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विशेष लेख : जल संरक्षण पर ध्यान दें अन्यथा जल्द ही 'वाटर स्केयर्स' की श्रेणी में आ जाएगा भारत

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Published : Nov 27, 2019, 3:24 PM IST

Updated : Nov 27, 2019, 5:26 PM IST

भारत में पानी की समस्या बढ़ती ही जा रही है. भारत पानी की किल्लत से जूझ रहा है और जैसा कि रुझान बताते हैं, 2025  तक भारत 'वाटर स्ट्रेस्ड' और 2030 तक 'वाटर स्केयर्स' की श्रेणी में आ जाएगा. विशेष लेख में पढ़ें पानी की समस्या से निजात पाने के उपाय और सरकार के प्रयास.

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डिजाइन फोटो

पानी एक मौलिक जीवन अधिकार है और राष्ट्रीय धरोहर भी. यह आर्थिक-सामाजिक विकास और जीवन जीने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है. जैसे-जैसे जनसंख्या और आर्थिक विकास का दबाव पानी का स्रोतों पर बढ़ेगा, वैसे ही मांग और पूर्ति का फासला भी बढ़ता जाएगा. भारत पानी की किल्लत से जूझ रहा है और जैसा कि रुझान बताते हैं, 2025 तक भारत 'वाटर स्ट्रेस्ड' और 2030 तक 'वाटर स्केयर्स' की श्रेणी में आ जाएगा.

नदियां पानी का एक बड़ा और महत्वपूर्ण जरिया हैं, जहां एक तरफ नदियों का बहाव जल संरक्षण के मौके देता है, वहीं इसी के कारण कई बाधाऐं भी पैदा हो जाती हैं. नदियों का मैनेजमेंट एक जटिल राजनीतिक और आर्थिक ढांचे के तहत होता है. इन सभी मुद्दों का अंतत: एक राजनीतिक पहलू होता है. राजनीति, ताकत, संसाधनों के बंटवारे और नीतियां लागू करने का एक समागम है. वहीं राजनीति राज्यों के बीच बेहतर समन्वय स्थापित करने की कला भी है.

नदियों के लिए नीतियां, चाहे वो निकायों को जोड़ने के बारे में हों या बांध बनाने के, सभी का एक बड़ा राजनीतिक पहलू होता है. नदियों के किनारे बसे राज्य पानी समझौतों को लेकर आमतौर पर अन्य राज्यों से अलग राय रखते हैं, जिसके चलते पानी के लिए राजनीति होना तय हो जाता है. नदियां इन्हीं कारणों से विदेश नीति के लिए भी महत्वपूर्ण हो जाती हैं. नदियां देश के भीतरी विकास के लिए बहुत जरूरी होती हैं इसलिए ये द्विपक्षीय रिश्तों पर भी असर डालती हैं.

पानी से जुड़ी क्षेत्रीय चुनौतियों से निबटने के लिए यह जरूरी है कि नदी किनारों के संबंध में बेहतर नीतियां अपनाई जाएं. दशकों से चली आ रही जल बंटवारे की संधियों पर दोबारा विचार करने और मौजूदा स्थिति के हिसाब से नई संधि करने की भी जरूरत है. नदियों के किनारों की राजनीति में भारत का अहम रोल होने वाला है.

धरती के ज्यादातर हिस्से में पानी ही है, लेकिन इसमें केवल तीन फीसदी ही फ्रेश वॉटर है और उसमें से भी दो फीसदी बर्फ और ग्लेशियर के तौर पर जमा हुआ है. केवल एक फीसदी पानी ही तालाबों, नदियों, झरनों आदि के रूप में मौजूद है, जिसे हमारे उपयोग में लाया जा सकता है. ये आंकड़ा पानी की समस्या से निबटने के लिए अहम हो जाते हैं.

पिछली शताब्दी में दुनिया की जनसंख्या तीन गुना और पानी की खपत छह गुना बढ़ गई है. एक अनुमान के मुताबिक़ 2030 तक पानी की खपत आज के मुकाबले 40 फीसदी बढ़ जाएगी और तेजी से विकास कर रहे देशों में ये आंकड़ा 50 फीसदी पहुंच जाएगा. इन देशों में भारत और चीन शामिल हैं. संयुक्त राष्ट्र के 2004 के आंकड़ों के मुताबिक, 2030 तक विश्व जनसंख्या 780 करोड़ और 2050 तक 900 करोड़ तक पहुंच जाएगी. ये आंकड़ा फिलहाल 670 करोड़ है. इस संख्या में ज्यादा जनसंख्या उन्ही मुल्कों में बढ़ेगी, जो पहले ही पानी की किल्लत झेल रहे हैं. पानी की मांग और पूर्ति में निरंतर बढ़ता फासला आने वाले समय में एक बहुत बड़ी समस्या का रूप ले लेगा, खासतौर पर उन देशों में, जहां जनसंख्या का भार पहले से ही ज्यादा है.

भारत में पानी की मांग को लेकर किए गए अनुमान सोचने पर मजबूर कर देते हैं. विश्व बैंक की 1992 में आई रिपोर्ट के मुताबिक 2025 तक पानी की मांग 552 बीसीएम (बिलियन क्यूबिक मीटर) से बढ़ कर 1050 बीसीएम पहुंच जाएगी, जिसे पूरा करने के लिए देश के सभी जल संसाधनों का इस्तेमाल करना पड़ेगा. रिपोर्ट के मुताबिक देश में आजादी से लेकर अब तक प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 1947 में 5,000 क्यूबिक मीटर प्रति साल से घटकर 1997 तक 2,000 क्यूबिक मीटर प्रति साल आ गई है और 2025 आते-आते ये आंकड़ा 1,500 क्यूबिक मीटर सालाना हो जाएगा.

रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि भारत के 20 बड़े वॉटर बेसिन में से छह में जल न्यूनतम स्तर 1,000 क्यूबिक मीटर सालाना के स्तर पर है. मैकिंजी की 2009 में आई रिपोर्ट कहती है कि, 2030 तक देश में पानी की मांग 1.5 ट्रिलियन क्यूबिक मीटर तक पहुंच जाएगी. इसके पीछे जनसंख्या वृद्धि और चावल, गेंहू, चीनी जैसी फसलों में पानी की मांग मुख्य कारण होंगे. रिपोर्ट के मुताबिक मौजूदा पानी की मांग 740 बिलयिन क्यूबिक मीटर है. साफतौर पर पानी की मांग से जुड़ी चुनौतियों में विकास से जुड़े पैमानों का बड़ा रोल है, इनमें भी खेती के लिए सबसे ज्यादा पानी की खपत होने का अनुमान है.

पानी की पूर्ति करने के लिए रणनीति बनाने से, अतिरिक्त पानी की सप्लाई भी हो सकती है, लेकिन कई कारणों के चलते पानी की किल्तत खत्म करने के लिए यह काफी नही होगा. नतीजतन, पानी की मांग को मैनेज करने के लिए भी एक कारगर रणनीति बनाने की जरूरत है. जलापूर्ति प्रबंधन के मौजूदा तरीके, जैसे, वॉटर हार्वेस्टिंग, वॉटर री यूज, डीसैलिनेशन आदि मददगार हैं, लेकिन पानी की उपलब्धता और बरसात के बदलते पैटर्न के मद्देनजर, ये सूखे-बाढ़ के खतरे से निबटने में नाकाफी होंगे. पानी की मांग और पूर्ति में फासले और इस पर पर्यावरण में हो रहे बदलाव के असर को काबू करने के लिए ज्यादा कारगर और बेहतर जलापूर्ति प्रबंधन दृष्टिकोण विकसित करने की जरूरत है.

दो पैमानों पर नीतिगत स्तर पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है. इनमे पहले तो स्थानीय पानी के बहाव को रोकने के लिए बड़े टैंक और जलाशयों को पुनर्जीवित करने की जरूरत है. ये कदम देश के प्रायद्वीप इलाको में कारगर साबित होगा, जहां आज भी टैंक सिस्टम खेती, पीने के पानी की जरूरतें पूरी करने के साथ ग्राउंड वॉटर का स्तर पूरा करने का काम करते हैं. दूसरा तरीका है नेशनल वाटर ग्रिड का निर्माण, जो राष्ट्रीय स्तर पर मौजूदा और भविष्य में पानी की दिक्कतों से निजात दिला सकता है. इस ग्रिड के साथ मौजूदा पानी के पूरे इस्तेमाल, बाढ़ और सूखे से होने वाले नुकासन को कमतर करना और क्षेत्रीय पानी की पूर्ति में ठहराव लाया जा सकता है. जाहिर है, इस नई सप्लाई मैनेजमेंट के पीछे पानी पूर्ति के बढ़ते फासले और पानी की मौजूदा और भविष्य में मांग पर पर्यावरण में बदलाव के असर को रखकर देखा गया है.

हालांकि देश में नेशनल रिवर लिंकिंग प्रोजेक्ट (एनआरएलपी) को लेकर तमाम राजनीतिक दलों में सहमित है, लेकिन इस नीति को धरातल पर लागू करने के लिए अभी ठोस कदम उठाए जाने जरूरी हैं. इस मामले में रफ्तार तब आई, जब 2002 में एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को एक टास्क फोर्स बनाकर इस प्रोजेक्ट को 2012 तक पूरा करने के निर्देश दिए. इसके चलते केंद्र सरकार ने 2003 में ही इस काम के लिए टास्क फोर्स का गठन कर दिया था. लेकिन दुर्भाग्यवश अब तक इस प्रोजेक्ट पर काम शुरू नही हो सका है.

सप्लाई मैनेजमेंट में एनआरएलपी की आर्थिक और सामरिक महत्ता उतनी ही साफ है, जितनी इसकी कानूनी और राजनीतिक चुनौतियां. इस रणनीति की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि इसे मौजूदा आर्थिक, कानूनी और राजनीतिक संरचनाओं के बीच किस तरह लागू किया जाता है. हालांकि एनआरएलपी का एक बार में लागू होना आर्थिक दृष्टि से फायदेमंद है, लेकिन सामरिक नजरिये से देखें तो इसे हिस्सों में लागू करने की जरूरत है, जिनमें सबसे पहले उन पहलुओं को जोड़ा जाना चाहिए, जहां पैसे और राजनीतिक दिक्कतें कम हों.

ये जरूरी है कि इसे पूरी तरह लागू करने का काम एक समय सीमा के अंदर किया जाए. ये न केवल पैसे के खर्च को काबू करेगा बल्कि आने वाली मुश्किल कड़ियों को जोड़ने में भी मददगार होगा. इसके साथ साथ केंद्र सरकार को भी राज्यों से विवाद निबटारे के लिए कानूनी और संगठनात्मक बदलाव करने की जरूरत है. इन दोनों के ही सही तरह से होने के बाद एनआरएलपी द्वारा जलापूर्ति प्रबंधन को सही तरह से लागू किया जा सकेगा.

पानी एक मौलिक जीवन अधिकार है और राष्ट्रीय धरोहर भी. यह आर्थिक-सामाजिक विकास और जीवन जीने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है. जैसे-जैसे जनसंख्या और आर्थिक विकास का दबाव पानी का स्रोतों पर बढ़ेगा, वैसे ही मांग और पूर्ति का फासला भी बढ़ता जाएगा. भारत पानी की किल्लत से जूझ रहा है और जैसा कि रुझान बताते हैं, 2025 तक भारत 'वाटर स्ट्रेस्ड' और 2030 तक 'वाटर स्केयर्स' की श्रेणी में आ जाएगा.

नदियां पानी का एक बड़ा और महत्वपूर्ण जरिया हैं, जहां एक तरफ नदियों का बहाव जल संरक्षण के मौके देता है, वहीं इसी के कारण कई बाधाऐं भी पैदा हो जाती हैं. नदियों का मैनेजमेंट एक जटिल राजनीतिक और आर्थिक ढांचे के तहत होता है. इन सभी मुद्दों का अंतत: एक राजनीतिक पहलू होता है. राजनीति, ताकत, संसाधनों के बंटवारे और नीतियां लागू करने का एक समागम है. वहीं राजनीति राज्यों के बीच बेहतर समन्वय स्थापित करने की कला भी है.

नदियों के लिए नीतियां, चाहे वो निकायों को जोड़ने के बारे में हों या बांध बनाने के, सभी का एक बड़ा राजनीतिक पहलू होता है. नदियों के किनारे बसे राज्य पानी समझौतों को लेकर आमतौर पर अन्य राज्यों से अलग राय रखते हैं, जिसके चलते पानी के लिए राजनीति होना तय हो जाता है. नदियां इन्हीं कारणों से विदेश नीति के लिए भी महत्वपूर्ण हो जाती हैं. नदियां देश के भीतरी विकास के लिए बहुत जरूरी होती हैं इसलिए ये द्विपक्षीय रिश्तों पर भी असर डालती हैं.

पानी से जुड़ी क्षेत्रीय चुनौतियों से निबटने के लिए यह जरूरी है कि नदी किनारों के संबंध में बेहतर नीतियां अपनाई जाएं. दशकों से चली आ रही जल बंटवारे की संधियों पर दोबारा विचार करने और मौजूदा स्थिति के हिसाब से नई संधि करने की भी जरूरत है. नदियों के किनारों की राजनीति में भारत का अहम रोल होने वाला है.

धरती के ज्यादातर हिस्से में पानी ही है, लेकिन इसमें केवल तीन फीसदी ही फ्रेश वॉटर है और उसमें से भी दो फीसदी बर्फ और ग्लेशियर के तौर पर जमा हुआ है. केवल एक फीसदी पानी ही तालाबों, नदियों, झरनों आदि के रूप में मौजूद है, जिसे हमारे उपयोग में लाया जा सकता है. ये आंकड़ा पानी की समस्या से निबटने के लिए अहम हो जाते हैं.

पिछली शताब्दी में दुनिया की जनसंख्या तीन गुना और पानी की खपत छह गुना बढ़ गई है. एक अनुमान के मुताबिक़ 2030 तक पानी की खपत आज के मुकाबले 40 फीसदी बढ़ जाएगी और तेजी से विकास कर रहे देशों में ये आंकड़ा 50 फीसदी पहुंच जाएगा. इन देशों में भारत और चीन शामिल हैं. संयुक्त राष्ट्र के 2004 के आंकड़ों के मुताबिक, 2030 तक विश्व जनसंख्या 780 करोड़ और 2050 तक 900 करोड़ तक पहुंच जाएगी. ये आंकड़ा फिलहाल 670 करोड़ है. इस संख्या में ज्यादा जनसंख्या उन्ही मुल्कों में बढ़ेगी, जो पहले ही पानी की किल्लत झेल रहे हैं. पानी की मांग और पूर्ति में निरंतर बढ़ता फासला आने वाले समय में एक बहुत बड़ी समस्या का रूप ले लेगा, खासतौर पर उन देशों में, जहां जनसंख्या का भार पहले से ही ज्यादा है.

भारत में पानी की मांग को लेकर किए गए अनुमान सोचने पर मजबूर कर देते हैं. विश्व बैंक की 1992 में आई रिपोर्ट के मुताबिक 2025 तक पानी की मांग 552 बीसीएम (बिलियन क्यूबिक मीटर) से बढ़ कर 1050 बीसीएम पहुंच जाएगी, जिसे पूरा करने के लिए देश के सभी जल संसाधनों का इस्तेमाल करना पड़ेगा. रिपोर्ट के मुताबिक देश में आजादी से लेकर अब तक प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 1947 में 5,000 क्यूबिक मीटर प्रति साल से घटकर 1997 तक 2,000 क्यूबिक मीटर प्रति साल आ गई है और 2025 आते-आते ये आंकड़ा 1,500 क्यूबिक मीटर सालाना हो जाएगा.

रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि भारत के 20 बड़े वॉटर बेसिन में से छह में जल न्यूनतम स्तर 1,000 क्यूबिक मीटर सालाना के स्तर पर है. मैकिंजी की 2009 में आई रिपोर्ट कहती है कि, 2030 तक देश में पानी की मांग 1.5 ट्रिलियन क्यूबिक मीटर तक पहुंच जाएगी. इसके पीछे जनसंख्या वृद्धि और चावल, गेंहू, चीनी जैसी फसलों में पानी की मांग मुख्य कारण होंगे. रिपोर्ट के मुताबिक मौजूदा पानी की मांग 740 बिलयिन क्यूबिक मीटर है. साफतौर पर पानी की मांग से जुड़ी चुनौतियों में विकास से जुड़े पैमानों का बड़ा रोल है, इनमें भी खेती के लिए सबसे ज्यादा पानी की खपत होने का अनुमान है.

पानी की पूर्ति करने के लिए रणनीति बनाने से, अतिरिक्त पानी की सप्लाई भी हो सकती है, लेकिन कई कारणों के चलते पानी की किल्तत खत्म करने के लिए यह काफी नही होगा. नतीजतन, पानी की मांग को मैनेज करने के लिए भी एक कारगर रणनीति बनाने की जरूरत है. जलापूर्ति प्रबंधन के मौजूदा तरीके, जैसे, वॉटर हार्वेस्टिंग, वॉटर री यूज, डीसैलिनेशन आदि मददगार हैं, लेकिन पानी की उपलब्धता और बरसात के बदलते पैटर्न के मद्देनजर, ये सूखे-बाढ़ के खतरे से निबटने में नाकाफी होंगे. पानी की मांग और पूर्ति में फासले और इस पर पर्यावरण में हो रहे बदलाव के असर को काबू करने के लिए ज्यादा कारगर और बेहतर जलापूर्ति प्रबंधन दृष्टिकोण विकसित करने की जरूरत है.

दो पैमानों पर नीतिगत स्तर पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है. इनमे पहले तो स्थानीय पानी के बहाव को रोकने के लिए बड़े टैंक और जलाशयों को पुनर्जीवित करने की जरूरत है. ये कदम देश के प्रायद्वीप इलाको में कारगर साबित होगा, जहां आज भी टैंक सिस्टम खेती, पीने के पानी की जरूरतें पूरी करने के साथ ग्राउंड वॉटर का स्तर पूरा करने का काम करते हैं. दूसरा तरीका है नेशनल वाटर ग्रिड का निर्माण, जो राष्ट्रीय स्तर पर मौजूदा और भविष्य में पानी की दिक्कतों से निजात दिला सकता है. इस ग्रिड के साथ मौजूदा पानी के पूरे इस्तेमाल, बाढ़ और सूखे से होने वाले नुकासन को कमतर करना और क्षेत्रीय पानी की पूर्ति में ठहराव लाया जा सकता है. जाहिर है, इस नई सप्लाई मैनेजमेंट के पीछे पानी पूर्ति के बढ़ते फासले और पानी की मौजूदा और भविष्य में मांग पर पर्यावरण में बदलाव के असर को रखकर देखा गया है.

हालांकि देश में नेशनल रिवर लिंकिंग प्रोजेक्ट (एनआरएलपी) को लेकर तमाम राजनीतिक दलों में सहमित है, लेकिन इस नीति को धरातल पर लागू करने के लिए अभी ठोस कदम उठाए जाने जरूरी हैं. इस मामले में रफ्तार तब आई, जब 2002 में एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को एक टास्क फोर्स बनाकर इस प्रोजेक्ट को 2012 तक पूरा करने के निर्देश दिए. इसके चलते केंद्र सरकार ने 2003 में ही इस काम के लिए टास्क फोर्स का गठन कर दिया था. लेकिन दुर्भाग्यवश अब तक इस प्रोजेक्ट पर काम शुरू नही हो सका है.

सप्लाई मैनेजमेंट में एनआरएलपी की आर्थिक और सामरिक महत्ता उतनी ही साफ है, जितनी इसकी कानूनी और राजनीतिक चुनौतियां. इस रणनीति की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि इसे मौजूदा आर्थिक, कानूनी और राजनीतिक संरचनाओं के बीच किस तरह लागू किया जाता है. हालांकि एनआरएलपी का एक बार में लागू होना आर्थिक दृष्टि से फायदेमंद है, लेकिन सामरिक नजरिये से देखें तो इसे हिस्सों में लागू करने की जरूरत है, जिनमें सबसे पहले उन पहलुओं को जोड़ा जाना चाहिए, जहां पैसे और राजनीतिक दिक्कतें कम हों.

ये जरूरी है कि इसे पूरी तरह लागू करने का काम एक समय सीमा के अंदर किया जाए. ये न केवल पैसे के खर्च को काबू करेगा बल्कि आने वाली मुश्किल कड़ियों को जोड़ने में भी मददगार होगा. इसके साथ साथ केंद्र सरकार को भी राज्यों से विवाद निबटारे के लिए कानूनी और संगठनात्मक बदलाव करने की जरूरत है. इन दोनों के ही सही तरह से होने के बाद एनआरएलपी द्वारा जलापूर्ति प्रबंधन को सही तरह से लागू किया जा सकेगा.

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Last Updated : Nov 27, 2019, 5:26 PM IST
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