हैदराबाद : तीन दिन पहले जब ह्वाइट हाउस के प्रवक्ता ने घोषणा की कि 22 सितंबर को ह्ययूस्टन में होनेवाली 'हाउडी मोदी' रैली में अमेरिका के राष्ट्पति डोनाल्ड ट्रम्प भी शिरकत करेंगे तो पाकिस्तान और चीन के राजनयिक हलकों में हलचल मच गई.
पाकिस्तान के टीवी चैनलों पर कहा गया कि क्या यह ट्रम्प का एक और नाटक है या इस निर्णय के माध्यम से अमेरिका यह संदेश देने की कोशिश कर रहा है कि भारत और अमेरिका के रिश्ते किसी नए धरातल पर पहुंच गए हैं.
अमेरिका के इतिहास में शायद यह पहली बार हो रहा है कि किसी अन्य देश के राष्ट्र प्रमुख की रैली में अमेरिकी राष्ट्रपति शिरकत करेंगे. विदेश नीति के स्तर पर इस तरह का निर्णय गंभीर विचार-विमर्श के बाद ही लिया जाता है.
यह कहना भी सही नहीं होगा कि 2020 में होनेवाले राष्ट्रपति पद के चुनाव को ध्यान में रखकर ट्रम्प ने यह निर्णय लिया है. इस निर्णय की पृष्टभूमि को समझना जरूरी है.
दक्षिणी चीन सागर में चीन ने अपना सामरिक वर्चस्व बढ़ाकर अमेरिका सहित कई देशों के वाजिब हितों को चुनौती दी है. चीन ने दक्षिण चीन सागर के बड़े हिस्से पर अपनी दावेदारी जताकर वियतनाम व फिलीपिन्स जैसे कई छोटे देशों के समुद्री इलाकों व द्वीपों पर अपना दावा पेश कर दिया है.
दक्षिण चीन सागर के अंतरराष्ट्रीय समुद्री मार्ग के बड़े हिस्से पर भी चीन ने अपना दावा ठोक दिया है. दूसरी तरफ पिछले एक साल से अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध जैसी हालत बन गई है.
अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने चीन पर खुलेआम आरोप लगाया है कि वह अमेरिकी कंपनियों की बौद्धिक संपदा की चोरी करके अरबों डालर कमा रहा है. इतना ही नहीं ट्रम्प ने चीन में सक्रिय अमेरिकी कंपनियों से अनुरोध किया कि वे चीन में अपना कारोबार बंद करके अमेरिका आ जाए या किसी अन्य देश में चले जाए.
प्रशांत महासागर और भारतीय महासागर में चीनी नौसेना की बढ़ती गतिविधियां भी अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया और भारत के लिए गंभीर चिन्ता का विषय है. इसी संदर्भ में अमेरिकी रक्षा संस्थान ने एशिया-पेसिफिक की बजाय इंडो-पैसिफिक समुद्री सुरक्षा की नई अवधारणा पेश की है, जिसमें चीन के सैन्य प्रभाव का सामना करने की योजना में भारतीय नौसेना की बड़ी भूमिका है. अमेरिका, भारत, जापान व आस्ट्रेलिया के बीच जारी सालाना संयुक्त सैन्य अभ्यास को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए.
भारत की नीति यह रही है कि अमेरिका के साथ घनिष्ठ हो रहे रिश्तों का नकारात्मक असर चीन के साथ रिश्तों पर न पड़े. लेकिन पिछले दिनों जम्मू व कश्मीर के मुद्दे पर चीन ने जिस तरह पाकिस्तान की खुलकर तरफदारी की, उससे भारत की चीन नीति में भी अब बदलाव आ गया है.
विदेश मंत्री एस. जयशंकर की यह टिप्पणी अर्थभरी है कि व्यापार युद्ध हमेशा खराब नहीं होता है, यदि इससे व्यापार संतुलित हो तो अच्छी बात है. यह चीन को सीधा संदेश था कि व्यापार व अन्य मुद्दों पर जारी आपसी सहयोग का दायरा अब सिमट रहा है. हालांकि, इसका यह अर्थ भी नहीं है कि भारत किसी चीन-विरोधी सैन्य समूह का हिस्सा बनना चाहेगा.
हाउडी मोदी रैली में ट्रम्प की भागीदारी चीन के लिए स्पष्ट संदेश है कि अमेरिका चीन की आर्थिक व सैन्य ताकत को कमजोर करने का निर्णय ले चुका है और इस अभियान में भारत को एक मजबूत हिस्सेदार के रूप में देखा जा रहा है.
दुनिया के राजनीतिक रंगमंच पर चीन और पाकिस्तान को इन दिनों जुड़वां भाई के रूप में देखा जा रहा है. सुरक्षा परिषद के स्तर पर जम्मू व कश्मीर के सवाल पर चीन ने जिस तरह पाकिस्तान का साथ दिया उसका सीधा नकारात्मक असर भारत-चीन संबंधों पर पड़ा है.
आर्टिकल 370 व 35 ए को खत्म किए जाने के बाद पाकिस्तान ने अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के खिलाफ समर्थन जुटाने का अभियान चलाया, लेकिन चीन और तुर्की के अलावा किसी भी देश ने भारत के निर्णय के खिलाफ बयान नहीं दिया. अमेरिकी प्रशासन ने तो साफ तौर पर कहा कि यह भारत का आंतरिक मामला है.
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राष्ट्रपति ट्रम्प ने कश्मीर मामले में मध्यस्थता की पेशकर करके इमरान खान को खुश करने की कोशिश की थी, लेकिन भारत ने इस कोशिश को तुरंत बेअसर कर दिया.
अब हाउडी मोदी रैली में शामिल होने की घोषणा करके राष्ट्पति ट्रम्प ने पाकिस्तान को भी स्पष्ट संदेश दिया है कि वह कश्मीर के मुद्दे पर भारत के खिलाफ समर्थन की उम्मीद न करें. अमेरिका और भारत के रिश्तों के संदर्भ में पाकिस्तान का अब कोई खास महत्व नहीं रहा है.
पिछले एक महीने से जिस तरह पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान भारत को परमाणु हमले की धमकी दे रहे हैं, उससे अमेरिकी प्रशासन इस नतीजे पर पहुंच चुका है कि पाकिस्तान एक गैर-जिम्मेदार देश है.
अमेरिकी रणनीति में अफगानिस्तान की वजह से पाकिस्तान का महत्व बना हुआ है. अब अफगान तालिबान के साथ बातचीत खत्म होने के बाद पाकिस्तान पर फिर अमेरिकी दबाव बढ़ रहा है कि वह अफगान तालिबान पर सैन्य व राजनयिक दबाव बढ़ाएं.
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पिछले दिनों के घटनाक्रम से पाकिस्तान को भी इस बात का अहसास हुआ है कि कश्मीर के मामले में अमेरिका कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहता है. ट्रम्प की मध्यस्थता की बात जुबानी जमा-खर्च के अलावा कुछ नहीं है.
हाउडी मोदी रैली में ट्रम्प की भागीदार से यह बात एक बार फिर प्रमाणित होगी कि भारत और अमेरिका रिश्ते पूरी तरह पाकिस्तान की काली छाया से मुक्त हो चुके हैं. पाकिस्तान को अब केवल एक चिढ़ पैदा करनेवाले तत्व के रूप में देखा जा रहा है, जिसको एक हद तक बर्दाश्त करना है.
(वरिष्ठ पत्रकार सुरेश बाफना)