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लॉकडाउन : सड़क दुर्घटना में प्रवासी श्रमिकों की मौत, जिम्मेवार कौन ?

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Published : May 13, 2020, 10:02 AM IST

महाराष्ट्र के औरंगाबाद में बीते शुक्रवार को हुई घटना में 16 मजदूरों की मौत ने पूरे देश को हिला कर रख दिया. यह मजदूर लॉकडाउन में रोजगार छिन जाने के बाद महाराष्ट्र से पैदल ही अपने गृह राज्य मध्य प्रदेश जा रहे थे. ऐसे में प्रवासी मजदूरों को उनके घर पहुंचाने की जिम्मेदारी किसकी है. या फिर इन परिवारों की जिम्मेदारी किसकी होगी जिनकी मौत घर जाते समय हो रही है.

प्रवासी मजदूर
प्रवासी मजदूर

नई दिल्ली : महाराष्ट्र के औरंगाबाद में बीते शुक्रवार को हुई घटना में 16 मजदूरों की मौत ने पूरे देश को हिला कर रख दिया. यह मजदूर लॉकडाउन में रोजगार छिन जाने के बाद महाराष्ट्र से पैदल ही अपने गृह राज्य मध्य प्रदेश जा रहे थे. रेल पटरियों के साथ चले ये प्रवासी मजदूर जब थक कर चूर हो गए तो पटरियों पर ही सो गए और एक मालगाड़ी इनको कुचलती हुई निकल गई.

जब यह खबर सुर्खियों में आई तो रेल मंत्रालय ने आनन-फानन में इस पर जांच गठित करने की घोषणा की. महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश दोनों राज्य की सरकारों ने मृतक मजदूरों के परिवार को पांच-पांच लाख रुपये की सहायता राशि देने की घोषणा की, लेकिन लॉकडाउन की घोषणा के बाद यह पहली घटना नहीं थी जब किसी प्रवासी मजदूर की मौत दुर्घटना की वजह से हुई हो.

लॉकडाउन के दौरान अब तक प्राप्त आंकड़ों में लगभग 145 लोगों की मौतें हुई हैं, जिनमें से कम से कम 50 लोग प्रवासी मजदूर थे. शुक्रवार को औरंगाबाद की घटना के अगले दिन शनिवार को ही मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर में एक सड़क दुर्घटना में पांच प्रवासी मजदूरों की मौत हो गई, जबकि 13 अन्य मजदूर घायल हो गए. यह सभी मजदूर आम से भरे एक ट्रक से तेलंगाना से अपने गृह राज्य उत्तर प्रदेश जा रहे थे.

सोमवार को भी अलग अलग घटनाओं में पांच प्रवासी मजदूरों की मौत हो गई. उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में दो प्रवासी मजदूरों की मौत ट्रक पलटने से हो गई. यह मजदूर तेलंगाना से चले थे और रास्ते में ट्रक से लिफ्ट लिया था. वहीं हरियाणा से बिहार के लिए चले एक मजदूर की मौत कार से टक्कर लगने से हो गई, तो उत्तर प्रदेश के रायबरेली में 25 वर्षीय शिवकुमार दास की मौत भी एक सड़क दुर्घटना में हो गई. शिवकुमार उत्तरप्रदेश के बुलंदशहर स्थित अपने घर के लिए चले थे.

बीते शुक्रवार को ही 26 वर्षीय शागिर अंसारी की मौत भी सड़क दुर्घटना में हो गई. वह दिल्ली से नौ मई को साइकिल से बिहार के पूर्वी चंपारण स्थित अपने घर के लिए निकले थे.

शागिर अंसारी मजदूरी कर अपना परिवार चलाते थे और उनकी मौत के बाद अब उनकी पत्नी और तीन छोटे बच्चों के पास कोई सहारा नहीं है.

बिहार बेगूसराय के रहने वाले रामजी महतो की कहानी भी पूरे देश के सामने है जो तीन अप्रैल को दिल्ली से बिहार के लिये पैदल निकले, लेकिन 850 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर बनारस पहुंचे महतो ने वहीं दम तोड़ दिया. रामजी महतो के परिजन आर्थिक तंगी के कारण उसका अंतिम संस्कार करने तक भी नहीं आ सके और अंततः यह काम स्थानीय पुलिस के द्वारा कराया गया.

पढ़ें : 24 घंटे में आए 3,525 नए केस, 74 हजार से ज्यादा संक्रमित

छत्तीसगढ़ के बीजापुर की रहने वाली 12 वर्षीय युवती जामलो मकदम तेलंगाना में मिर्च की खेती में मजदूरी करती थी. लॉकडाउन के बाद काम बंद हो गया तो 11 अन्य मजदूरों के साथ पैदल ही तेलंगाना छत्तीसगढ़ की तरफ चल पड़ी. दो दिन में 150 किलोमीटर पैदल चलने के बाद मकदम की तबियत बिगड़ी और उसने दम तोड़ दिया. बाद में छत्तीसगढ़ सरकार ने जामलो मकदम के परिवार के लिए एक लाख रुपये की सहायता राशी की घोषणा की.

ऐसे तमाम मामले सामने आए हैं और सामाजिक कार्यकर्ताओं, संगठनों और विपक्षी पार्टियों ने लगातार मांग रखी है कि प्रवासी मजदूरों को उनके गृह राज्य पहुंचाने की पूरी व्यवस्था करना सरकार की जिम्मेदारी है और यह जल्द किया जाना चाहिए, लेकिन उनका आरोप है कि सरकारों ने निर्णय लेने में पर्याप्त देरी की है.

आरएसएस की मजदूर इकाई भारतीय मजदूर संघ के राष्ट्रीय महासचिव विरजेश उपाध्याय ने ईटीवी भारत से बातचीत में कहा कि श्रम मंत्री और गृहमंत्री से हुई उनकी मुलाकात के दौरान उन्होंने प्रवासी मजदूरों के विषय को उनके सामने रखा है और इस बाबत ज्ञापन भी सौंपा है. जिन मजदूरों की जान गई है उसकी कोई भरपाई नहीं की जा सकती, लेकिन सरकार को उनके परिवार के लिये निश्चित रूप से सोचना चाहिए.

लॉकडाउन के पहले चरण से ही मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने भी मजदूरों के मुद्दे को लगातार सरकार के सामने रखा है और माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति को लिखे अपने पत्र में भी कई सुझाव और मांग रखे, लेकिन उनका यह आरोप रहा है कि सरकार ने इस संकट के समय में भी विपक्ष की आवाज को अनसुना ही किया है.

हालांकि औरंगाबाद घटना के बाद महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश की राज्य सरकारों ने सभी मृतक मजदूरों के परिवार के लिए सहायता राशि की घोषणा की, लेकिन अब सवाल है कि क्या इसी तर्ज पर बाकी राज्य सरकारों को भी मृतक मजदूरों के परिवार की जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए

पढ़ें : प्रधानमंत्री मोदी ने दी देश को 20 लाख करोड़ के विशेष आर्थिक पैकेज की सौगात

अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव हनन मोल्ला का कहना है कि इन मजदूरों की मौत सरकार द्वारा पैदा की गई परिस्थितियों के कारण हुई है और इसलिए सरकार को ही इसकी पूरी जिम्मेदारी लेनी चाहिए.

'अभी हाल में स्पेशल ट्रेन शुरू की गई, लेकिन उस ट्रेन तक पहुंचने की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि एक मजदूर आदमी उस प्रक्रिया को पूरा नहीं कर पायेगा. उसके बाद सरकार 40 दिन से बेरोजगार बैठे मजदूरों से किराया भी वसूलेगी, हम लॉकडाउन के पहले चरण से ही ये मांग करते रहे हैं कि प्रवासी मजदूरों को घर पहुंचाने की निःशुल्क व्यवस्था सरकार को करनी चाहिए और उनको आर्थिक मदद भी दी जानी चाहिए, लेकिन सरकार कि नीतियां बिल्कुल भी गरीब और मजदूर हितैषी नहीं है.'

हनन मोल्ला का कहना है कि लॉकडाउन के दौरान जिन मजदूरों की भी मौत हुई है उनके परिवारों को कम से कम पांच लाख रुपये की आर्थिक मदद सरकार के तरफ से मिलनी चाहिये.

सीपीआईएम के महासचिव सीताराम येचुरी ने अपने सुझाव समय समय पर प्रेषित किए हैं, जिसमें मजदूरों को डीबीटी के माध्यम से उनके खाते में पैसे पहुंचाने की बात भी कही गई थी.

हालांकि अब सरकार ने स्पेशल ट्रेन चला कर मजदूरों को उनके गृह राज्य पहुंचाने की शुरुआत की है, लेकिन इसके बावजूद अभी भी मजदूर सड़क मार्ग का रुख कर रहे हैं. जानकार बताते हैं कि उनके लिए ट्रेन बुकिंग की जटिल प्रक्रिया को पाट पाना और टिकट का किराया भर पाना संभव नहीं है. इसके साथ ही मजदूरों की संख्या लाखों में है और ऐसे में लंबा इंतजार करने का धैर्य भी बेरोजगार हो चुके मजदूर खो चुके हैं.

ज्यादातर राज्यों ने सीमित संख्या और आवश्यक दिशानिर्देशों के साथ धीरे धीरे उद्योग शुरू करने की अनुमति भी दे दी है और ऐसे में मजदूरों को वापस काम पर जाने का मौका भी मिल सकता है लेकिन इसके बावजूद मजदूर अब अपने घर जाना चाहते हैं.

दिल्ली के अलग अलग औद्योगिक क्षेत्रों में मजदूरों के भोजन और राशन की व्यवस्था करने वाले कुछ स्वयंसेवकों का कहना है कि कोरोना महामारी ने इन मजदूरों को तोड़ कर रख दिया है. उनके भीतर असुरक्षा की भावना है और वो डरे हुए हैं. ऐसे में उनके गांव से भी परिवार वाले घर बुला रहे हैं और वो खुद भी अब अपने घर ही वापस जाना चाहते हैं. लॉकडाउन में हुई दुर्दशा के कारण अब उनमें और धैर्य नहीं रहा और वो किसी भी साधन से बस अपने घर ही पहुंचना चाहते हैं. यही कारण है कि कुछ साइकिल तो कुछ ट्रकों में छिप कर जाने का प्रयास करते हैं और कितने मजदूर तो पैदल ही निकल पड़े.

तीसरे चरण का लॉकडाउन 17 मई को खत्म होना है, लेकिन कोरोना मरीजों की बढ़ती संख्या को देखते हुए कुछ राहत के बावजूद भी लॉकडाउन बढ़ाए जाने की संभावना है. ऐसे में प्रवासी मजदूरों को अब आगे काम की उम्मीद नहीं बल्कि केवल अपने घर पहुंचने की चाह है.

नई दिल्ली : महाराष्ट्र के औरंगाबाद में बीते शुक्रवार को हुई घटना में 16 मजदूरों की मौत ने पूरे देश को हिला कर रख दिया. यह मजदूर लॉकडाउन में रोजगार छिन जाने के बाद महाराष्ट्र से पैदल ही अपने गृह राज्य मध्य प्रदेश जा रहे थे. रेल पटरियों के साथ चले ये प्रवासी मजदूर जब थक कर चूर हो गए तो पटरियों पर ही सो गए और एक मालगाड़ी इनको कुचलती हुई निकल गई.

जब यह खबर सुर्खियों में आई तो रेल मंत्रालय ने आनन-फानन में इस पर जांच गठित करने की घोषणा की. महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश दोनों राज्य की सरकारों ने मृतक मजदूरों के परिवार को पांच-पांच लाख रुपये की सहायता राशि देने की घोषणा की, लेकिन लॉकडाउन की घोषणा के बाद यह पहली घटना नहीं थी जब किसी प्रवासी मजदूर की मौत दुर्घटना की वजह से हुई हो.

लॉकडाउन के दौरान अब तक प्राप्त आंकड़ों में लगभग 145 लोगों की मौतें हुई हैं, जिनमें से कम से कम 50 लोग प्रवासी मजदूर थे. शुक्रवार को औरंगाबाद की घटना के अगले दिन शनिवार को ही मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर में एक सड़क दुर्घटना में पांच प्रवासी मजदूरों की मौत हो गई, जबकि 13 अन्य मजदूर घायल हो गए. यह सभी मजदूर आम से भरे एक ट्रक से तेलंगाना से अपने गृह राज्य उत्तर प्रदेश जा रहे थे.

सोमवार को भी अलग अलग घटनाओं में पांच प्रवासी मजदूरों की मौत हो गई. उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में दो प्रवासी मजदूरों की मौत ट्रक पलटने से हो गई. यह मजदूर तेलंगाना से चले थे और रास्ते में ट्रक से लिफ्ट लिया था. वहीं हरियाणा से बिहार के लिए चले एक मजदूर की मौत कार से टक्कर लगने से हो गई, तो उत्तर प्रदेश के रायबरेली में 25 वर्षीय शिवकुमार दास की मौत भी एक सड़क दुर्घटना में हो गई. शिवकुमार उत्तरप्रदेश के बुलंदशहर स्थित अपने घर के लिए चले थे.

बीते शुक्रवार को ही 26 वर्षीय शागिर अंसारी की मौत भी सड़क दुर्घटना में हो गई. वह दिल्ली से नौ मई को साइकिल से बिहार के पूर्वी चंपारण स्थित अपने घर के लिए निकले थे.

शागिर अंसारी मजदूरी कर अपना परिवार चलाते थे और उनकी मौत के बाद अब उनकी पत्नी और तीन छोटे बच्चों के पास कोई सहारा नहीं है.

बिहार बेगूसराय के रहने वाले रामजी महतो की कहानी भी पूरे देश के सामने है जो तीन अप्रैल को दिल्ली से बिहार के लिये पैदल निकले, लेकिन 850 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर बनारस पहुंचे महतो ने वहीं दम तोड़ दिया. रामजी महतो के परिजन आर्थिक तंगी के कारण उसका अंतिम संस्कार करने तक भी नहीं आ सके और अंततः यह काम स्थानीय पुलिस के द्वारा कराया गया.

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छत्तीसगढ़ के बीजापुर की रहने वाली 12 वर्षीय युवती जामलो मकदम तेलंगाना में मिर्च की खेती में मजदूरी करती थी. लॉकडाउन के बाद काम बंद हो गया तो 11 अन्य मजदूरों के साथ पैदल ही तेलंगाना छत्तीसगढ़ की तरफ चल पड़ी. दो दिन में 150 किलोमीटर पैदल चलने के बाद मकदम की तबियत बिगड़ी और उसने दम तोड़ दिया. बाद में छत्तीसगढ़ सरकार ने जामलो मकदम के परिवार के लिए एक लाख रुपये की सहायता राशी की घोषणा की.

ऐसे तमाम मामले सामने आए हैं और सामाजिक कार्यकर्ताओं, संगठनों और विपक्षी पार्टियों ने लगातार मांग रखी है कि प्रवासी मजदूरों को उनके गृह राज्य पहुंचाने की पूरी व्यवस्था करना सरकार की जिम्मेदारी है और यह जल्द किया जाना चाहिए, लेकिन उनका आरोप है कि सरकारों ने निर्णय लेने में पर्याप्त देरी की है.

आरएसएस की मजदूर इकाई भारतीय मजदूर संघ के राष्ट्रीय महासचिव विरजेश उपाध्याय ने ईटीवी भारत से बातचीत में कहा कि श्रम मंत्री और गृहमंत्री से हुई उनकी मुलाकात के दौरान उन्होंने प्रवासी मजदूरों के विषय को उनके सामने रखा है और इस बाबत ज्ञापन भी सौंपा है. जिन मजदूरों की जान गई है उसकी कोई भरपाई नहीं की जा सकती, लेकिन सरकार को उनके परिवार के लिये निश्चित रूप से सोचना चाहिए.

लॉकडाउन के पहले चरण से ही मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने भी मजदूरों के मुद्दे को लगातार सरकार के सामने रखा है और माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति को लिखे अपने पत्र में भी कई सुझाव और मांग रखे, लेकिन उनका यह आरोप रहा है कि सरकार ने इस संकट के समय में भी विपक्ष की आवाज को अनसुना ही किया है.

हालांकि औरंगाबाद घटना के बाद महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश की राज्य सरकारों ने सभी मृतक मजदूरों के परिवार के लिए सहायता राशि की घोषणा की, लेकिन अब सवाल है कि क्या इसी तर्ज पर बाकी राज्य सरकारों को भी मृतक मजदूरों के परिवार की जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए

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अखिल भारतीय किसान सभा के महासचिव हनन मोल्ला का कहना है कि इन मजदूरों की मौत सरकार द्वारा पैदा की गई परिस्थितियों के कारण हुई है और इसलिए सरकार को ही इसकी पूरी जिम्मेदारी लेनी चाहिए.

'अभी हाल में स्पेशल ट्रेन शुरू की गई, लेकिन उस ट्रेन तक पहुंचने की प्रक्रिया इतनी जटिल है कि एक मजदूर आदमी उस प्रक्रिया को पूरा नहीं कर पायेगा. उसके बाद सरकार 40 दिन से बेरोजगार बैठे मजदूरों से किराया भी वसूलेगी, हम लॉकडाउन के पहले चरण से ही ये मांग करते रहे हैं कि प्रवासी मजदूरों को घर पहुंचाने की निःशुल्क व्यवस्था सरकार को करनी चाहिए और उनको आर्थिक मदद भी दी जानी चाहिए, लेकिन सरकार कि नीतियां बिल्कुल भी गरीब और मजदूर हितैषी नहीं है.'

हनन मोल्ला का कहना है कि लॉकडाउन के दौरान जिन मजदूरों की भी मौत हुई है उनके परिवारों को कम से कम पांच लाख रुपये की आर्थिक मदद सरकार के तरफ से मिलनी चाहिये.

सीपीआईएम के महासचिव सीताराम येचुरी ने अपने सुझाव समय समय पर प्रेषित किए हैं, जिसमें मजदूरों को डीबीटी के माध्यम से उनके खाते में पैसे पहुंचाने की बात भी कही गई थी.

हालांकि अब सरकार ने स्पेशल ट्रेन चला कर मजदूरों को उनके गृह राज्य पहुंचाने की शुरुआत की है, लेकिन इसके बावजूद अभी भी मजदूर सड़क मार्ग का रुख कर रहे हैं. जानकार बताते हैं कि उनके लिए ट्रेन बुकिंग की जटिल प्रक्रिया को पाट पाना और टिकट का किराया भर पाना संभव नहीं है. इसके साथ ही मजदूरों की संख्या लाखों में है और ऐसे में लंबा इंतजार करने का धैर्य भी बेरोजगार हो चुके मजदूर खो चुके हैं.

ज्यादातर राज्यों ने सीमित संख्या और आवश्यक दिशानिर्देशों के साथ धीरे धीरे उद्योग शुरू करने की अनुमति भी दे दी है और ऐसे में मजदूरों को वापस काम पर जाने का मौका भी मिल सकता है लेकिन इसके बावजूद मजदूर अब अपने घर जाना चाहते हैं.

दिल्ली के अलग अलग औद्योगिक क्षेत्रों में मजदूरों के भोजन और राशन की व्यवस्था करने वाले कुछ स्वयंसेवकों का कहना है कि कोरोना महामारी ने इन मजदूरों को तोड़ कर रख दिया है. उनके भीतर असुरक्षा की भावना है और वो डरे हुए हैं. ऐसे में उनके गांव से भी परिवार वाले घर बुला रहे हैं और वो खुद भी अब अपने घर ही वापस जाना चाहते हैं. लॉकडाउन में हुई दुर्दशा के कारण अब उनमें और धैर्य नहीं रहा और वो किसी भी साधन से बस अपने घर ही पहुंचना चाहते हैं. यही कारण है कि कुछ साइकिल तो कुछ ट्रकों में छिप कर जाने का प्रयास करते हैं और कितने मजदूर तो पैदल ही निकल पड़े.

तीसरे चरण का लॉकडाउन 17 मई को खत्म होना है, लेकिन कोरोना मरीजों की बढ़ती संख्या को देखते हुए कुछ राहत के बावजूद भी लॉकडाउन बढ़ाए जाने की संभावना है. ऐसे में प्रवासी मजदूरों को अब आगे काम की उम्मीद नहीं बल्कि केवल अपने घर पहुंचने की चाह है.

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