जोधपुर: हम बात कर रहे हैं अमृता देवी विश्नोई और उन 363 लोगों की जिन्होंने पेड़ों को बचाने के लिए अपना जीवन कुर्बान कर दिया. बात 1730 की थी जिसे सदियां बीत गई है लेकिन वह जगह आज भी बड़ी पहचान के लिए मोहताज है. विश्नोई समाज के युवा गुमनाम इन 363 बलिदानियों को पर्यावरण शहीद का दर्जा देने की मांग कर रहे हैं. जिससे इनको पहचान मिले. पूरा देश इनके बलिदान से रूबरू होकर पर्यावरण संरक्षण के लिए आगे आए.
विश्नोई समाज के युवा विशेक विश्नोई ने यह बीड़ा उठाया हुआ है. विशेक इन बलिदानियों को पर्यावरण शहीद का दर्जा दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. उनका मानना है कि इस स्थल को राष्ट्रीय धरोहर के रूप में विकसित किए जाने की जरूरत है. इसकी मांग को लेकर वे दिल्ली जयपुर तक धरने दे चुके हैं. सरकार में इन बलिदानियों का कोई रिकॉर्ड तक नहीं है. एक बारगी केंद्रीय मंत्री अर्जुन मेघवाल ने इसको लेकर कुछ कदम आगे बढाए लेकिन बात नहीं बनी.
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खास बात यह भी है कि खेजडी को राज्य वृक्ष का दर्जा इस घटना से प्रेरित होकर ही दिया गया है. जिसके चलते खेजडी को काटने पर राजस्थान में प्रतिबंध है. खेजडी मंदिर से जुडे संत रामदास कहते हैं कि बिना वृक्ष कुछ भी नहीं है, विश्नोई समाज वन एवं पर्यावरण संरक्षण के लिए सदैव जागृत रहता है. जरूरत है तो अब सरकार को आगे आने की, जिससे बड़ी तादाद में लोग जुड़ सकें.
यह थी घटना
1730 में जोधपुर के महाराज अभयसिंह को महल निर्माण कार्य के लिए चूना बनाना था. इसके लिए खेजडी के वृक्ष की आवश्यकता थी तो उन्होंने अपने मंत्री गिरधर भंडारी को खेजडली और आस-पास की जगह जहां खेजडी अधिक मात्रा में थी काटकर लाने का हुक्म दिया. भंडारी ने कटाई शुरू करवा दी थी. यह देखकर अमृतादेवी विश्नोई और अन्य लोगों ने इसका विरोध किया और खेजडी की कटाई रोकने के लिए आग्रह किया लेकिन राजा के हुक्मदारों ने इसे नहीं माना तो वे लोग खेजडी से लिपट गए लेकिन पेड़ काटने वालों की कुल्हाडियां नहीं रूकी. 363 लोगों के सिर काट दिए गए. जिन्हें सामूहिक रूप से खेजडली में दफनाया गया. तब से विश्नोई समाज का ध्येय वाक्य बन गया कि सिर साखे रूंख बचे तो भी सस्तो जाण. यानी की सिर के बदले पेड़ बच जाए तो भी सस्ता ही है.