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चीनी मिल और गन्ना किसान दोनों संकट में, किसान के जीवन से गायब है मिठास!

देश में लगभग पांच करोड़ परिवार चीनी क्षेत्र पर निर्भर हैं. भारत में ब्राजील के बाद दुनिया के दूसरे सबसे बड़े चीनी उत्पादक किसानों के जीवन में वह मिठास नहीं है. गन्ना किसानों और मिलों के लिए अनुकूल वातावरण की कमी के कारण, तेलुगु राज्यों में किसान धीरे-धीरे इस फसल को उगाने से पीछे हट रहे हैं.

Sugarcane farmer
गन्ना किसान
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Published : Dec 22, 2020, 7:40 AM IST

Updated : Dec 22, 2020, 1:40 PM IST

हैदराबाद: विश्व में चीनी उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी लगभग 17 प्रतिशत है. वर्षों से, हमने चीनी मिलों और गन्ना किसानों को संकट का सामना करते देखा है. इस संकट का कारण किसानों को मिलने वाली कम कीमतों और मिलों द्वारा उत्पादित चीनी की मांग में कमी है.

देश में चीनी उद्योग एक अभूतपूर्व संकट का सामना कर रहा है. गन्ने की खेती, चीनी उत्पादन और रिकवरी प्रतिशत में उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक देश के शीर्ष तीन स्थानों पर हैं. इन तीन राज्यों में 80 प्रतिशत गन्ना उत्पादन होता है. देश में चीनी उत्पादन 2015-16 में 2.48 करोड़ टन से बढ़कर 2017-18 में 3.23 करोड़ टन हो गया. 2019-20 तक, उत्पादन घटकर 2.72 करोड़ टन हो गया.

पढ़ें: महाराष्ट्र में 5 जनवरी तक नाइट कर्फ्यू, अनिवार्य क्वारंटाइन की भी घोषणा

देश में गन्ने के फसल वर्ष की शुरुआत के दो महीने बाद तेलुगु राज्यों में केवल आठ मिलों ने पेराई शुरू की है. आंध्र प्रदेश की कुल 29 मिलों में से 17 मिलें पूरी तरह से बंद थीं. शेष 12 में से केवल नौ ने ही इस बार परिचालन शुरू किया है. इस साल तेलंगाना में केवल सात मिलें ही चलेंगी. दशकों से फल-फूल रही चीनी मिलें घाटा नहीं झेल पाने के कारण बंद हो गईं हैं. कई चीनी मिलें आधुनिकीकरण कर पाने में असक्षम रहीं. प्रबंधन क्षमता में कमी के कारण भारी नुकसान हुआ.

एक टन गन्ने से 10 प्रतिशत रिकवरी के साथ 100 किलो चीनी का उत्पादन होता है. चीनी रिकवरी में उत्तर प्रदेश (13 प्रतिशत), महाराष्ट्र (12 प्रतिशत) और कर्नाटक (11 प्रतिशत) अग्रणी हैं. तेलुगु राज्यों में यह 9-9.5 प्रतिशत से अधिक नहीं है. दूसरी ओर केंद्र द्वारा घोषित समर्थन मूल्य भी गन्ना किसानों को नुकसान पहुंचा रहे हैं. गन्ने के लिए केंद्र द्वारा घोषित समर्थन मूल्य 10 प्रतिशत की वसूली पर 285 रुपये प्रति क्विंटल है. 2018-19 से यह 275 रुपये है.

गन्ना काटने वाले मजदूरों की बढ़ती मांग के कारण किसान को लागत बढ़ गई. सरकार द्वारा प्रति वर्ष सिर्फ 10 रुपये प्रति क्विंटल की वृद्धि करना किसानों पर अत्याचार है. पिछले तीन वर्षों में 10 प्रतिशत की वसूली पर मूल्य की घोषणा, जो पहले 9.5 प्रतिशत की वसूली पर तय की गई थी और यदि कीमत 9.5 प्रतिशत से कम हो जाती है, तो इसकी कीमत 270.75 रुपये प्रति क्विंटल स्थिर है, जो आगे चलकर किसानों को नुकसान की ओर धकेल रही है. यदि मजदूरों की कमी होती है और फसल को समय पर मिल में नहीं भेजा जाता है, तो गन्ने में सुक्रोज की उपज कम हो जाती है, जिससे किसानों को नुकसान हो रहा है.

पढ़ें: किसान आंदोलन : एक और अन्नदाता ने की आत्महत्या की कोशिश, भूख हड़ताल जारी

एक तरफ हमारी मिलों के लिए चीनी का उत्पादन लागत रुपये 37-38 प्रति किलो है, जबकि विक्रय मूल्य रुपये 31-32 प्रति किलो है. ये सभी नुकसान मिलों के अस्तित्व के आगे सवालिया निशान लगा दिया है. उद्योग जगत के सूत्रों की माने तो ये चिंता साफ है कि केंद्र सरकार घाटे के लिए किसी मुआवजे की गारंटी नहीं दे रही है. बदली परिस्थितियों के रौशनी में केंद्र सरकार चीनी उत्पादन के बजाय इथेनॉल के उत्पादन को बढ़ावा देने में ज्यादा रूचि दिखा रही है.

इसके लिए, केंद्र सरकार ने पिछले साल चीनी उद्योग को समर्थन देने के लिए 8,000 करोड़ रुपये के सहायता पैकेज की घोषणा की थी. इसके हिस्से के रूप में, केंद्र ने इथेनॉल उत्पादन बढ़ाने के लिए चीनी मिलों को 5,732 करोड़ रुपये का ऋण दिया है. केंद्र अगले दस वर्षों में 20 प्रतिशत इथेनॉल को पेट्रोल में मिलाने के उद्देश्य से उत्पादन क्षमता बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है, जिससे कच्चे तेल के आयात का बोझ कम हो जाने की उम्मीद है.

प्रति एकड़ अनिश्चित जुताई
फसल को कारखाने में ले जाने के बाद क्योंकि उन्हें समय पर पैसा नहीं दिया जाता है, किसान गन्ने की खेती करने से डरते हैं. परिणामस्वरूप, तेलुगु राज्यों में प्रति एकड़ गन्ना उत्पादन और चीनी उत्पादन में कोई स्थिरता नहीं है. स्थिति की गंभीरता को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि 2006-07 में एक लाख हेक्टेयर में गन्ने की खेती आज आंध्र प्रदेश में घटकर लगभग 49 हजार हेक्टेयर रह गई है. कच्ची चीनी को परिष्कृत करने के अलावा, गुड़, इथेनॉल, गन्ना लुगदी और बिजली के उत्पादन से अतिरिक्त राजस्व प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन किसान के पास कोई दूसरा स्रोत नहीं है.

केंद्र और राज्य सरकारों को चीनी और गुड़ का उत्पादन की पैदावार, इथेनॉल उत्पादन, शराब और जीएसटी से राजस्व में हजारों करोड़ रुपये का राजस्व मिल रहा है. हालांकि, किसानों की यूनियनों का आरोप है कि किसानों की बढ़ती लागत को पूरा करने के लिए गन्ने का समर्थन मूल्य तय नहीं किया गया है. गन्ना फसल बीमा लागू किया जाना चाहिए. किसानों को उत्तर प्रदेश की तर्ज पर अधिक उपज देने वाली नई किस्मों की आपूर्ति की जानी चाहिए और एक अच्छा समर्थन मूल्य दिया जाना चाहिए. उनके क्षेत्र में किसानों को प्रोत्साहन की घोषणा करके, उन्हें गन्ने की खेती से बंद करने से रोका जा सकता है और मिलें भी बचाई जा सकती हैं.

पढ़ें:किसान आंदोलन : साइकिल चलाकर पटियाला से दिल्ली पहुंचे 67 वर्षीय अमरजीत

मजदूरों की कमी के साथ-साथ समय पर कटौती के आदेशों के मद्देनजर, किसान चाहते हैं कि मिलें गन्ना काटने की मशीनों की आपूर्ति करें. उद्योग समूहों ने मिलों के आधुनिकीकरण में मदद करने के लिए वित्तीय आश्वासन देने का आह्वान किया है ताकि ये उपाय किसानों में उत्साह पैदा कर सकें और उनमें नई ऊर्जा भर सकें. इन मिलों और किसानों की बेहतरी के लिए केंद्र सरकार की पहल अहम साबित होने जा रही है.

वित्तीय आश्वासन है जरूरी
देश में वर्तमान में मौजूद 500 से अधिक चीनी मिलों में से 201 कारखानों में आसवन की क्षमता है. इनमें से 121 मिलें एथेनॉल का उत्पादन करती हैं. उनकी इथेनॉल उत्पादन क्षमता लगभग 380 करोड़ लीटर है. देश में चीनी मिलें मुख्य रूप से चीनी उत्पादन, कच्ची चीनी प्रसंस्करण और प्रत्यावर्तन, गन्ने का गुड़ और गन्ने की लुगदी से अपनी आय अर्जित करती हैं. चीनी मिलें बदलती परिस्थितियों के अनुरूप उद्योग को आधुनिक बनाने की कोशिश कर रही हैं.

उनका अनुरोध है कि केंद्र इस मामले में उनका समर्थन करे. चूंकि तेल कंपनियां अपने बकाया का तुरंत भुगतान कर रही हैं, चीनी मिलों को लगता है कि अगर वे चीनी उत्पादन की तुलना में इथेनॉल उत्पादन का विकल्प चुनते हैं तो उन्हें इससे फायदा होगा. देश की अधिकांश मिलें चीनी की बिक्री के माध्यम से समय पर पैसा नहीं कमा पाने के कारण बंद होती जा रही हैं, साथ ही किसानों को बकाया का भुगतान नहीं कर पा रही हैं. इन कारणों की वजह से पिछले पांच वर्षों में कई मिलें बंद हो गई हैं.

हैदराबाद: विश्व में चीनी उत्पादन में भारत की हिस्सेदारी लगभग 17 प्रतिशत है. वर्षों से, हमने चीनी मिलों और गन्ना किसानों को संकट का सामना करते देखा है. इस संकट का कारण किसानों को मिलने वाली कम कीमतों और मिलों द्वारा उत्पादित चीनी की मांग में कमी है.

देश में चीनी उद्योग एक अभूतपूर्व संकट का सामना कर रहा है. गन्ने की खेती, चीनी उत्पादन और रिकवरी प्रतिशत में उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक देश के शीर्ष तीन स्थानों पर हैं. इन तीन राज्यों में 80 प्रतिशत गन्ना उत्पादन होता है. देश में चीनी उत्पादन 2015-16 में 2.48 करोड़ टन से बढ़कर 2017-18 में 3.23 करोड़ टन हो गया. 2019-20 तक, उत्पादन घटकर 2.72 करोड़ टन हो गया.

पढ़ें: महाराष्ट्र में 5 जनवरी तक नाइट कर्फ्यू, अनिवार्य क्वारंटाइन की भी घोषणा

देश में गन्ने के फसल वर्ष की शुरुआत के दो महीने बाद तेलुगु राज्यों में केवल आठ मिलों ने पेराई शुरू की है. आंध्र प्रदेश की कुल 29 मिलों में से 17 मिलें पूरी तरह से बंद थीं. शेष 12 में से केवल नौ ने ही इस बार परिचालन शुरू किया है. इस साल तेलंगाना में केवल सात मिलें ही चलेंगी. दशकों से फल-फूल रही चीनी मिलें घाटा नहीं झेल पाने के कारण बंद हो गईं हैं. कई चीनी मिलें आधुनिकीकरण कर पाने में असक्षम रहीं. प्रबंधन क्षमता में कमी के कारण भारी नुकसान हुआ.

एक टन गन्ने से 10 प्रतिशत रिकवरी के साथ 100 किलो चीनी का उत्पादन होता है. चीनी रिकवरी में उत्तर प्रदेश (13 प्रतिशत), महाराष्ट्र (12 प्रतिशत) और कर्नाटक (11 प्रतिशत) अग्रणी हैं. तेलुगु राज्यों में यह 9-9.5 प्रतिशत से अधिक नहीं है. दूसरी ओर केंद्र द्वारा घोषित समर्थन मूल्य भी गन्ना किसानों को नुकसान पहुंचा रहे हैं. गन्ने के लिए केंद्र द्वारा घोषित समर्थन मूल्य 10 प्रतिशत की वसूली पर 285 रुपये प्रति क्विंटल है. 2018-19 से यह 275 रुपये है.

गन्ना काटने वाले मजदूरों की बढ़ती मांग के कारण किसान को लागत बढ़ गई. सरकार द्वारा प्रति वर्ष सिर्फ 10 रुपये प्रति क्विंटल की वृद्धि करना किसानों पर अत्याचार है. पिछले तीन वर्षों में 10 प्रतिशत की वसूली पर मूल्य की घोषणा, जो पहले 9.5 प्रतिशत की वसूली पर तय की गई थी और यदि कीमत 9.5 प्रतिशत से कम हो जाती है, तो इसकी कीमत 270.75 रुपये प्रति क्विंटल स्थिर है, जो आगे चलकर किसानों को नुकसान की ओर धकेल रही है. यदि मजदूरों की कमी होती है और फसल को समय पर मिल में नहीं भेजा जाता है, तो गन्ने में सुक्रोज की उपज कम हो जाती है, जिससे किसानों को नुकसान हो रहा है.

पढ़ें: किसान आंदोलन : एक और अन्नदाता ने की आत्महत्या की कोशिश, भूख हड़ताल जारी

एक तरफ हमारी मिलों के लिए चीनी का उत्पादन लागत रुपये 37-38 प्रति किलो है, जबकि विक्रय मूल्य रुपये 31-32 प्रति किलो है. ये सभी नुकसान मिलों के अस्तित्व के आगे सवालिया निशान लगा दिया है. उद्योग जगत के सूत्रों की माने तो ये चिंता साफ है कि केंद्र सरकार घाटे के लिए किसी मुआवजे की गारंटी नहीं दे रही है. बदली परिस्थितियों के रौशनी में केंद्र सरकार चीनी उत्पादन के बजाय इथेनॉल के उत्पादन को बढ़ावा देने में ज्यादा रूचि दिखा रही है.

इसके लिए, केंद्र सरकार ने पिछले साल चीनी उद्योग को समर्थन देने के लिए 8,000 करोड़ रुपये के सहायता पैकेज की घोषणा की थी. इसके हिस्से के रूप में, केंद्र ने इथेनॉल उत्पादन बढ़ाने के लिए चीनी मिलों को 5,732 करोड़ रुपये का ऋण दिया है. केंद्र अगले दस वर्षों में 20 प्रतिशत इथेनॉल को पेट्रोल में मिलाने के उद्देश्य से उत्पादन क्षमता बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है, जिससे कच्चे तेल के आयात का बोझ कम हो जाने की उम्मीद है.

प्रति एकड़ अनिश्चित जुताई
फसल को कारखाने में ले जाने के बाद क्योंकि उन्हें समय पर पैसा नहीं दिया जाता है, किसान गन्ने की खेती करने से डरते हैं. परिणामस्वरूप, तेलुगु राज्यों में प्रति एकड़ गन्ना उत्पादन और चीनी उत्पादन में कोई स्थिरता नहीं है. स्थिति की गंभीरता को इस तथ्य से समझा जा सकता है कि 2006-07 में एक लाख हेक्टेयर में गन्ने की खेती आज आंध्र प्रदेश में घटकर लगभग 49 हजार हेक्टेयर रह गई है. कच्ची चीनी को परिष्कृत करने के अलावा, गुड़, इथेनॉल, गन्ना लुगदी और बिजली के उत्पादन से अतिरिक्त राजस्व प्राप्त किया जा सकता है, लेकिन किसान के पास कोई दूसरा स्रोत नहीं है.

केंद्र और राज्य सरकारों को चीनी और गुड़ का उत्पादन की पैदावार, इथेनॉल उत्पादन, शराब और जीएसटी से राजस्व में हजारों करोड़ रुपये का राजस्व मिल रहा है. हालांकि, किसानों की यूनियनों का आरोप है कि किसानों की बढ़ती लागत को पूरा करने के लिए गन्ने का समर्थन मूल्य तय नहीं किया गया है. गन्ना फसल बीमा लागू किया जाना चाहिए. किसानों को उत्तर प्रदेश की तर्ज पर अधिक उपज देने वाली नई किस्मों की आपूर्ति की जानी चाहिए और एक अच्छा समर्थन मूल्य दिया जाना चाहिए. उनके क्षेत्र में किसानों को प्रोत्साहन की घोषणा करके, उन्हें गन्ने की खेती से बंद करने से रोका जा सकता है और मिलें भी बचाई जा सकती हैं.

पढ़ें:किसान आंदोलन : साइकिल चलाकर पटियाला से दिल्ली पहुंचे 67 वर्षीय अमरजीत

मजदूरों की कमी के साथ-साथ समय पर कटौती के आदेशों के मद्देनजर, किसान चाहते हैं कि मिलें गन्ना काटने की मशीनों की आपूर्ति करें. उद्योग समूहों ने मिलों के आधुनिकीकरण में मदद करने के लिए वित्तीय आश्वासन देने का आह्वान किया है ताकि ये उपाय किसानों में उत्साह पैदा कर सकें और उनमें नई ऊर्जा भर सकें. इन मिलों और किसानों की बेहतरी के लिए केंद्र सरकार की पहल अहम साबित होने जा रही है.

वित्तीय आश्वासन है जरूरी
देश में वर्तमान में मौजूद 500 से अधिक चीनी मिलों में से 201 कारखानों में आसवन की क्षमता है. इनमें से 121 मिलें एथेनॉल का उत्पादन करती हैं. उनकी इथेनॉल उत्पादन क्षमता लगभग 380 करोड़ लीटर है. देश में चीनी मिलें मुख्य रूप से चीनी उत्पादन, कच्ची चीनी प्रसंस्करण और प्रत्यावर्तन, गन्ने का गुड़ और गन्ने की लुगदी से अपनी आय अर्जित करती हैं. चीनी मिलें बदलती परिस्थितियों के अनुरूप उद्योग को आधुनिक बनाने की कोशिश कर रही हैं.

उनका अनुरोध है कि केंद्र इस मामले में उनका समर्थन करे. चूंकि तेल कंपनियां अपने बकाया का तुरंत भुगतान कर रही हैं, चीनी मिलों को लगता है कि अगर वे चीनी उत्पादन की तुलना में इथेनॉल उत्पादन का विकल्प चुनते हैं तो उन्हें इससे फायदा होगा. देश की अधिकांश मिलें चीनी की बिक्री के माध्यम से समय पर पैसा नहीं कमा पाने के कारण बंद होती जा रही हैं, साथ ही किसानों को बकाया का भुगतान नहीं कर पा रही हैं. इन कारणों की वजह से पिछले पांच वर्षों में कई मिलें बंद हो गई हैं.

Last Updated : Dec 22, 2020, 1:40 PM IST
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