नई दिल्ली : दुनिया के कई शोधकर्ता पार्किंसंस रोग में सम्बन्ध में यह अध्ययन कर रहे हैं कि किस प्रकार प्रोटीन एकत्रीकरण का निर्माण होता है और किस प्रकार एकत्रीकरण न्यूरोनल कोशिकाओं को खत्म कर देता है. उनका मानना है कि एक बार जब इन रहस्यों से पर्दा उठेगा तो इससे बीमारी के लिए दवा विकसित करने में मदद मिलेगी. इस दवा की बहुत जरूरत है और लंबे समय से इसकी मांग चली आ रही है.
दुर्भाग्य से, एएसवाईएन के एकत्रीकरण को समझना आसान नहीं है. एकत्रीकरण के अंतिम बिंदु पर छोटे पतले फाइबर या 'फाइब्रिल्स' का निर्माण होता है, जिसमें प्रोटीन की एक संरचना होती है, जिसे क्रॉस बीटा फोल्ड कहा जाता है. एक डाई, थियोफ्लेविन टी की मदद से फाइब्रिल्स का अच्छी तरह से अध्ययन किया गया है, जो क्रॉस-बीटा संरचना को बांधता है और दीप्ति उत्सर्जित करता है. वैज्ञानिकों ने फाइब्रिल्स की त्रि-आयामी संरचनाओं को हल किया है और यह भी सीखा है कि उन्हें लक्षित करने के लिए दवाओं को कैसे विकसित किया जाए. हालांकि, ये दवाएं नैदानिक परीक्षणों में काम नहीं करती हैं.
इन विफलताओं ने वैज्ञानिकों को यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि शायद उन्हें न केवल फ़िब्रिल्स को समझने की आवश्यकता है, बल्कि एकत्रीकरण की प्रक्रिया में जल्दी बनने वाले मध्यवर्ती की विविधता को भी समझाना जरूरी है. दुर्भाग्य से, इन मध्यवर्ती की संरचना का अभी तक हल निकाला नहीं जा सका है और इसलिए दवा वितरण तकनीक का उपयोग करके उन्हें लक्षित करना मुश्किल है. इसके अलावा, वैज्ञानिक एक ऐसे तरीके की भी खोज नहीं कर पाए हैं जिसके द्वारा एक एकल तकनीक प्रारंभिक मध्यवर्ती प्रजातियों और अंत में बनने वाली तंतुओं (फ़िब्रिल्स) दोनों की निगरानी कर सकती हों.
हाल ही में, आईआईटी (आईएसएम) धनबाद और सीएसआईआर-भारतीय रासायनिक जीवविज्ञान संस्थान, कोलकाता के वैज्ञानिकों ने इस मुद्दे का हल ढूढने के लिए हाथ मिलाया. आईआईटी (आईएसएम) टीम के प्रमुख डॉ उमाकांत त्रिपाठी, जो एक भौतिक विज्ञानी हैं, ने जेड-स्कैन तकनीक का उपयोग करते हुए बायोमैटिरियल्स के असमान व्यवहार का अध्ययन किया. जेड-स्कैन तकनीक मशीन उन्होंने खुद अपने गृह संस्थान में बनाई है. दूसरी ओर, सीएसआईआर-भारतीय रासायनिक जीवविज्ञान संस्थान के डॉ कृष्णानंद चट्टोपाध्याय एक बायोफिजिसिस्ट हैं, जो पार्किंसंस रोग में एएसवाईएन एकत्रीकरण और इसके प्रभाव को समझने के लिए काम कर रहे हैं.
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टीम ने पाया कि जेड-स्कैन विधि वास्तव में एक तकनीक है जिसकी उन्हें तलाश थी. यह एएसवाईएन के एकत्रीकरण के शुरुआती और बाद के - दोनों चरणों की निगरानी में मदद कर सकती है. उन्होंने पाया कि प्रोटीन में अपने मोनोमेरिक स्थिति से फाइब्रिलर संरचना तक असमानता है. उन्होंने तीन विशेष रूप से दिलचस्प तथ्य प्रस्तुत किये : पहला, प्रोटीन के अन्य अनुरूपों की तुलना में फाइब्रिल्स के मामले में, असमानता (नॉनलाइनियरिटी) की ताकत अपेक्षाकृत अधिक मजबूत होती है, और दूसरा, एकत्रीकरण के विभिन्न चरणों में एक विशिष्ट असमानता (नॉनलाइनियरिटी) है, जिसे लक्षित किया जा सकता है. तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण परिणाम, लगभग 24 घंटों में देर से बनाने वाले ओलिगोमर्स का निर्माण होता है जो असमानता (नॉनलिनेरिटी) के संकेत में बदलाव (स्विच) था.
टीम इस तथ्य को लेकर उत्साहित है, क्योंकि इन देर से बनने वाले ओलिगोमर्स को एएसआईएन की सबसे जहरीली प्रजाति माना जाता है और एक विधि - जो इन पर आसानी से नजर रखती है - वास्तव में दवा और नैदानिक अनुसंधान दोनों के लिए उपयोगी हो सकती है.
अगली कार्रवाई के बारे में पूछे जाने पर, डॉ चट्टोपाध्याय ने कहा, "सीएसआईआर-आईआईसीबी में मैं और मेरी टीम एक उपयुक्त पशु पार्किंसंस रोग मॉडल का उपयोग करते हुए एएसआईन एग्रीगेट एक्स विवो का अध्ययन करने के लिए जेड-स्कैन पद्धति का उपयोग करने के तरीके तलाश रहे हैं, जबकि डॉ त्रिपाठी और उनकी टीम ने इस पद्धति को अन्य प्रोटीन और पेप्टाइड्स तक विस्तारित करने की योजना बनाई है ताकि संरचना और अनुरूपों का पता लगाने के लिए उनके असमान (नॉनलिनेरिटी) गुणों की व्यवस्थित निगरानी की जा सके.
अध्ययन दल में सुमंत घोष, साक्षी, बिकास चंद्र स्वैन और रितोब्रिता चक्रवर्ती शामिल थी. उन्होंने एसीएस केमिकल न्यूरोसाइंस को अपने काम का शोध पत्र प्रस्तुत किया है. पत्रिका ने इसे प्रकाशित करना स्वीकार किया है.