भारतीय राजनीति में हो क्या रहा है? लंबे समय से बिहार के मुख्यमंत्री रहे नीतीश कुमार ट्वीट कर गृहमंत्री का हवाला देकर एक रणनीतिकार पर आरोप लगा रहे हैं, उसका जवाब भी ट्विटर पर दिया गया. चर्चा भी ट्विटर पर हुई और मुद्दे का समापन भी ट्विटर पर बुद्धिजीवियों के बीच हो जाएगा. चर्चा हो रही है क्योंकि प्रशांत किशोर पार्टी विरोधी गतिविधियों के चलते जेडीयू से निकाल दिए गए हैं, अब यह गतिविधियां क्या हैं और इसका देश की मौजूदा राजनीति से क्या लेना देना है, उसके लिए आपको जानना होगा कि कौन हैं 'प्रशांत किशोर'.
याद करिये वह दौर जब 2जी- 3जी कॉमनवेल्थ जैसे तमाम घोटाले और विवादों ने कांग्रेस को बुरी तरह घेर रखा था. अन्ना के आंदोलन से देश वर्षों बाद किसी मुद्दे पर एक साथ एक मंच पर आया था. मानो कांग्रेस के खिलाफ 'आजादी' की नई जंग छिड़ी हो या देश एक बार फिर 1971 के उस दौर में हो जब जेपी ने शंखनाद कर सत्ता पलटने की बात की हो. इस बात को समझने के लिए किसी रणनीतिकार की जरूरत नहीं थी कि कांग्रेस सरकार का अस्त होने जा रहा था, जरूरत थी एक नायक की जो 'नरेंद्र मोदी' के रूप में उभर कर सामने आया. प्रचंड बहुमत के साथ मोदी की सरकार बनी, फिर मीडिया के जरिए जनता को एक जानकारी मिली कि एक व्यक्ति ने मोदी सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाई थी. यह व्यक्ति थे प्रशांत किशोर.
क्या प्रशांत किशोर वह थे, जिन्होंने 2014 में भाजपा की चुनावी रणनीति बनाई? नहीं. क्या प्रशांत किशोर वह थे, जिन्होंने चुनावी नारे या मोदी के भाषण लिखे? नहीं. क्या प्रशांत किशोर वह थे, जिन्होंने भाजपा संगठन की नीतियां निर्धारित की? नहीं. तो फिर प्रशांत किशोर कौन थे? और उन्हें जीत का सेहरा क्यों पहनाया जाने लगा?
प्रशांत किशोर की 'राजनीतिक एंट्री'
राजनाथ सिंह ने जैसे ही नरेंद्र मोदी का नाम भाजपा के 'प्रधानमंत्री उम्मीदवार' के रूप में घोषित किया, देशभर के भाजपा कार्यकर्ताओं में अलग सा उत्साह था. क्या युवा, क्या छात्र और क्या महिलाएं. हर वर्ग से मोदी को जबरदस्त समर्थन मिलना शुरू हुआ. देशभर से तमाम बुद्धिजीवियों की टीम एकत्रित होना शुरू हुई और उन्होंने नरेंद्र मोदी से मिलने का समय मांगा और उनके चुनावी अभियान में काम करने की अनुमति मांगी. ऐसे में मोदी के तत्कालीन ओएसडी प्रशांत किशोर को मोदी ने जिम्मेदारी सौंपी इस पूरी टीम को संगठित कर उनके विचारों को सुनने की और उसे क्रियान्वन में लाने पर विचार करने की.
देशभर के 'फर्टाइल ब्रेन' ने मिल कर चुनावी अभियान को एक नया रंग दिया और उसके नायक बने प्रशांत किशोर. यह प्रशांत किशोर के लिए बिल्कुल नया था, क्योंकि उन्हें राष्ट्रीय स्तर का राजनीतिक अभियान चलाने का न कोई अनुभव था और न ही किसी तरह की विशेषज्ञता, पर सभी बुद्धिजीवियों की टीम के साथ प्रशांत किशोर ने नरेंद्र मोदी द्वारा दिए गए दायित्व को निभाने का प्रयास किया.
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प्रशांत किशोर का भाजपा से 'मनमुटाव'
मीडिया रिपोर्ट्स दावा करती हैं कि मोदी को प्रधानमंत्री बनाने में प्रशांत किशोर की अहम भूमिका रही है. उन्होंने कभी इस बात पर चिंता नहीं जताई कि प्रधानमंत्री बनाने के बाद कोई व्यक्ति क्यों उनसे दूरी बना लेगा? पार्टी के अंदर के सूत्रों की मानें तो इसके पीछे की कहानी कुछ और ही है.
प्रशांत किशोर ने 2014 के अभियान में देशभर से आए हुए बुद्धिजीवियों से चर्चा कर दो अभियान चलाए.
- पहला 'चाय पर चर्चा' जिसे पहले सत्र के बाद ही पार्टी संगठन को हैंडओवर करना पड़ा.
- दूसरा '3डी रैली' जिससे गांव-गांव तक प्रधानमंत्री को पहुंचाने की बात हुई और तमाम कठिनाइयों के बाद भी प्रशांत किशोर कुछ हद तक उसे सफल बनाने में कामयाब रहे.
आंतरिक सूत्रों की मानें तो प्रशांत किशोर का पार्टी से प्रमुख विवाद का कारण रहा 'वित्तीय अनियमितता', जिसके कारण उन्हें नरेंद्र मोदी की नाराजगी झेलनी पड़ी और उन्होंने प्रशांत से उचित दूरी बना ली. उसके बाद 'प्रशांत किशोर' नाम की चर्चा काफी समय तक राजनीतिक गलियारों में सुनने को नहीं मिली.
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प्रशांत किशोर की वापसी और 'ब्रांड पीके'
लोकसभा 2014 के नतीजे घोषित हुए और प्रशांत किशोर पर अचानक लेख पर लेख छपना शुरू हो गए. यह लेख न तो भाजपा की तरफ से दिए गए किसी डेटा के आधार पर जारी हुए और न ही नरेंद्र मोदी के कार्यालय से मिली किसी जानकारी के आधार पर, लेकिन 'ब्रांड पीके' की चर्चा बुद्धिजीवियों के बीच में खूब हुई और उनको लेकर राजनीतिक दलों में उत्सुकता बढ़ी.
2015 के विधानसभा चुनाव में पीके नीतीश कुमार के साथ आए और लालू और नीतीश के गठबंधन के साथ बिहार की जीत का पूरा श्रेय एक बार फिर प्रशांत किशोर को मिला. तोहफे में प्रशांत किशोर को मिली 'कांग्रेस' और अब सही मायने में प्रशांत किशोर 'पेशेवर रणनीतिकार' बन गए थे. चाय पर चर्चा की जगह 'खाट पर चर्चा' आई पर कोई भी नीति उत्तर प्रदेश में उनके काम नहीं आई. चुनाव का नतीजा आया तो पीके ने राहुल गांधी पर ही तंज कस दिया. 'प्रोडक्ट में दम न हो तो नीतियां काम नहीं आती', मतलब मीठा-मीठा गप, कड़वा कड़वा थू.
गठबंधन टूटा और बिहार में एक बार फिर एनडीए की सरकार बनी, तो आंतरिक मतभेद शुरू हुए. प्रशांत किशोर काफी लंबे समय से सीएए का विरोध कर रहे हैं, दिल्ली में फिलहाल फेवरेट आम आदमी पार्टी के साथ चुनाव प्रचार में हैं और विपक्ष को साधने का प्रयास कर रहे हैं. ऐसे में अपनी पार्टी में कभी पीके को नंबर दो की पोजीशन देने वाले नीतीश कुमार का सोशल मीडिया के माध्यम से पीके पर आरोप-प्रत्यारोप करना, उसके लिए अमित शाह को जिम्मेदार ठहराना, नीतीश की राजनीतिक गलती है या मास्टर स्ट्रोक यह तो व़क्त ही तय करेगा.
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देश में बढ़ता 'चुनावी रणनीतिकारों' का चलन
क्या राजनीतिक दल 2014 से पहले संगठित और स्ट्रेटेजिक चुनाव नहीं लड़े थे? पक्ष हो या विपक्ष, आई-पैक हो या कैम्ब्रिज एनालिटिका, गैर राजनीतिक रणनीतिकारों का पार्टी की नीतियों में सीधा हस्तक्षेप उन्हें सच्चाई से काफी दूर ले जा रहा है. शायद यही कारण है कि कुछ वर्षों से केंद्र और राज्य सरकारों का हर फैसला 'चुनाव' के इर्द-गिर्द घूमता है. अगर जनसेवा की जगह चुनाव जीतना सरकारों का लक्ष्य बना और धरतीपकड़ कार्यकर्ताओं की जगह गैरराजनीतिक प्रोफेशनल्स सरकारों की जानकारी का आधार बनें तो 'राष्ट्रहित' का लक्ष्य कहीं पीछे छूट जाएगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)-आईएएनएस