ETV Bharat / bharat

प. बंगाल : विधानसभा चुनाव में AIMIM की एंट्री, बड़ा गुल खिला सकता है 'एम' फैक्टर - लोकसभा चुनाव में क्या रहा था असर

कहावत है कि पतंग ऊंची उड़ान भर सकती है और जमीन पर घास, फूलों की कलियों के लिए गंभीर खतरा भी पैदा कर सकती है. ऐसा ही कुछ नजारा इन दिनों पश्चिम बंगाल चुनाव में देखने को मिल रहा है. बंगाल चुनाव में AIMIM का आना कुछ ऐसे ही इशारे कर रहा है, क्योंकि यह बीजेपी को नुकसान पहुंचाए या न पहुंचाए, लेकिन वामदलों, कांग्रेस के साथ सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस के लिए भी मुश्किलें पैदा करने वाला है.

Bengal poll
Bengal poll
author img

By

Published : Feb 3, 2021, 9:25 PM IST

Updated : Feb 4, 2021, 6:33 AM IST

हैदराबाद : ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में कम से कम 10 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी शुरू कर दी है. इसके साथ ही वोटों के ध्रुवीकरण और मुस्लिम अल्पसंख्यकों (एम फैक्टर) को वोट बैंक में तब्दील करने का मुद्दा राज्य में फिर से सामने आ गया है. इस आग को और अधिक भड़काने के लिए एक अन्य मुस्लिम मौलाना अब्बास सिद्दीकी ने अपने भारतीय धर्मनिरपेक्ष मोर्चे को खड़ा किया है. यह AIMIM के साथ मिलकर कई लोगों के लिए असहज स्थिति बना सकते हैं. खासकर सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के लिए.

34 साल तक वाम मोर्चा का शासन
अल्पसंख्यकों को वोट बैंक के रूप में आंकना बंगाल की राजनीति की एक पुरानी परंपरा रही है. यह सिर्फ चुनाव के मौसम में ही सीमित नहीं रहता है. ममता बनर्जी के पोस्टरों और कटआउट पर यह साफ झलकता भी है. ये पोस्टर और बैनर वार्षिक उत्सव और एक विशेष धार्मिक समुदाय के अनुष्ठानों से ठीक पहले जारी किए जाते हैं. तृणमूल कांग्रेस सरकार द्वारा इमामों और मुअज्जिनों के लिए मासिक वजीफा मंजूर करने का निर्णय ममता बनर्जी की ओर से ही लिया गया. वाम मोर्चा जिसने 34 साल तक बंगाल पर शासन किया था.

2019 के आम चुनावों में भाजपा
तुष्टीकरण की राजनीति की इस दौड़ में दूर नहीं है. वास्तव में हर चुनावी मौसम में मुस्लिम अल्पसंख्यकों को लाभ पहुंचाने वाले काम करना इनका शगल रहा है. चाहे वह मदरसा बोर्ड का संस्थागत रूप हो या अल्पसंख्यक मुस्लिम अध्ययनों को बढ़ावा देना. सीपीआईएम ने अपने कार्यकाल के अंत में सरकारी नौकरियों में मुसलमानों के लिए 10% आरक्षण के इरादे की घोषणा की थी, लेकिन वह कभी भी ऐसा नहीं कर सके. इस उम्मीद के साथ कि मुस्लिम मतदाता चुनावों में अहम भूमिका निभाएंगे, अब कोई भी पार्टी उनकी अनदेखी नहीं कर सकती. लेकिन बीजेपी ने 2019 के आम चुनावों में एक अलग कार्ड पेश किया था.

बंगाल चुनाव में मतदाताओं का ध्रुवीकरण

बंगाल चुनावों में मतदाताओं का ध्रुवीकरण इतना स्पष्ट नहीं था, जितना कि पिछले लोकसभा चुनावों में हुआ. 2001 और 2006 के चुनावों के दौरान भाजपा केवल एक सीटर थी. हालांकि, पार्टी 1998, 1999 और 2004 के आम चुनावों में तृणमूल कांग्रेस के सहयोगी की भूमिका निभा रही थी. लेकिन राज्य के चुनाव आते ही ममता ने कांग्रेस को प्राथमिकता दी. यहां तक ​​कि 2011 के विधानसभा चुनावों में भी जब ममता ने वाम मोर्चे को कमजोर करने में कामयाबी हासिल की, तो उन्होंने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया. न कि भाजपा के साथ. भगवा पार्टी ने उस चुनाव में मात्र 4.1% वोट शेयर हासिल किया था. 2016 में ममता अकेले चली गईं और फिर से भाजपा के साथ-साथ वाम मोर्चा-कांग्रेस गठबंधन के खिलाफ विजयी हुईं. हालांकि, अब केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी है.

वोट शेयर से बिगड़ेगी दलों की तस्वीर

दिलचस्प बात यह है कि बीजेपी के पास अब लगभग 10% वोट शेयर है. 2019 के आम चुनावों में भाजपा पश्चिम बंगाल में अभूतपूर्व 40% वोट शेयर के साथ अग्रणी विपक्ष के रूप में उभरा था. क्या यह केवल लोकप्रिय वोट था? क्या यह इस तथ्य के कारण था कि वाम मोर्चे का वोट शेयर 27% से गिरकर 7.5% तक पहुंच गया. या कांग्रेस के वोट शेयर में लगभग 7% और तृणमूल का वोट प्रतिशत लगभग 2% तक की गिरावट दर्ज की गई. बीजेपी हिंदू के साथ-साथ हिंदू अप्रवासी मतदाताओं पर ध्यान केंद्रित करने में सफल रही. इस ध्रुवीकरण को हासिल करने के बाद बीजेपी के पक्ष में जो बात हुई, वह यह थी कि 2016 और 2019 के बीच भगवा पार्टी के लिए वाम मोर्चे के मतदाताओं की पारी बदल गई.

लोकसभा चुनाव में क्या रहा था असर

नतीजा बीजेपी 2019 के लोकसभा चुनाव में 18 सीटों पर जीती जो इसका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन रहा. ध्रुवीकरण के समानांतर मिथक है कि पश्चिम बंगाल में मुस्लिम अल्पसंख्यक कभी भी भाजपा को वोट नहीं देते हैं. निश्चित रूप से इस बहस का पर्याप्त स्थान है कि क्या 2019 में बीजेपी को मुस्लिम वोट मिला? या यह वाम मोर्चा और कांग्रेस के मतदाताओं के लपेटे में छिपा था? जो भी हो, लेकिन संख्याएं बहुत अधिक प्रतिबिंबित करती हैं. दक्षिण मालदा लोकसभा सीट पर 64% मुस्लिम मतदाता हैं. 2019 के वोट परिणाम कांग्रेस उम्मीदवार को 4,44,270 वोट (34.73%) और तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवार को 3,51,353 वोट (27.47%) प्राप्त हुए. जबकि भाजपा के आंकड़े 4,36,048 वोट (34.09%) रहे. जंगीपुर लोकसभा क्षेत्र में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या लगभग 82% है. यहां भाजपा उम्मीदवार ने 24.3% वोट शेयर हासिल किया था.

तृणमूल कांग्रेस की बढ़ेंगी मुश्किलें

तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवार को 43.15% और कांग्रेस के उम्मीदवार को 19.61% मत मिले. इन दो लोकसभा क्षेत्रों की संख्या बोलने के लिए पर्याप्त है. वास्तव में 2011 की जनगणना और बाद के अनुमानों के अनुसार पश्चिम बंगाल में 30% मुस्लिम आबादी लगभग 102 विधानसभा क्षेत्रों के परिणाम को प्रभावित करने में सक्षम है. 2019 के चुनावों के परिणाम के बाद यह संभावना नहीं है कि बीजेपी खुद को हिंदू वोटों तक सीमित रखेगी.

यह भी पढ़ें-मिसाल : फिल्मी विलेन छेदी सिंह बने रियल 'हीरो', मासूम के दिल का कराया ऑपरेशन

AIMIM अपने साथ और अब्बास सिद्दीकी की लोकप्रियता के मामले में अत्यंत प्रभावशाली फुरफुरा शरीफ के सभी पीरजादों को पीछे छोड़ते हुए पश्चिम बंगाल की मुस्लिम आबादी को अब अपना 'वोट बैंक' बनाने के लिए तैयार है. क्या राजनीतिक दल इसे अपरिहार्य मानने के लिए तैयार हैं. पार्टियां उन्हें मतदाता मानती हैं न कि वोट बैंक? 2021 बंगाल चुनाव का अंकगणित हर दिन और भी दिलचस्प होता जा रहा है.

हैदराबाद : ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में कम से कम 10 सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी शुरू कर दी है. इसके साथ ही वोटों के ध्रुवीकरण और मुस्लिम अल्पसंख्यकों (एम फैक्टर) को वोट बैंक में तब्दील करने का मुद्दा राज्य में फिर से सामने आ गया है. इस आग को और अधिक भड़काने के लिए एक अन्य मुस्लिम मौलाना अब्बास सिद्दीकी ने अपने भारतीय धर्मनिरपेक्ष मोर्चे को खड़ा किया है. यह AIMIM के साथ मिलकर कई लोगों के लिए असहज स्थिति बना सकते हैं. खासकर सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के लिए.

34 साल तक वाम मोर्चा का शासन
अल्पसंख्यकों को वोट बैंक के रूप में आंकना बंगाल की राजनीति की एक पुरानी परंपरा रही है. यह सिर्फ चुनाव के मौसम में ही सीमित नहीं रहता है. ममता बनर्जी के पोस्टरों और कटआउट पर यह साफ झलकता भी है. ये पोस्टर और बैनर वार्षिक उत्सव और एक विशेष धार्मिक समुदाय के अनुष्ठानों से ठीक पहले जारी किए जाते हैं. तृणमूल कांग्रेस सरकार द्वारा इमामों और मुअज्जिनों के लिए मासिक वजीफा मंजूर करने का निर्णय ममता बनर्जी की ओर से ही लिया गया. वाम मोर्चा जिसने 34 साल तक बंगाल पर शासन किया था.

2019 के आम चुनावों में भाजपा
तुष्टीकरण की राजनीति की इस दौड़ में दूर नहीं है. वास्तव में हर चुनावी मौसम में मुस्लिम अल्पसंख्यकों को लाभ पहुंचाने वाले काम करना इनका शगल रहा है. चाहे वह मदरसा बोर्ड का संस्थागत रूप हो या अल्पसंख्यक मुस्लिम अध्ययनों को बढ़ावा देना. सीपीआईएम ने अपने कार्यकाल के अंत में सरकारी नौकरियों में मुसलमानों के लिए 10% आरक्षण के इरादे की घोषणा की थी, लेकिन वह कभी भी ऐसा नहीं कर सके. इस उम्मीद के साथ कि मुस्लिम मतदाता चुनावों में अहम भूमिका निभाएंगे, अब कोई भी पार्टी उनकी अनदेखी नहीं कर सकती. लेकिन बीजेपी ने 2019 के आम चुनावों में एक अलग कार्ड पेश किया था.

बंगाल चुनाव में मतदाताओं का ध्रुवीकरण

बंगाल चुनावों में मतदाताओं का ध्रुवीकरण इतना स्पष्ट नहीं था, जितना कि पिछले लोकसभा चुनावों में हुआ. 2001 और 2006 के चुनावों के दौरान भाजपा केवल एक सीटर थी. हालांकि, पार्टी 1998, 1999 और 2004 के आम चुनावों में तृणमूल कांग्रेस के सहयोगी की भूमिका निभा रही थी. लेकिन राज्य के चुनाव आते ही ममता ने कांग्रेस को प्राथमिकता दी. यहां तक ​​कि 2011 के विधानसभा चुनावों में भी जब ममता ने वाम मोर्चे को कमजोर करने में कामयाबी हासिल की, तो उन्होंने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया. न कि भाजपा के साथ. भगवा पार्टी ने उस चुनाव में मात्र 4.1% वोट शेयर हासिल किया था. 2016 में ममता अकेले चली गईं और फिर से भाजपा के साथ-साथ वाम मोर्चा-कांग्रेस गठबंधन के खिलाफ विजयी हुईं. हालांकि, अब केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी है.

वोट शेयर से बिगड़ेगी दलों की तस्वीर

दिलचस्प बात यह है कि बीजेपी के पास अब लगभग 10% वोट शेयर है. 2019 के आम चुनावों में भाजपा पश्चिम बंगाल में अभूतपूर्व 40% वोट शेयर के साथ अग्रणी विपक्ष के रूप में उभरा था. क्या यह केवल लोकप्रिय वोट था? क्या यह इस तथ्य के कारण था कि वाम मोर्चे का वोट शेयर 27% से गिरकर 7.5% तक पहुंच गया. या कांग्रेस के वोट शेयर में लगभग 7% और तृणमूल का वोट प्रतिशत लगभग 2% तक की गिरावट दर्ज की गई. बीजेपी हिंदू के साथ-साथ हिंदू अप्रवासी मतदाताओं पर ध्यान केंद्रित करने में सफल रही. इस ध्रुवीकरण को हासिल करने के बाद बीजेपी के पक्ष में जो बात हुई, वह यह थी कि 2016 और 2019 के बीच भगवा पार्टी के लिए वाम मोर्चे के मतदाताओं की पारी बदल गई.

लोकसभा चुनाव में क्या रहा था असर

नतीजा बीजेपी 2019 के लोकसभा चुनाव में 18 सीटों पर जीती जो इसका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन रहा. ध्रुवीकरण के समानांतर मिथक है कि पश्चिम बंगाल में मुस्लिम अल्पसंख्यक कभी भी भाजपा को वोट नहीं देते हैं. निश्चित रूप से इस बहस का पर्याप्त स्थान है कि क्या 2019 में बीजेपी को मुस्लिम वोट मिला? या यह वाम मोर्चा और कांग्रेस के मतदाताओं के लपेटे में छिपा था? जो भी हो, लेकिन संख्याएं बहुत अधिक प्रतिबिंबित करती हैं. दक्षिण मालदा लोकसभा सीट पर 64% मुस्लिम मतदाता हैं. 2019 के वोट परिणाम कांग्रेस उम्मीदवार को 4,44,270 वोट (34.73%) और तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवार को 3,51,353 वोट (27.47%) प्राप्त हुए. जबकि भाजपा के आंकड़े 4,36,048 वोट (34.09%) रहे. जंगीपुर लोकसभा क्षेत्र में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या लगभग 82% है. यहां भाजपा उम्मीदवार ने 24.3% वोट शेयर हासिल किया था.

तृणमूल कांग्रेस की बढ़ेंगी मुश्किलें

तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवार को 43.15% और कांग्रेस के उम्मीदवार को 19.61% मत मिले. इन दो लोकसभा क्षेत्रों की संख्या बोलने के लिए पर्याप्त है. वास्तव में 2011 की जनगणना और बाद के अनुमानों के अनुसार पश्चिम बंगाल में 30% मुस्लिम आबादी लगभग 102 विधानसभा क्षेत्रों के परिणाम को प्रभावित करने में सक्षम है. 2019 के चुनावों के परिणाम के बाद यह संभावना नहीं है कि बीजेपी खुद को हिंदू वोटों तक सीमित रखेगी.

यह भी पढ़ें-मिसाल : फिल्मी विलेन छेदी सिंह बने रियल 'हीरो', मासूम के दिल का कराया ऑपरेशन

AIMIM अपने साथ और अब्बास सिद्दीकी की लोकप्रियता के मामले में अत्यंत प्रभावशाली फुरफुरा शरीफ के सभी पीरजादों को पीछे छोड़ते हुए पश्चिम बंगाल की मुस्लिम आबादी को अब अपना 'वोट बैंक' बनाने के लिए तैयार है. क्या राजनीतिक दल इसे अपरिहार्य मानने के लिए तैयार हैं. पार्टियां उन्हें मतदाता मानती हैं न कि वोट बैंक? 2021 बंगाल चुनाव का अंकगणित हर दिन और भी दिलचस्प होता जा रहा है.

Last Updated : Feb 4, 2021, 6:33 AM IST
ETV Bharat Logo

Copyright © 2025 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.