नई दिल्ली : 1990 की रथ यात्रा के दौरान लाल कृष्ण आडवाणी इतने अधिक लोकप्रिय थे, कि किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी उनका हश्र इस तरह हो जाएगा. न सिर्फ पार्टी, बल्कि संगठन पर भी उनकी जबरदस्त पकड़ थी. हां, जब पीएम बनने की बात आई, तो आडवाणी ने उस समय (1996) में अटल बिहारी वाजपेयी का नाम आगे किया. इसके पीछे यह सोच मानी जा रही थी कि वाजपेयी के नाम पर दूसरे दल के नेता भाजपा को समर्थन देने के लिए तैयार थे, लेकिन आडवाणी के नाम पर कई पार्टियों ने परहेज किया था. आडवाणी की छवि कट्टर मानी जाती थी. उस समय आडवाणी ने यह फैसला लिया कि वह वाजपेयी के नेतृत्व में आगे बढ़ेंगे.
लेकिन 2004 में जब वाजपेयी का स्वास्थ्य खराब हुआ, तब ऐसा माना जा रहा था कि अगर पार्टी फिर से सत्ता में आती है, तो अगला प्रधानमंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ही बनेंगे. दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ. भाजपा 2004 में चुनाव हार गई. पार्टी का नेतृत्व आडवाणी के पास ही रहा. दरअसल, उस समय आडवाणी के नेतृत्व को चुनौती देने के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था. पार्टी में यह बात सबको पता था कि किस तरह से आडवाणी ने भाजपा को चमत्कारिक सफलता दिलाई थी. उनकी बदौलत ही पार्टी को सत्ता हासिल हुई थी.
पर राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता है. 2004 और 2009 में भाजपा को लगातार हार का सामना करना पड़ा और दोनों ही बार पार्टी का नेतृत्व आडवाणी ही कर रहे थे. इस बीच कांग्रेस में राहुल गांधी को सामने लाने की पूरी तैयारी की जा रही थी. राहुल गांधी, मतलब कांग्रेस में नए नेतृत्व को मौका देना. भाजपा के अंदर भी नेतृत्व परिवर्तन को लेकर आवाज उठने लगी. पर सवाल यही था कि यह मुद्दा उठाए तो कौन उठाए. आडवाणी का कद इतना बड़ा था कि कोई भी इस मुद्दे को उनके सामने उठाने को तैयार नहीं था.
मीडिया रिपोर्ट में आप पाएंगे कि जैसे ही यह चर्चा चली कि नए नेतृत्व पर पार्टी को विचार करना चाहिए, उलटे आडवाणी भाजपा के अध्यक्ष बन गए. उनके लिए वेंकैया नायडू को पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा देना पड़ गया. किसी को भी यह अंदाजा नहीं था कि नए नेतृत्व की बात कैसे आगे बढ़ाई जाए. आडवाणी संगठन को बहुत ही करीब से जानते थे. लेकिन इसी दौरान उन्होंने एक बयान दिया, और सबकुछ आडवाणी के खिलाफ हो गया. राजनीतिक जानकार बताते हैं कि आडवाणी ने यह बयान जानबूझकर दिया था, जिससे कि उनकी कट्टर छवि थोड़ी नरम हो जाए. उन्होंने पाकिस्तान में जिन्ना के मजार पर जाकर उनकी तारीफ कर दी. कहा जाता है कि उन्होंने अपने राजनीतिक सलाहकार सुधींद्र कुलकर्णी के कहने पर यह बयान दिया था. यह दांव उलटा पड़ गया.
वरिष्ठ आलोचक एजी नूरानी ने बीबीसी को एक बयान दिया था. इसमें उन्होंने कहा था कि दरअसल, आडवाणी, 'वाजपेयी' बनना चाहते थे, लेकिन वह सफल नहीं हुए. इसके बाद चारों तरफ से नेतृत्व बदलने की मांग शुरू हो गई.
2013 में गोवा राष्ट्रीय अधिवेशन में पार्टी ने नरेंद्र मोदी को प्रचार समिति का अध्यक्ष नियुक्त करने का फैसला किया. इस बैठक में आडवाणी, जसवंत सिंह और उमा भारती नहीं पहुंची थीं. उस समय पार्टी अध्यक्ष की कमान राजनाथ के पास थी. आडवाणी चाहते थे कि भाजपा को मोदी का नाम आगे नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे पार्टी को वोट हासिल करने में दिक्कत होगी. आडवाणी चाहते थे कि चुनाव के बाद नेतृत्व चुनने का फैसला हो. उनका यह भी मानना था कि मोदी का नाम सामने आने पर, यूपीए के मंहगाई और भ्रष्टाचार पर चर्चा नहीं होगी. 2002 के गुजरात दंगों के लोकर मोदी का नाम घसीटा जा रहा था. पर पार्टी ने यह तय कर लिया था और नेतृत्व मोदी के साथ खड़ा हो गया. आडवाणी ने पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे दिया था. तब उन्हें मनाने के लिए राजनाथ सिंह और मोहन भागवत गए थे. वैसे, कहा जाता है कि मोदी तो 2012 से ही सोशल मीडिया पर एक्टिव हो गए थे. उन्होंने अपने आप को प्रोजेक्ट करना शुरू कर दिया था. वह बार-बार गुजरात मॉडल का जिक्र किया करते थे.
ये भी पढ़ें : Journey of BJP : भाजपा की राजनीतिक यात्रा, दो से 303 तक का 'सफर'