आती है तो गांववालों की आंखों में आंसू आ जाते हैं और विदाई के वक्त पूरा गांव रो पड़ता है. ये रस्म तीन-चार साल में एक बार होती है.

आदिवासियों के परगना और गोत्र में एक देव होता है, जिसे वो अपना पुरखा मानते हैं. वो एक लकड़ी का प्रतीक होता है, जिसकी वो पूजा करते हैं. इस डोली को गांववाले उठाते हैं. आदिवासियों ने अपने दिल में परंपराओं को बहुत खूबसूरती से सहेज रखा है. ये परंपरा उन्हीं में से एक है.

कांकेर: छत्तीसगढ़ बस्तर जितना अद्धभुत है, उतनी ही अनोखी हैं यहां की परंपराएं. यहां रहने वाले आदिवासियों ने रीति-रिवाजों को अपने आंगन में बचा रखा है. प्रकृति को पूजने वाले आदिवासियों ने संस्कृति को बहुत खूबसूरती से सहेजा है. इस जगह को देवी-देवताओं को गढ़ भी मानते हैं और इससे जुड़ी कई कहानियां प्रथाओं में नजर आती हैं. हम आपको आज ऐसी ही एक कहानी से रूबरू करा रहे हैं.

बस्तर के गांव और टोले में स्थानीय आदिवासियों के अपने देवी देवता होते हैं. जिस तरह मानवीय रिश्तो में मां-बाप, पति-पत्नी, भाई-बहन होते हैं ऐसे ही इन देवी-देवताओं में भी होता है. यह एक प्रतीक के रूप में होता है, जिसे आदिवासी अपना पुरखा भी कहते हैं. यहीं इनका विवाह होता है. मायका और ससुराल होता है. इन्हीं में एक देवी लहरी अपने पिता पटवन मुदिया देव से मिलने पहुंची. पूरी रीति-रिवाज के साथ उन्हें डोली में लाया गया और पिता से मिलवाया गया. इस दौरान गांववाले भावुक भी हुए.

120 किलोमीटर पैदल चल कर अपने पिता से मिलने आईं 'देवी'

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120 किलोमीटर दूर आई डोली
जिला मुख्यालय से 17 किलोमीटर दूरी पलेवा गांव में राजनांदगांव के बनाबरस क्षेत्र के कुंजामटोला से 120 किलोमीटर का पैदल सफर तय कर लहरी देवी अपने पिता से मिलने पहुंचीं थीं. इसमें उन्हें तीन दिन का समय लगा था. अपने बेटी को लेने गांव की सीमा से पांच किलोमीटर दूर पिता पटवन मुदिया महानदी के बीच गए. पिता और बेटी के इस मिलन को देखने के लिए बड़ी संख्या में गांववाले पहुंचे थे. ग्रामीण फूल-मालाओं के साथ नाचते-गाते पहुंचे थे.

120 किमी दूर हुई थी तीसरी बेटी की शादी
पलेवा गांव के प्रमुख ने बताया कि उनके गांव के देवता को पटवन मुदिया कहा जाता है. कहते हैं कि उनकी तीन बेटियां हैं. सबसे बड़ी वाली उन्हीं के पास रहती थी. मंझली की शादी पास के कुरना गांव में हुई थी. तीसरी की शादी 120 किलोमीटर दूर राजनांदगांव के बनाबरस क्षेत्र के कुंजामटोला में हुई थी. गांव प्रमुख ने बताया कि हमारी संस्कृति में देवी-देवता पैदल ही कहीं आते-जाते हैं. बेटी को आने के लिए निमंत्रण दिया जाता है. वहां के लोग पैदल बेटी को लेकर आते हैं और पिता से मिलवाते हैं. कहते हैं कि बेटी, पिता से जब बीच नदी में मिलती हैं तो उनकी गोद में बैठ जाती हैं.

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देवी का होता है स्वागत
गांव प्रमुख ने बताया कि हमारे देवता की बेटी हैं तो पूरे गांव की बेटी होती हैं. उसके स्वगात सत्कार में कोई कमी नहीं की जाती. जिस तरह मानवीय रिश्तों में स्वागत सत्कार होता है, वैसे ही इन देवताओं का भी होता है. रस्में निभाई जाती हैं. एक बुजुर्ग बताते हैं कि उनके गांव के देव 26 गांवों के देवता हैं और जो उनकी बेटी हैं वो 12 गांवों की बेटी हैं. ये परंपरा कब से शुरू हुई इसकी जानकारी नहीं है.

रो पड़ता है पूरा गांव
गांव के बुजुर्ग घनश्याम जुर्री बताते हैं नदी हमारे गांव की सीमा है. लंबी दूरी तय कर आई बेटी को लेने पिता इसी नदी में आते हैं. हमने हमेशा से यही परंपरा देखी है. जब बेटी अपने देव पिता से मिलने इतनी दूर से आती है तो गांववालों की आंखों में आंसू आ जाते हैं और विदाई के वक्त पूरा गांव रो पड़ता है. ये रस्म तीन-चार साल में एक बार होती है.

आदिवासियों के परगना और गोत्र में एक देव होता है, जिसे वो अपना पुरखा मानते हैं. वो एक लकड़ी का प्रतीक होता है, जिसकी वो पूजा करते हैं. इस डोली को गांववाले उठाते हैं. आदिवासियों ने अपने दिल में परंपराओं को बहुत खूबसूरती से सहेज रखा है. ये परंपरा उन्हीं में से एक है.

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