ETV Bharat / bharat

वैश्विक ताकतों का पुनर्गठन : क्या हम द्विध्रुवीय दुनिया की ओर बढ़ रहे हैं ?

कोरोना काल के दौरान ऐसा लग रहा है कि दुनिया दो समूहों में धीरे-धीरे विभाजित हो रही है. क्या यह हमें शीत युद्ध की याद दिला रहा है ? इस समय एक गुट का नेतृत्व अमेरिका के पास है, जबकि दूसरे का नेतृत्व चीन ओर रूस कर रहा है. मुख्य रूप से अमेरिका के साथ वैसे देश शामिल हैं, जहां लोकतंत्र है. यहां पर कानून का शासन, पारदर्शिता, मानवाधिकार और अल्पसंख्यकों के लिए सम्मान है. इसके ठीक उलट दूसरे समूह के पास सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत मूल्यों के प्रति नगण्य सम्मान है. आइए इस पर एक विश्लेषण पढ़ते हैं पूर्व राजनयिक अचल मल्होत्रा का.

Bipolar World
डिजाइन तस्वीर
author img

By

Published : Jul 26, 2020, 9:59 AM IST

Updated : Jul 26, 2020, 3:52 PM IST

कोरोना काल के दौरान देखी गई वैश्विक ताकतों के पुनर्गठन की धुंधली सी आकृति अब पहले से कहीं अधिक स्पष्ट दिखाई देने लगी है. यह संकेत कर रही है कि हमारी दुनिया अब नई शक्तियों के खंडों के बीच ध्रुवीकृत होने की ओर बढ़ रही है.

संक्षेप में याद दिलाते चलें कि 1991 में सोवियत संघ के बिखरने के बाद से शक्ति खंडों के बीच चल रहा शीतयुद्ध भी खत्म हो गया और स्वतः संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व में एक-ध्रुवीय दुनिया का निर्माण हुआ, जिसे यूरोप और अन्य सहयोगियों द्वारा समर्थन प्राप्त था. उस समय चीन अपने वर्तमान मजबूत आर्थिक और सैन्य कद के शैशव काल में था. भारत ने वैश्वीकरण और दुनिया के बाकी हिस्सों के साथ आर्थिक एकीकरण के माध्यम से आधुनिक दुनिया में अपनी जगह फिर से तलाशनी शुरू कर दी थी. उसने यह करने के लिए संबंधों के विविधीकरण का भी सहारा लिया था.

सोवियत काल के बाद का समय
सोवियत काल के बाद की अवधि में बहुत कुछ हुआ है, जिसने शुरुआत में एक बहु-ध्रुवीय दुनिया की संभावनाओं को साफ किया. जिसमें चीन, रूस, भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका को वैश्विक शासन की संस्थाओं में सुधार करते हुए और विकासशील देशों और उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए समतल मैदान तैयार कर वैश्विक मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की उम्मीद थी. हालांकि, कई कारणों से दुनिया एक अलग दिशा में चलती दिखाई दे रही है. इस खींचतान के पीछे कई कारक हैं, जिनकी चर्चा यहां की गई है.

संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप-रूस के बीच बढ़ती खाई और रूस का चीन की ओर रुख
सोवियत संघ के खात्मे के तत्काल बाद संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ कई राजनीतिक वैचारिक, आर्थिक और रणनीतिक उद्देश्यों के साथ सोवियत संघ द्वारा खाली किए गए स्थान को भरने के लिए तेजी से आगे बढ़े. वह यूरोप में साम्यवाद के पतन को अपरिवर्तनीय बनाना चाहते थे और नए उभरे स्वतंत्र देशों को यूरो-अटलांटिक संरचनाओं के साथ पूरी तरह से एकीकृत करना चाहते थे. उनकी रुचि कैस्पियन और मध्य एशिया में ऊर्जा संसाधनों की प्रचुरता में थी. विशेष रूप से यूरोप रूसी संघ पर निर्भरता को कम करने के लिए विकल्प तलाश रहा था.

यूरोपीय संघ और नाटो का पूर्व की ओर विस्तार और रूसी संघ के अहाते में तेजी से बढ़ती उपस्थिति को रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन द्वारा सहन/अनदेखा किया गया था, जिसका 2000 में रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने दृढ़ता से यह कहते हुए विरोध किया था कि इससे रूस की सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा. (रूस पूर्व सोवियत गणराज्यों और सोवियत संघ से उपजे उपग्रह देशों को अपने निकटवर्ती क्षेत्र में रूस के नियर अब्रॉड या करीबी विदेश के रूप में वर्णित करता है और इनको अपने प्राकृतिक प्रभाव के क्षेत्र के रूप में मानता है). अप्रैल 2008 के घोषणा पत्र, जिसमें जॉर्जिया और यूक्रेन को नाटो (एक अनिर्दिष्ट तिथि पर) में प्रवेश दिए जाने की बात कही गई और अमेरिकी और कुछ यूरोपीय देशों द्वारा कोसोवो की स्वतंत्रता को मान्यता दे दी गई. इन कदमों ने रूस को जॉर्जिया से अलग हुए अबाधिया और दक्षिण ओसेशिया की स्वतंत्रता को मान्यता देने के लिए उकसाया और बाद में 2014 में यूक्रेन में क्रीमिया के शामिल होने का कारण भी बने. इन और अन्य कारणों से रूस और पश्चिम के बीच की खाई और चौड़ी हो गई, विशेष रूप से तब जब रूस को अमेरिकी दंडात्मक प्रतिबंधों के कारण आर्थिक कठिनाइयों में डाल दिया गया. एक सुविधाजनक साथी की तलाश में चीन की ओर रूस का त्वरित बहाव इस प्रकार अपरिहार्य था.

पढ़ें : गलवान हिंसा : घटनास्थल पर 40 दिनों से पड़े हैं बड़ी संख्या में सैन्य वाहन

चीन-रूस : संबंध काफी घनिष्ट हुए
2019 तक आते-आते रूस और चीन के बीच संबंध एक नए युग के लिए समन्वय की व्यापक रणनीतिक साझेदारी तक पहुंच गए हैं, जो क्षेत्रीय और वैश्विक मुद्दों पर समन्वित दृष्टिकोण अपनाने के अलावा कई क्षेत्रों में द्विपक्षीय सहयोग की परिकल्पना भी करते हैं. दो तरफा व्यापार 2018 में 100 बिलियन डॉलर से बढ़कर 108 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया है, जिसमें व्यापार में संतुलन रखना कोई गंभीर मुद्दा नहीं है. उन प्रमुख क्षेत्रों में ऊर्जा का क्षेत्र एक ऐसे रूप में उभरा है, जिससे दोनों देशों को बराबर से फायदा पहुंच रहा है. रक्षा क्षेत्र में सहयोग बढ़ रहा है. सीमा विवादों को भी तकरीबन हल किया जा चुका है. यह संबंध पारस्परिक रूप से सामंजस्यपूर्ण और पूरक बन रहे हैं.

चीन और ईरान के बीच बढ़तीं नजदीकियां
अमेरिका द्वारा ईरान परमाणु समझौते (मई 2018) पर विराम लगाना और ईरान पर कड़े प्रतिबंधों को फिर से लागू करने के बाद से ईरान की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचा है. इससे पहले अमेरिका ने (अगस्त, 2017) कात्सा (प्रतिबंधों के द्वारा अमेरिका के प्रतिपक्षों को जवाब) लागू किया था और ईरान, रूस और उत्तर कोरिया पर प्रतिबंध लगाए थे और अमेरिका के प्रतिपक्षों के साथ अन्य देशों के व्यवहार पर प्रतिबंध भी लगा दिया था.

ईरान और अमरीका के बिगड़ते संबंधों के बीच, चीन और ईरान के दरमियान 400 बिलियन डॉलर के आर्थिक और सुरक्षा सौदों की खबरें आई हैं. चीन द्वारा ईरान में अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ ऊर्जा के क्षेत्र में निवेश करने की उम्मीद है और बदले में उससे रियायती तेल और गैस प्राप्त करेगा. यह समझौता ईरान को अलग-थलग करने और उसकी कथित परमाणु महत्वाकांक्षाओं के लिए उसे दंडित करने के संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रयासों को कमजोर करेगा.

चीन का सहूलियत के संबंधों में विस्तार
वैश्विक परिदृश्य इस प्रकार विकसित हुआ है, जिसने चीन, रूस और ईरान के बीच संबंध के क्रमिक गठन की सुविधा प्रदान की है. पाकिस्तान और उत्तर कोरिया पहले से ही कमोबेश चीन के ग्राहक-राज्य थे. हाल ही में नेपाल और श्रीलंका भी चीन के शिविर में शामिल हो गए हैं. भारत के क्षेत्र पर नेपाल का मानचित्र द्वारा अतिक्रमण और कोलंबो बंदरगाह पर ईस्ट कंटेनर टर्मिनल के विकास के लिए श्रीलंका-भारत-जापान संयुक्त परियोजना पर श्रीलंका द्वारा समीक्षा करने का निर्णय साफतौर पर चीन के हस्तक्षेप की ओर इशारा करता है. चीन अफ्रीका और कुछ अन्य छोटे देशों द्वारा दिए जाने वाले समर्थन पर भरोसा कर सकता है.

चीन के खिलाफ वैश्विक बलों का संरेखण
रॉयटर्स के अनुसार चाइना इंस्टीट्यूट ऑफ कंटेम्परेरी इंटरनेशनल रिलेशंस, (जो चीन की शीर्ष खुफिया एजेंसी से संबद्ध एक सरकारी-थिंक टैंक है) ने अप्रैल 2020 में एक आंतरिक रिपोर्ट प्रसारित की, जिसमें यह निष्कर्ष निकाला गया कि 1989 में हुए तियानमेन स्क्वायर के दमन के बाद वर्त्तमान में वैश्विक चीन विरोधी भावना अपने उच्चतम स्तर पर है. वास्तव में यह एक खरा और स्पष्ट निष्कर्ष. रॉयटर्स ने इससे अधिक जानकारी नहीं दी है. हालाँकि इसके कई कारण जग जाहिर हैं और कुछ की चर्चा यहां की गई हैं. यह मुख्य रूप से महाद्वीपों में चीन की बढ़ती शक्ति, पदचिह्न और प्रभाव के कारण हुआ है. साथ ही अनुचित तरीकों से आर्थिक दासता के मार्ग से दुनिया को जीतने की महत्वाकांक्षा भी एक कारक है. चीन द्वारा दी जाने वाली अंतर्राष्ट्रीय सहायता और सहायक नीति, विशेष रूप से बेल्ट और रोड इनिशिएटिव परियोजना और इसके उप-उत्पाद यानी चीन की ऋण-जाल नीति के तहत बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं का विकास सभी के गंभीर तौर पर भू-राजनीतिक व रणनीतिक और सुरक्षा के परिपेक्ष में निहितार्थ है. संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत सहित अधिकांश बड़े देश, चीन के साथ भारी व्यापार घाटे से चिंतित हैं. चीन द्वारा उसके बाजारों में विदेशी कंपनियों को दी जाने वाली सीमित पहुंच और उसके राज्य द्वारा संचालित उद्यमों को दी जाने वाली ज्यादा तरजीह की नीति भी चिंता का कारण है. चीन पर साइबर जासूसी करने का आरोप भी है. विवादित दक्षिण चीन सागर और पूर्वी चीन सागर में चीन की आक्रामकता को उस क्षेत्र में नौपरिवहन और विमानन की स्वतंत्रता के लिए खतरा माना जाता है, जहां से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार अरबों डॉलर का होता है.

पढ़ें : ईरान को लेकर अमेरिका से अलग हैं भारत के रास्ते : भारतीय दूत

कोविड 19 महामारी को फैलाने में चीन की संदिग्ध भूमिका मानी जा रही है. साथ ही चीन द्वारा दोषपूर्ण चिकित्सा उपकरण बेचकर भयावह संकट का फायदा उठाने व विदेश में संपत्ति हासिल करने की कोशिशों ने न केवल चीन की अंतरराष्ट्रीय छवि और प्रतिष्ठा को धूमिल किया है, बल्कि इसके परिणाम स्वरूप चीन विरोधी अभियान छिड़ गया है, जिसका उद्देश्य चीन को वहां घात पहुंचाना है, जहां उसे सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचे, यानी चीन की अर्थव्यस्था पर. उसकी अर्थव्यवस्था को कमजोर कर उसकी वैश्विक महत्वाकांक्षाओं को घटाने की रणनीति अपनाई जा रही है. इसके निवेशों की जांच करने के लिए तंत्र को तैयार किया जा रहा है. चीनी कंपनियों को दिए गए अनुबंधों की समीक्षा की जा रही है या उन्हें रद्द किया जा रहा है. हुआवेई के प्रवेश को अवरुद्ध किया जा रहा है और विनिर्माण कंपनियों को चीन से बाहर जाने के लिए प्रोत्साहन की पेशकश की जा रही है. संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके साझेदार भारतीय-प्रशांत महासागर में समुद्री ताकत पर जोर आजमा रहे हैं और चतुर्भुज (अमेरिका-जापान-ऑस्ट्रेलिया-भारत का संघ) क्षेत्र में चीन की विस्तारवादी नीतियों के खिलाफ मोर्चा खोलने की तैयारी में जुट गए हैं. संयुक्त राज्य अमेरिका चीन विरोधी वक्तव्य देने में सबसे अधिक मुखर है. यूरोपीय संघ भी इस मुद्दे पर सख्त रुख अपना रहा है. जापान, ऑस्ट्रेलिया और कुछ आसियान देशों के पास इस मुहिम में शामिल होने के अपने कारण हैं. भारत में भी जनता के बीच चीन के खिलाफ एक मजबूत भावना बढ़ रही है.

अंतिम परिणाम
वर्तमान में होने वाले पुनर्गठन के अंतिम परिणाम के रूप में हम जल्द ही दो अलग-अलग समूहों को आपस में खुले तौर पर एक दूसरे के खिलाफ खड़ा हुआ देख सकते हैं. दिलचस्प बात यह है कि संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा प्रोत्साहित किए जाने वाले समूह में वह देश शामिल हैं, जो सार्वभौमिक मूल्यों जैसे कि लोकतंत्र, कानून का शासन, पारदर्शिता, मानवाधिकार व अल्पसंख्यकों के लिए सम्मान आदि को सर्वप्रथम प्राथमिकता देते हैं, जबकि दूसरे समूह के बारे में ऐसा कुछ भी नहीं कहा जा सकता है, जिसके केंद्र में चीन है और रूस, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया और ईरान इसके प्रमुख सदस्य हैं, जिनके पास सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत मूल्यों के प्रति नगण्य सम्मान है. क्या फिर हम 'लोकतंत्रों के गठबंधन' बनाम 'अनियंत्रित शासकों के संघ' की ओर बढ़ रहे हैं?

(अचल मल्होत्रा, पूर्व राजनयिक, जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र में डब्ल्यूएचओ, डब्ल्यूआईपीओ और आईएलओ में सेवाएं दीं)

कोरोना काल के दौरान देखी गई वैश्विक ताकतों के पुनर्गठन की धुंधली सी आकृति अब पहले से कहीं अधिक स्पष्ट दिखाई देने लगी है. यह संकेत कर रही है कि हमारी दुनिया अब नई शक्तियों के खंडों के बीच ध्रुवीकृत होने की ओर बढ़ रही है.

संक्षेप में याद दिलाते चलें कि 1991 में सोवियत संघ के बिखरने के बाद से शक्ति खंडों के बीच चल रहा शीतयुद्ध भी खत्म हो गया और स्वतः संयुक्त राज्य अमेरिका के नेतृत्व में एक-ध्रुवीय दुनिया का निर्माण हुआ, जिसे यूरोप और अन्य सहयोगियों द्वारा समर्थन प्राप्त था. उस समय चीन अपने वर्तमान मजबूत आर्थिक और सैन्य कद के शैशव काल में था. भारत ने वैश्वीकरण और दुनिया के बाकी हिस्सों के साथ आर्थिक एकीकरण के माध्यम से आधुनिक दुनिया में अपनी जगह फिर से तलाशनी शुरू कर दी थी. उसने यह करने के लिए संबंधों के विविधीकरण का भी सहारा लिया था.

सोवियत काल के बाद का समय
सोवियत काल के बाद की अवधि में बहुत कुछ हुआ है, जिसने शुरुआत में एक बहु-ध्रुवीय दुनिया की संभावनाओं को साफ किया. जिसमें चीन, रूस, भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका को वैश्विक शासन की संस्थाओं में सुधार करते हुए और विकासशील देशों और उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए समतल मैदान तैयार कर वैश्विक मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की उम्मीद थी. हालांकि, कई कारणों से दुनिया एक अलग दिशा में चलती दिखाई दे रही है. इस खींचतान के पीछे कई कारक हैं, जिनकी चर्चा यहां की गई है.

संयुक्त राज्य अमेरिका, यूरोप-रूस के बीच बढ़ती खाई और रूस का चीन की ओर रुख
सोवियत संघ के खात्मे के तत्काल बाद संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोपीय संघ कई राजनीतिक वैचारिक, आर्थिक और रणनीतिक उद्देश्यों के साथ सोवियत संघ द्वारा खाली किए गए स्थान को भरने के लिए तेजी से आगे बढ़े. वह यूरोप में साम्यवाद के पतन को अपरिवर्तनीय बनाना चाहते थे और नए उभरे स्वतंत्र देशों को यूरो-अटलांटिक संरचनाओं के साथ पूरी तरह से एकीकृत करना चाहते थे. उनकी रुचि कैस्पियन और मध्य एशिया में ऊर्जा संसाधनों की प्रचुरता में थी. विशेष रूप से यूरोप रूसी संघ पर निर्भरता को कम करने के लिए विकल्प तलाश रहा था.

यूरोपीय संघ और नाटो का पूर्व की ओर विस्तार और रूसी संघ के अहाते में तेजी से बढ़ती उपस्थिति को रूसी राष्ट्रपति बोरिस येल्तसिन द्वारा सहन/अनदेखा किया गया था, जिसका 2000 में रूसी राष्ट्रपति पुतिन ने दृढ़ता से यह कहते हुए विरोध किया था कि इससे रूस की सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा. (रूस पूर्व सोवियत गणराज्यों और सोवियत संघ से उपजे उपग्रह देशों को अपने निकटवर्ती क्षेत्र में रूस के नियर अब्रॉड या करीबी विदेश के रूप में वर्णित करता है और इनको अपने प्राकृतिक प्रभाव के क्षेत्र के रूप में मानता है). अप्रैल 2008 के घोषणा पत्र, जिसमें जॉर्जिया और यूक्रेन को नाटो (एक अनिर्दिष्ट तिथि पर) में प्रवेश दिए जाने की बात कही गई और अमेरिकी और कुछ यूरोपीय देशों द्वारा कोसोवो की स्वतंत्रता को मान्यता दे दी गई. इन कदमों ने रूस को जॉर्जिया से अलग हुए अबाधिया और दक्षिण ओसेशिया की स्वतंत्रता को मान्यता देने के लिए उकसाया और बाद में 2014 में यूक्रेन में क्रीमिया के शामिल होने का कारण भी बने. इन और अन्य कारणों से रूस और पश्चिम के बीच की खाई और चौड़ी हो गई, विशेष रूप से तब जब रूस को अमेरिकी दंडात्मक प्रतिबंधों के कारण आर्थिक कठिनाइयों में डाल दिया गया. एक सुविधाजनक साथी की तलाश में चीन की ओर रूस का त्वरित बहाव इस प्रकार अपरिहार्य था.

पढ़ें : गलवान हिंसा : घटनास्थल पर 40 दिनों से पड़े हैं बड़ी संख्या में सैन्य वाहन

चीन-रूस : संबंध काफी घनिष्ट हुए
2019 तक आते-आते रूस और चीन के बीच संबंध एक नए युग के लिए समन्वय की व्यापक रणनीतिक साझेदारी तक पहुंच गए हैं, जो क्षेत्रीय और वैश्विक मुद्दों पर समन्वित दृष्टिकोण अपनाने के अलावा कई क्षेत्रों में द्विपक्षीय सहयोग की परिकल्पना भी करते हैं. दो तरफा व्यापार 2018 में 100 बिलियन डॉलर से बढ़कर 108 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया है, जिसमें व्यापार में संतुलन रखना कोई गंभीर मुद्दा नहीं है. उन प्रमुख क्षेत्रों में ऊर्जा का क्षेत्र एक ऐसे रूप में उभरा है, जिससे दोनों देशों को बराबर से फायदा पहुंच रहा है. रक्षा क्षेत्र में सहयोग बढ़ रहा है. सीमा विवादों को भी तकरीबन हल किया जा चुका है. यह संबंध पारस्परिक रूप से सामंजस्यपूर्ण और पूरक बन रहे हैं.

चीन और ईरान के बीच बढ़तीं नजदीकियां
अमेरिका द्वारा ईरान परमाणु समझौते (मई 2018) पर विराम लगाना और ईरान पर कड़े प्रतिबंधों को फिर से लागू करने के बाद से ईरान की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचा है. इससे पहले अमेरिका ने (अगस्त, 2017) कात्सा (प्रतिबंधों के द्वारा अमेरिका के प्रतिपक्षों को जवाब) लागू किया था और ईरान, रूस और उत्तर कोरिया पर प्रतिबंध लगाए थे और अमेरिका के प्रतिपक्षों के साथ अन्य देशों के व्यवहार पर प्रतिबंध भी लगा दिया था.

ईरान और अमरीका के बिगड़ते संबंधों के बीच, चीन और ईरान के दरमियान 400 बिलियन डॉलर के आर्थिक और सुरक्षा सौदों की खबरें आई हैं. चीन द्वारा ईरान में अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ ऊर्जा के क्षेत्र में निवेश करने की उम्मीद है और बदले में उससे रियायती तेल और गैस प्राप्त करेगा. यह समझौता ईरान को अलग-थलग करने और उसकी कथित परमाणु महत्वाकांक्षाओं के लिए उसे दंडित करने के संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रयासों को कमजोर करेगा.

चीन का सहूलियत के संबंधों में विस्तार
वैश्विक परिदृश्य इस प्रकार विकसित हुआ है, जिसने चीन, रूस और ईरान के बीच संबंध के क्रमिक गठन की सुविधा प्रदान की है. पाकिस्तान और उत्तर कोरिया पहले से ही कमोबेश चीन के ग्राहक-राज्य थे. हाल ही में नेपाल और श्रीलंका भी चीन के शिविर में शामिल हो गए हैं. भारत के क्षेत्र पर नेपाल का मानचित्र द्वारा अतिक्रमण और कोलंबो बंदरगाह पर ईस्ट कंटेनर टर्मिनल के विकास के लिए श्रीलंका-भारत-जापान संयुक्त परियोजना पर श्रीलंका द्वारा समीक्षा करने का निर्णय साफतौर पर चीन के हस्तक्षेप की ओर इशारा करता है. चीन अफ्रीका और कुछ अन्य छोटे देशों द्वारा दिए जाने वाले समर्थन पर भरोसा कर सकता है.

चीन के खिलाफ वैश्विक बलों का संरेखण
रॉयटर्स के अनुसार चाइना इंस्टीट्यूट ऑफ कंटेम्परेरी इंटरनेशनल रिलेशंस, (जो चीन की शीर्ष खुफिया एजेंसी से संबद्ध एक सरकारी-थिंक टैंक है) ने अप्रैल 2020 में एक आंतरिक रिपोर्ट प्रसारित की, जिसमें यह निष्कर्ष निकाला गया कि 1989 में हुए तियानमेन स्क्वायर के दमन के बाद वर्त्तमान में वैश्विक चीन विरोधी भावना अपने उच्चतम स्तर पर है. वास्तव में यह एक खरा और स्पष्ट निष्कर्ष. रॉयटर्स ने इससे अधिक जानकारी नहीं दी है. हालाँकि इसके कई कारण जग जाहिर हैं और कुछ की चर्चा यहां की गई हैं. यह मुख्य रूप से महाद्वीपों में चीन की बढ़ती शक्ति, पदचिह्न और प्रभाव के कारण हुआ है. साथ ही अनुचित तरीकों से आर्थिक दासता के मार्ग से दुनिया को जीतने की महत्वाकांक्षा भी एक कारक है. चीन द्वारा दी जाने वाली अंतर्राष्ट्रीय सहायता और सहायक नीति, विशेष रूप से बेल्ट और रोड इनिशिएटिव परियोजना और इसके उप-उत्पाद यानी चीन की ऋण-जाल नीति के तहत बुनियादी ढांचे से जुड़ी परियोजनाओं का विकास सभी के गंभीर तौर पर भू-राजनीतिक व रणनीतिक और सुरक्षा के परिपेक्ष में निहितार्थ है. संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत सहित अधिकांश बड़े देश, चीन के साथ भारी व्यापार घाटे से चिंतित हैं. चीन द्वारा उसके बाजारों में विदेशी कंपनियों को दी जाने वाली सीमित पहुंच और उसके राज्य द्वारा संचालित उद्यमों को दी जाने वाली ज्यादा तरजीह की नीति भी चिंता का कारण है. चीन पर साइबर जासूसी करने का आरोप भी है. विवादित दक्षिण चीन सागर और पूर्वी चीन सागर में चीन की आक्रामकता को उस क्षेत्र में नौपरिवहन और विमानन की स्वतंत्रता के लिए खतरा माना जाता है, जहां से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार अरबों डॉलर का होता है.

पढ़ें : ईरान को लेकर अमेरिका से अलग हैं भारत के रास्ते : भारतीय दूत

कोविड 19 महामारी को फैलाने में चीन की संदिग्ध भूमिका मानी जा रही है. साथ ही चीन द्वारा दोषपूर्ण चिकित्सा उपकरण बेचकर भयावह संकट का फायदा उठाने व विदेश में संपत्ति हासिल करने की कोशिशों ने न केवल चीन की अंतरराष्ट्रीय छवि और प्रतिष्ठा को धूमिल किया है, बल्कि इसके परिणाम स्वरूप चीन विरोधी अभियान छिड़ गया है, जिसका उद्देश्य चीन को वहां घात पहुंचाना है, जहां उसे सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचे, यानी चीन की अर्थव्यस्था पर. उसकी अर्थव्यवस्था को कमजोर कर उसकी वैश्विक महत्वाकांक्षाओं को घटाने की रणनीति अपनाई जा रही है. इसके निवेशों की जांच करने के लिए तंत्र को तैयार किया जा रहा है. चीनी कंपनियों को दिए गए अनुबंधों की समीक्षा की जा रही है या उन्हें रद्द किया जा रहा है. हुआवेई के प्रवेश को अवरुद्ध किया जा रहा है और विनिर्माण कंपनियों को चीन से बाहर जाने के लिए प्रोत्साहन की पेशकश की जा रही है. संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके साझेदार भारतीय-प्रशांत महासागर में समुद्री ताकत पर जोर आजमा रहे हैं और चतुर्भुज (अमेरिका-जापान-ऑस्ट्रेलिया-भारत का संघ) क्षेत्र में चीन की विस्तारवादी नीतियों के खिलाफ मोर्चा खोलने की तैयारी में जुट गए हैं. संयुक्त राज्य अमेरिका चीन विरोधी वक्तव्य देने में सबसे अधिक मुखर है. यूरोपीय संघ भी इस मुद्दे पर सख्त रुख अपना रहा है. जापान, ऑस्ट्रेलिया और कुछ आसियान देशों के पास इस मुहिम में शामिल होने के अपने कारण हैं. भारत में भी जनता के बीच चीन के खिलाफ एक मजबूत भावना बढ़ रही है.

अंतिम परिणाम
वर्तमान में होने वाले पुनर्गठन के अंतिम परिणाम के रूप में हम जल्द ही दो अलग-अलग समूहों को आपस में खुले तौर पर एक दूसरे के खिलाफ खड़ा हुआ देख सकते हैं. दिलचस्प बात यह है कि संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा प्रोत्साहित किए जाने वाले समूह में वह देश शामिल हैं, जो सार्वभौमिक मूल्यों जैसे कि लोकतंत्र, कानून का शासन, पारदर्शिता, मानवाधिकार व अल्पसंख्यकों के लिए सम्मान आदि को सर्वप्रथम प्राथमिकता देते हैं, जबकि दूसरे समूह के बारे में ऐसा कुछ भी नहीं कहा जा सकता है, जिसके केंद्र में चीन है और रूस, पाकिस्तान, उत्तर कोरिया और ईरान इसके प्रमुख सदस्य हैं, जिनके पास सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत मूल्यों के प्रति नगण्य सम्मान है. क्या फिर हम 'लोकतंत्रों के गठबंधन' बनाम 'अनियंत्रित शासकों के संघ' की ओर बढ़ रहे हैं?

(अचल मल्होत्रा, पूर्व राजनयिक, जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र में डब्ल्यूएचओ, डब्ल्यूआईपीओ और आईएलओ में सेवाएं दीं)

Last Updated : Jul 26, 2020, 3:52 PM IST
ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.