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यूपी की सत्ता दिलाते हैं दलित वोटर, 2022 में किसका साथ देंगे ? - dalit vote percentage in up

चुनाव भले ही लोकसभा का हो या विधानसभा का. भारत में जब भी चुनावी चर्चा होती है तो जाति समीकरण हर स्तर पर तलाशे जाते हैं. अभी देश के सबसे बड़े सूबे उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव के कारण जातियों की खोजबीन फिर शुरू हो गई है. पहले उत्तरप्रदेश के ब्राह्मण वोटों की पड़ताल हुई. मगर जब पंजाब में दलित मुख्यमंत्री बनाए गए तो यूपी के चुनावी विमर्श में दलित वोटरों के समीकरण पर चर्चा गरम हो गई. तो आप भी जानिए उत्तरप्रदेश में दलित वोटरों के बारे में, जो कभी मुस्लिम और तो ओबीसी के साथ प्रदेश में सरकार का स्वरूप तय करते रहे.

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Published : Sep 23, 2021, 8:07 PM IST

हैदराबाद : उत्तरप्रदेश में दलित वोट किस हद निर्णायक है, यह समझने के लिए यह जानना ही काफी है कि उत्तर प्रदेश में करीब 20.7 फीसदी दलित आबादी है. मतदाताओं को तौर पर इनकी हिस्सेदारी करीब 21 प्रतिशत है. क्षेत्रीय आधार पर देखे तो ये बुंदेलखंड की कुल आबादी में 25 पर्सेंट दलित हैं. दोआब-अवध में दलितों की आबादी 26 पर्सेंट और पूर्वी यूपी में 22 पर्सेंट है. वेस्टर्न यूपी में भी जाटव विरादरी की धमक करीब 12 सीटों पर है. आंकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश में 42 ऐसे जिले हैं, जहां दलितों की संख्या 20 प्रतिशत से अधिक है.

जाटव बीएसपी और पासी बीजेपी के वोटर! : यूपी में दलितों की प्रमुख जातियां जाटव, वाल्मीकि, धोबी, कोरी और पासी है. दलितों में करीब 66 उपजातियां हैं. इनमें 55 ऐसी उपजातियां हैं, जिनका संख्या बल ज्यादा नहीं हैं. मुसहर, बसोर, सपेरा और रंगरेज का वोट शेयर नगण्य है. उप जातियों में जाटव 56 प्रतिशत, पासी 16 प्रतिशत, धोबी, कोरी और वाल्मीकि 15 प्रतिशत हैं. गोंड, धानुक और खटीक 5 फीसद हैं. 21 फीसदी कुल दलित आबादी में करीब 11 फीसदी जाटव और 10 फीसदी गैर-जाटव वोटर हैं. जाटव बहुजन समाज पार्टी के परंपरागत वोटर रहे हैं. गैर जाटव वोट बीजेपी को मिलते रहे हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में परंपरा टूटी मगर 2019 में जाटव फिर बीएसपी के पास लौट गए. दलितों में जाटव के बाद दूसरे नंबर पर पासी जाति आती है, जो खासकर सेंट्रल यूपी में सियासी तौर पर काफी प्रभावी मानी जाती है. पासी अब बीजेपी के वोटर बन चुके हैं.

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सुरक्षित सीट पर बंपर समर्थन के कारण ये नेता सीएम की कुर्सी तक आसानी से पहुंच गए.

यूपी की सत्ता सुरक्षित सीटों पर जीत में टिकी है : यूपी की 80 लोकसभा सीटों में से 17 अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. 2017 के चुनाव में 86 विधानसभा सीटें रिजर्व थीं, जिनमें से 76 पर बीजेपी ने ही जीत दर्ज की थी . 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने 89 सुरक्षित सीटों में से 62 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत की सरकार बना ली थी. 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा ने 58, बसपा ने 15 और भाजपा ने सिर्फ 3 सीटों पर जीत हासिल की थी. तब समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने थे. 2 सीट एसटी (अनुसूचित जनजाति) के लिए आरक्षित थीं. बीजेपी ने 2014 में लोकसभा की 17 रिजर्व सीटों नगीना, बुलंदशहर, आगरा, शाहजहांपुर, हरदोई, मिश्रिख, मोहनलालगंज, इटावा, जालौन, कौशांबी, बाराबंकी, बहराइच,बांसगांव, लालगंज, मछलीशहर, रॉबर्ट्सगंज पर जीत दर्ज की थी. 2019 के आम चुनाव में इनमें से 6 सीटें बीएसपी के खाते में चली गई.

जाटव बनाम गैर जाटव पॉलिटिक्स : घटना 2006 की है. मायावती ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में ऐलान किया कि उनका उत्तराधिकारी जाटव बिरादरी से ही होगा. तभी बीजेपी ने इस बयान को लपक लिया और गैर जाटव दलितों के बीच अपनी पैठ बढ़ा दी. 2007 में तो बीएसपी ने 30.43 फीसदी वोटों हासिल कर सरकार बना ली मगर वक्त के साथ गैर जाटव उससे दूर होकर बीजेपी के करीबी होते गए. 2017 में बीएसपी को कुल 23 फीसदी वोट ही मिले. सीएसडीएस की रिपोर्ट्स के मुताबिक, 1971 में जनसंघ को यूपी में10 फीसदी दलित वोट मिला था, जो 2014 तक 24 फीसदी पहुंच गया. बसपा को 2004 में 24 फीसदी वोट मिले थे, जो 2014 में घटकर14 फीसदी हो गया. कांग्रेस को 70 के दशक में 46 पर्सेंट दलित वोट मिलते थे, 2014 में घटकर19 पर्सेंट हो गया.

dalit politics in Uttar Pradesh
वेस्टर्न यूपी में दिख सकती है चंद्रशेखर आजाद का दम.

दलित वोट के लिए कई नेता मैदान में : राष्ट्रीय दल जैसे बीजेपी, कांग्रेस दलित वोटरों को लुभा ही रहे हैं. पीएम मोदी ने मंत्रिमंडल विस्तार में दलित समुदाय के तीन मंत्री बनाए थे. दूसरे राज्यों के दलित नेता जैसे रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के नेता रामदास अठावले भी यूपी में नजर गड़ाए बैठे हैं. अगर उनकी पार्टी उत्तरप्रदेश में एक सीट भी जीत जाती है तो दलित नेता के तौर पर उनकी राष्ट्रीय स्वीकृति हो सकती है. पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान भी यूपी में अपनी सियासी पिच की तलाश करते रहे.

चंद्रशेखर आजाद की पार्टी का बढ़ा है कद : अब आजाद समाज पार्टी के मुखिया और भीम आर्मी के चीफ चंद्रशेखर आजाद ने भी मोर्चा संभाला है. बीएसपी के गढ़ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर आजाद की पार्टी ने पंचायत चुनाव में 40 से ज्यादा सीटों पर कब्जा किया था. उन्होंने आईएमएआईएम और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ गठबंधन किया है. अगर उनका जादू चल गया तो दलित वोट के लिए सभी दलों को नया प्लान बनाना होगा. अगर आजाद समाज पार्टी ने 2 या 3 प्रतिशत वोट भी हासिल किया तो इसका नुकसान बीएसपी को होना तय है.

हैदराबाद : उत्तरप्रदेश में दलित वोट किस हद निर्णायक है, यह समझने के लिए यह जानना ही काफी है कि उत्तर प्रदेश में करीब 20.7 फीसदी दलित आबादी है. मतदाताओं को तौर पर इनकी हिस्सेदारी करीब 21 प्रतिशत है. क्षेत्रीय आधार पर देखे तो ये बुंदेलखंड की कुल आबादी में 25 पर्सेंट दलित हैं. दोआब-अवध में दलितों की आबादी 26 पर्सेंट और पूर्वी यूपी में 22 पर्सेंट है. वेस्टर्न यूपी में भी जाटव विरादरी की धमक करीब 12 सीटों पर है. आंकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश में 42 ऐसे जिले हैं, जहां दलितों की संख्या 20 प्रतिशत से अधिक है.

जाटव बीएसपी और पासी बीजेपी के वोटर! : यूपी में दलितों की प्रमुख जातियां जाटव, वाल्मीकि, धोबी, कोरी और पासी है. दलितों में करीब 66 उपजातियां हैं. इनमें 55 ऐसी उपजातियां हैं, जिनका संख्या बल ज्यादा नहीं हैं. मुसहर, बसोर, सपेरा और रंगरेज का वोट शेयर नगण्य है. उप जातियों में जाटव 56 प्रतिशत, पासी 16 प्रतिशत, धोबी, कोरी और वाल्मीकि 15 प्रतिशत हैं. गोंड, धानुक और खटीक 5 फीसद हैं. 21 फीसदी कुल दलित आबादी में करीब 11 फीसदी जाटव और 10 फीसदी गैर-जाटव वोटर हैं. जाटव बहुजन समाज पार्टी के परंपरागत वोटर रहे हैं. गैर जाटव वोट बीजेपी को मिलते रहे हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में परंपरा टूटी मगर 2019 में जाटव फिर बीएसपी के पास लौट गए. दलितों में जाटव के बाद दूसरे नंबर पर पासी जाति आती है, जो खासकर सेंट्रल यूपी में सियासी तौर पर काफी प्रभावी मानी जाती है. पासी अब बीजेपी के वोटर बन चुके हैं.

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सुरक्षित सीट पर बंपर समर्थन के कारण ये नेता सीएम की कुर्सी तक आसानी से पहुंच गए.

यूपी की सत्ता सुरक्षित सीटों पर जीत में टिकी है : यूपी की 80 लोकसभा सीटों में से 17 अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं. 2017 के चुनाव में 86 विधानसभा सीटें रिजर्व थीं, जिनमें से 76 पर बीजेपी ने ही जीत दर्ज की थी . 2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा ने 89 सुरक्षित सीटों में से 62 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत की सरकार बना ली थी. 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा ने 58, बसपा ने 15 और भाजपा ने सिर्फ 3 सीटों पर जीत हासिल की थी. तब समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने थे. 2 सीट एसटी (अनुसूचित जनजाति) के लिए आरक्षित थीं. बीजेपी ने 2014 में लोकसभा की 17 रिजर्व सीटों नगीना, बुलंदशहर, आगरा, शाहजहांपुर, हरदोई, मिश्रिख, मोहनलालगंज, इटावा, जालौन, कौशांबी, बाराबंकी, बहराइच,बांसगांव, लालगंज, मछलीशहर, रॉबर्ट्सगंज पर जीत दर्ज की थी. 2019 के आम चुनाव में इनमें से 6 सीटें बीएसपी के खाते में चली गई.

जाटव बनाम गैर जाटव पॉलिटिक्स : घटना 2006 की है. मायावती ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में ऐलान किया कि उनका उत्तराधिकारी जाटव बिरादरी से ही होगा. तभी बीजेपी ने इस बयान को लपक लिया और गैर जाटव दलितों के बीच अपनी पैठ बढ़ा दी. 2007 में तो बीएसपी ने 30.43 फीसदी वोटों हासिल कर सरकार बना ली मगर वक्त के साथ गैर जाटव उससे दूर होकर बीजेपी के करीबी होते गए. 2017 में बीएसपी को कुल 23 फीसदी वोट ही मिले. सीएसडीएस की रिपोर्ट्स के मुताबिक, 1971 में जनसंघ को यूपी में10 फीसदी दलित वोट मिला था, जो 2014 तक 24 फीसदी पहुंच गया. बसपा को 2004 में 24 फीसदी वोट मिले थे, जो 2014 में घटकर14 फीसदी हो गया. कांग्रेस को 70 के दशक में 46 पर्सेंट दलित वोट मिलते थे, 2014 में घटकर19 पर्सेंट हो गया.

dalit politics in Uttar Pradesh
वेस्टर्न यूपी में दिख सकती है चंद्रशेखर आजाद का दम.

दलित वोट के लिए कई नेता मैदान में : राष्ट्रीय दल जैसे बीजेपी, कांग्रेस दलित वोटरों को लुभा ही रहे हैं. पीएम मोदी ने मंत्रिमंडल विस्तार में दलित समुदाय के तीन मंत्री बनाए थे. दूसरे राज्यों के दलित नेता जैसे रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के नेता रामदास अठावले भी यूपी में नजर गड़ाए बैठे हैं. अगर उनकी पार्टी उत्तरप्रदेश में एक सीट भी जीत जाती है तो दलित नेता के तौर पर उनकी राष्ट्रीय स्वीकृति हो सकती है. पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान भी यूपी में अपनी सियासी पिच की तलाश करते रहे.

चंद्रशेखर आजाद की पार्टी का बढ़ा है कद : अब आजाद समाज पार्टी के मुखिया और भीम आर्मी के चीफ चंद्रशेखर आजाद ने भी मोर्चा संभाला है. बीएसपी के गढ़ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर आजाद की पार्टी ने पंचायत चुनाव में 40 से ज्यादा सीटों पर कब्जा किया था. उन्होंने आईएमएआईएम और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ गठबंधन किया है. अगर उनका जादू चल गया तो दलित वोट के लिए सभी दलों को नया प्लान बनाना होगा. अगर आजाद समाज पार्टी ने 2 या 3 प्रतिशत वोट भी हासिल किया तो इसका नुकसान बीएसपी को होना तय है.

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