हैदराबाद : मलत्याग को हाथ से साफ करना का एक बहुत ही अपमानजनक काम है, जो किसी व्यक्ति से उसका इंसान होने का हक छीन लेता है. इस कार्य को करने में कुछ भी पुन्यमय नहीं है. भारतीय संविधान के वास्तुकार डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर ने चेतावनी दी थी. भंगी झाड़ू छोडो का नारा देते हुए उन्होंने मैला ढोने के कार्य का तुरंत बहिष्कार करने का आह्वान किया था. उन्होंने इस वीभत्स पेशे के महिमामंडित करने की धारणा का पुरजोर खंडन किया था. दशकों बीत जाने के बाद आज भी भारत में हाथ से मैला ढोने वालों को रोजगार पर रखा जा रहा है.
हाथ से मैला ढोने के खिलाफ बने कानून भी इसे खत्म करने के लिए नाकाफी साबित हुए हैं. 2013 में, केंद्र ने हाथ से मैला सफाईकर्मी कार्य का प्रतिषेध एवं उनका पुनर्वास विधेयक के प्रारूपित किया लेकिन यह अभी भी इसे पूरी ताक़त से लागू होना बाकी है. सरकार संसद के मानसून सत्र में हाथ से मैला सफाईकर्मी कार्य (मैनुअल स्केवेंजरों) का प्रतिषेध एवं उनका पुनर्वास (संशोधन) विधेयक 2020 पेश करने की योजना बना रही है. वर्तमान में, सीवर और सेप्टिक टैंकों की खतरनाक सफाई के कार्य के लिए किसी व्यक्ति को नियुक्त करने वाला व्यक्ति या एजेंसी को 5 साल तक के कारावास या 5 लाख रुपये तक का जुर्माना या दोनों का प्रावधान है. केंद्र नए विधेयक में इसके लिए और कठोर दंड पर विचार कर रहा है.
समाज के दलित तबकों को इंसानी मलत्याग को साफ करने की जिम्मेदारी सौंप दी गई है. शौचालय की प्रणाली में तो बदलाव आ गया है लेकिन इस समाज के हिस्से के हालात में कोई तब्दीली नहीं हुई. वे पीढ़ी दर पीढ़ी, सेप्टिक टैंक, नाला और मैनहोल की सफाई का अपमानजनक काम करते चले आ रहे हैं. मलत्याग की सफाई का काम करते हुए हर साल सैकड़ों सफाई कर्मचारी अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं. सिर्फ 2019 में, 119 कर्मचारियों ने अपनी जान गंवा दी. 2016 से 2019 के बीच, देश भर में 282 सफाई कर्मचारियों की मौत सेप्टिक टैंक और सीवर की सफाई करते समय हुई है.
सफाई कर्माचारी आन्दोलन ने आरोप लगाया है कि ये आंकड़े पुलिस थानों में रिपोर्ट किए गए हैं और वास्तविक संख्या इससे बहुत अधिक है. राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग (एनसीएसके), जो सफाई कर्मचारियों के कल्याण को ध्यान में रखकर गठित एक सांविधिक निकाय है, ने खुलासा किया है कि जनवरी और अगस्त 2017 के बीच सेप्टिक टैंक और मैनहोल में सफाई करते समय 127 श्रमिकों की मौत हो गई थी. लेकिन सफाई कर्माचारी आन्दोलन के अनुमानों के अनुसार, 429 सफाई कर्मचारियों की मृत्यु केवल राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में इसी समय के दौरान हुई है.
1993 में ही, केंद्र ने सफाई कर्मचारी नियोजन और शुष्क शौचालय सन्निर्माण (प्रतिषेध) अधिनियम, 1993 को पारित कर दिया था. लेकिन राज्य सरकारों ने इसके अस्तित्व को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया. सफाई कर्मचारी आन्दोलन के राष्ट्रीय संयोजक और रमन मैग्सेसे अवार्डी बेजवाड़ा विल्सन का कहना है कि 2013 अधिनियम भी सफाई कर्मचारियों के पुनर्वास के बारे में स्पष्ट दिशानिर्देश प्रदान नहीं करता है. जब इस अधिनियम को पहली बार पेश किया गया था, तो सरकार ने सफाई कर्मचारियों को हाथ से मैला ढोने के काम पर लगाने पर प्रतिबंध लगाने और उनके पुनर्वास करने का प्रस्ताव दिया था. परियोजना की कुल लागत 4,825 करोड़ रुपये थी, जिसे अधिनियम लागू करने के 9 महीने के भीतर खर्च किया जाना था, उक्त निधियों को आवंटित करने में विफलता अधिनियम की विफलता का एक प्रमुख कारण बन गई.
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नीति आयोग द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार, अनुमानित रूप से, देश के 18 राज्यों और 170 जिलों में 54,130 लोग सफाई कर्मचारी के तौर पर काम कर रहे हैं. केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले ने ये आंकड़े राज्य सभा सत्र में पेश किए. लेकिन जमीनी स्तर के कर्मचारियों का दावा है कि श्रमिकों की वास्तविक संख्या लाखों में हो सकती है. 2011 की जनगणना ने निष्कर्ष निकाला कि हमारे देश में 21 लाख शुष्क शौचालय थे, जिन्हें हाथ से सफाई किए जाने की आवश्यकता थी. सामाजिक न्याय मंत्रालय ने खुलासा किया है कि 1992 में सफाई कर्मचारियों की संख्या 5.88 लाख से बढ़कर 2002-03 में 6.76 लाख हो गई थी. बाद के वर्षों में यह संख्या 8 लाख तक पहुंच जाने का अनुमान है.
केंद्र सरकार ने मौजूदा मलप्रवाह- पद्धति को आधुनिक बनाने और यंत्रीकृत स्वच्छता गतिविधियों को शुरू करने की योजना बनाई है. इसे पूरी तरह से खत्म करने के लिए, स्थानीय संगठनों को अच्छी तरह से तैयार होना चाहिए और नागरिकों को भी शिक्षित होने की जरूरत है. इस बार, संशोधित अधिनियम को इस सामाजिक अन्यायपूर्ण कार्य को प्रतिबंधित करने के लिए न केवल पर्याप्त तौर पर सख्त होना चाहिए, साथ ही इसे एक अटल और अडिग दृष्टिकोण के साथ लागू किया जाना चाहिए.