हैदराबाद : वास्तु चक्र के 45 देवताओं की तुलना में सर्वतोभद्र चक्र में 57 देवताओं का नाम आता है. यहां भी देवता समूह हैं, जैसे- सप्तयक्ष, गंधर्व, अप्सराएं, सप्तगण, सप्तसागर, दस आयुध, द्वादशादित्य, अष्टकुल नाग इत्यादि. सर्वतोभद्र चक्र में न केवल दस दिक्पाल, बल्कि उनके आयुधों की भी स्थापना की जाती है.
वास्तु चक्र के अन्दर स्थित 45 देवताओं के नाम इस प्रकार हैं-
1. शिखि, 2. पर्जन्य, 3. जयंत, 4. इन्द्र, 5. सूर्य,
6. सत्य, 7. भृश, 8. आकाश, 9. अग्रि, 10. पूषा,
11. वितथ, 12. गृहत्क्षत, 13. यम, 14. गन्धर्व, 15. भृङ्गराज,
16. मृग, 17. पितृ, 18. दौवारिक, 19. सुग्रीव, 20. पुष्पदंत,
21. वरुण, 22. असुर, 23. शोष, 24. पापयक्ष्मा, 25. रोग,
26. अहि(नाग) 27. मुख्य, 28. भल्लाट, 29. सोम, 30. चरक(सर्प)
31. अदिति, 32. दिति, 33. आप, 34. अपवत्स, 35. अर्यमा,
36. सवितृ, 37. सविता, 38. विवस्वान्, 39. विबुधाधिप, 40. जय,
41. मित्र, 42. राजयक्ष्मा, 43. रुद्र, 44. पृथ्वीधर 45. ब्रह्मा.
चारों कोणों में ईशान कोण से शुरू करके चरकी, विदारी, पूतना व पापराक्षसी की स्थापना की जाती है और पूर्व से शुरू करके चार दिशाओं में स्कंद, अर्यमा, जृम्भक तथा पिलिपिच्छ देवताओं की स्थापना की जाती है. इसके पश्चात पूर्व दिशा से शुरू करके दश दिक्पालों की स्थापना की जाती है, जिनके नाम - इंद्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, वरुण, वायु, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा तथा अनंत हैं.
वर्ग या समूह की स्थापना वास्तु चक्र में भी मिलती है, जैसे- कि अहि या नाग, गंधर्व तथा रुद्र, परंतु यह प्रवृत्ति सर्वतोभद्र चक्र में अधिक पायी जाती है, संभवतः वैदिक ऋषि सभी दैवीय शक्तियों को या ब्रह्माण्ड को सर्वतोभद्र में समाहित कर लेना चाहते हैं.
अष्टवसु, एकादश रुद्र, द्वादश आदित्य, अष्टकुल नाग, मरुद्गण इत्यादि वर्ग के रूप में यहां उपस्थित हैं और वैदिक ऋषियों की महत् चेष्टा का उद्घोष करते हैं. वास्तु चक्र में भी हम द्वादश आदित्य को उचित सम्मान दिया हुआ पाते हैं.
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वास्तु चक्र संभवतः विभिन्न ऊर्जा चक्रों का संश्लेषण है जिसके माध्यम से ऋषियों ने धर्मभीरु भारतीय जनता से आज्ञापालन के उद्देश्य से अद्भुत व्यूह रचना की है. एक-एक देवता, एक-एक ऊर्जा चक्र या ऊर्जा नाड़ी के प्रतिनिधि हैं. प्रकृति की या ब्रह्माण्ड की इस विशिष्ट ऊर्जा को पहचानना और उनके अनुकूल आचरण करना या उस ऊर्जा का प्रयोग करके लोक-परलोक को उन्नत बनाना ही वास्तु का उद्देश्य है. ब्रह्माण्ड की ऊर्जा के सकल प्रबंधन का नाम ही वास्तु शास्त्र है जिसके प्रयोग से दैव प्रदत्त कष्टों में कमी आती है.
वास्तु पुरुष पुमाकृति हैं और भूमि में औंधे मुंह करके लेटे हैं, जिनके घुटने व कुहनियां मुड़ी हुई हैं. वास्तु पुरुष का सिर ईशान कोण में और पैर के दोनों तलवे मिले हुए नैऋत्य कोण में हैं. उनकी दोनों कुहनियां क्रमशः अग्निकोण व वायव्य कोण में, उनका नाभि प्रदेश भूखण्ड के ब्रह्म स्थान के पास में है और उनके ऊपर वे सभी देवता अवस्थित हैं, जिन्होंने उन पर आक्रमण किया था और उन्हें भूमि में नीचे दबा दिया था या स्थापित कर दिया था.
(लेखक - पंडित सतीश शर्मा, सुप्रसिद्ध वास्तुशास्त्री)
(ईमेल - satishsharma54@gmail.com)