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झूठे एनकाउंटर के कारण लोगों का कानून से विश्वास उठता है : उज्ज्वल निकम

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Published : Jul 14, 2020, 4:12 PM IST

Updated : Jul 14, 2020, 5:05 PM IST

उत्तर प्रदेश में कानपुर के कुख्यात गैंगस्टर विकास दुबे की पुलिस एनकाउंटर में मौत के बाद देश की न्यायिक प्रणाली को लेकर एक बार फिर काफी सवाल-जवाब हो रहे हैं. यूपी पुलिस के आठ जवानों की घेरकर हत्या करने वाले अपराधी विकास को उज्जैन से कानपुर लाते समय पुलिस एनकाउंटर में ढेर किया गया था. उसके सफाए के बाद सामान्य जनमानस ने जहां खुशी जाहिर की वहीं कुछ अन्य लोगों ने इसे फेक एनकाउंटर करार दिया. फेक एनकाउंटर और भारतीय न्याय प्रणाली से जुड़े कुछ अन्य मुद्दों को लेकर हमारे नेशनल ब्यूरो चीफ राकेश त्रिपाठी ने विशेष सरकारी वकील उज्जवल निकम से विस्तृत बातचीत की. आइए जानते हैं कि उज्वल निकम की इस बाबत क्या राय है...

राकेश त्रिपाठी की उज्जवल निकम से बातचीत.
राकेश त्रिपाठी की उज्जवल निकम से बातचीत.

नई दिल्ली : उत्तर प्रदेश पुलिस के आठ जवानों के हत्यारोपी व कुख्यात गैंगस्टर विकास दुबे की पुलिस एनकाउंटर में मौत के बाद फेक एनकाउंटर (फर्जी मुठभेड़) को लेकर एक बार फिर चर्चा निकल पड़ी है. चर्चा का केंद्र यह भी है कि जब कोई मुल्जिम सरेंडर करता है. लेकिन सरेंडर के बाद मुठभेड़ दिखाई जाती है तो लोगों के मन में एक संदेह उत्पन्न होता है और उसका सीधा असर क्रिमिनल जस्टिस पर पड़ता है. विशेष सरकारी वकील उज्जवल निकम भी मानते हैं फेक एनकाउंटर से इस बात का डर उत्पन्न होता है कि लोगों का कानून पर से विश्वास उठ जाएगा.

सवाल : हाल ही में कानपुर के एक बड़े गैंगस्टर का यूपी पुलिस ने एनकाउंटर किया है. क्या इस तरह के एनकाउंटर का सीधा रिश्ता क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की नाकामी से जुड़ा हुआ है?

पुलिस और गुनहगारों की मुठभेड़ अक्सर होती है और उस मुठभेड़ में गुनहगार मारे भी जाते हैं. इसलिए एनकाउंटर कोई गैरकानूनी है, ऐसा मैं नहीं मानता. लेकिन जब कोई मुल्जिम सरेंडर करता है और सरेंडर के बाद अगर मुठभेड़ दिखाई जाती है तो लोगों के मन में एक संदेह उत्पन्न होता है. उसका सीधा असर क्रिमिनल जस्टिस पर पड़ता है. आज गुनहगारों को जल्द सजा नहीं होती और जो नामचीन गुंडे होते हैं, उनके खिलाफ लोगों में दहशत रहती है. इसी वजह से कोई उनके खिलाफ सबूत नहीं देना चाहता और ऐसे गुनहगार जब छूट जाते हैं तो लोग सोचते हैं कि कानून अंधा क्यों हो गया.

अगर किसी नामचीन गुंडे का एनकाउंटर होता है तो लोगों को अच्छा लगता है. अगर यह एनकाउंटर फेक होता है तो मुझे डर इस बात का है कि लोगों का कानून पर से विश्वास उठ जाएगा, जो हमारे लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है. इसलिए ज्युडिशियरी को भी आत्मनिरीक्षण करना चाहिए. ऐसे संगीन अपराधियों के खिलाफ मामले कैसे जल्दी चलाए जाएं और लोगों के मन में कानून के प्रति श्रद्धा कैसे बढ़े. क्योंकि कानून नियम पर चलता है तो लोगों में कानून के प्रति श्रद्धा होनी ही चाहिए. इसलिए एनकाउंटर किस सिचुएशन में हुआ है, यह इस पर निर्भर होता है कि यह एनकाउंटर मनगढ़ंत है या वास्तविक.

राकेश त्रिपाठी की उज्जवल निकम से बातचीत.

सवाल : कानपुर के एनकाउंटर पर आप क्या कहेंगे?

देखिए, आज कोई निष्कर्ष निकालना गलत होगा. पुलिस का जो बयान था कि जब उसे उज्जैन से कानपुर ले जाया जा रहा था तो गाड़ी पलट गई और उसने पुलिस पर फायरिंग की. पुलिस ने सेल्फ डिफेंस में फायरिंग की. एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि जो गुनहगार खुद सरेंडर करता है और पुलिस जब उसे हिरासत में लेती है तो वह जोर से कहता है कि मैं विकास दुबे हूं..कानपुर वाला. इसकी वजह ही यह होती है कि उसे पता था कि उसे मारा जा सकता है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पुलिस ने सचमुच उसको मार दिया. इसकी भी पूरी जांच जरूरी है. सुप्रीम कोर्ट कहता है कि जब ऐसे एनकाउंटर हों तो उसकी न्यायिक जांच जरूरी है. बतौर एक इंसान मैं भी मानता हूं कि वह मर गया, अच्छा हुआ. लेकिन जिन परिस्थितियों में मरा, उससे कानून का नुकसान हो रहा है.

सवाल : 2001 में इसी शख्स ने पुलिस थाने में घुसकर एक राज्यमंत्री को गोली मार दी थी. लेकिन अदालत में जब मामला गया तो सारे 30 पुलिस वाले गवाही से मुकर गए. ऐसे में न्याय प्रक्रिया पर से भरोसा लोगों का उठने लगता है. इस सिस्टम को कैसे ठीक किया जाए?

देखिए, सरकार की भी जिम्मेदारी बनती है. जब ऐसे शातिर गुंडे के खिलाफ गवाह मुकर जाते हैं और सबूत छिपाए जाते हैं तो सरकार के पास भी रास्ते होते हैं. उस समय सरकार के पास टाडा और पोटा जैसे कानून थे, विकास को क्यों नहीं उन कानूनों के तहत गिरफ्त में लिया? विकास के सूबे की राजनीति से भी बहुत ताल्लुकात रहे, इसीलिए तो वह बदमाश हो गया और इस बदमाश को जो संरक्षण मिलता रहा, उसको कानूनी संरक्षण मिलता गया. जब पुलिस ने रेड की तो पुलिस ने ही उसे इत्तिला कर दिया. इसका मतलब है पुलिस में भी उसके लोग थे. थाने में मंत्री का कत्ल होना और कोई गवाह सामने न आना, ये हमारे सिस्टम का फेल्योर है. जो पुलिस वाले गवाही से मुकर गए, उनके खिलाफ क्या कार्रवाई की गई?

सवाल : कई बार ऐसा भी होता है कि पुलिसिया जांच इतनी कमजोर होती है कि अदालत में जाते ही केस गिर जाता है और अपराधी बाहर आ जाता है. इसे कैसे ठीक किया जाना चाहिए?

यह सही बात है. मैंने महाराष्ट्र में कई बार देखा है कि कई सीनियर पुलिस ऑफिसर क्राइम डिटेक्ट होने के बाद अपनी जिम्मेदारी खत्म मान लेते हैं. लेकिन तार्किक अंत क्या होता है. ट्रायल चलता है, सबूत मिलते हैं, नहीं मिलते.. जांच अधिकारी उन्हें अदालत के सामने रखते हैं, नहीं रखते. इन सबका बड़ा असर पड़ता है. इसीलिए गुनहगारों का हौसला बढ़ जाता है. एनकाउंटर से हमें खुशी होती है क्योंकि कानून जो काम नहीं करता, वह एनकाउंटर के जरिए पुलिस कर देती है. लेकिन जब मैं इस पर आत्मचिंतन करता हूं तो लगता है कि इससे लोगों का कानून पर से विश्वास उठ जाएगा. कानून अंधा हो गया, कानून कुछ नहीं कर सकता. और ये जो क्रिमिनल्स हैं, उन पर बायोपिक फिल्में बनती हैं और लोग मजे से देखते हैं.

आज आप किसका आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं, बच्चों को क्या सिखा रहे हैं, क्या ऐसे गुंडे हमारे आदर्श होंगे? मैं समझता हूं कि बॉलीवुड का समाज भी बुरे लोगों के पनपने का जिम्मेदार है. विकास मारा गया, इससे मैं बहुत संतुष्ट हूं. लेकिन जब मैं कानून के विद्यार्थी की हैसियत से देखता हूं तो मुझे लगता है हमारा कानून कमजोर हो गया है. इसलिए न्यायिक व्यवस्था को आत्मचिंतन की जरूरत है. हमारे भीतर खामियां क्या हैं, हम उन्हें कैसे सुधार सकते हैं, ये सब पुलिस अफसरों को भी समझना चाहिए. उन्हें इसके लिए क्लासेज लेनी चाहिए, प्रॉसीक्यूटर्स को सिखाना चाहिए कि किस प्रकार हम केस को कोर्ट में पेश करें, किस प्रकार गवाहों को प्रोटेक्शन के बारे में बताएं, किस प्रकार गवाह से गवाही निकाली जाए. जैसे जजों को प्रशिक्षित किया जाता है, वैसे ही पब्लिक प्रॉसीक्यूटर्स को भी प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए.

सवाल : क्या यह मानें कि पुलिस अफसरों को दी जाने वाली ट्रेनिंग में कमियां हैं? या जान बूझकर ये गलतियां की जाती हैं, लापरवाही में की जाती हैं, या फिर इन्हे पता ही नहीं है कि किस तरह मुकम्मल जांच की जाए?

कोई पुलिस वाला जान बूझकर ऐसा नहीं करता कि अपराधी छूट जाए. लेकिन इनसे गलतियां जरूर होती हैं. मैंने परसों ही महाराष्ट्र पुलिस एकेडमी में यही बताया कि आप से जांच करते वक्त क्या-क्या गलतियां होती हैं और जांच के दौरान कैसे इन गलतियों से बचना चाहिए. किसी को खुश करने के लिए झूठी जांच मत करो. पुलिसकर्मियों की भी दिक्कतें होती हैं. उन्हें आराम नहीं मिलता. कानून-व्यवस्था देखनी है, इतने धार्मिक त्योहार हैं. पुलिस के पास कहां टाइम है कि जांच करे.

सवाल : एक भी निर्दोष को सजा न मिले, बेशक कई दोषी छूट जाएं, हमारी न्यायिक प्रणाली का यह खास बिंदु है. ऐसे में केस ढीला हो जाता है और अपराधी बच निकलता है. इसको कैसे ठीक किया जाए?

देखिए, पुलिस का काम मुल्जिम के खिलाफ सबूत जुटाना है. कोर्ट को यह देखना है कि क्या इन सबूतों से आरोप साबित होते हैं? पुलिस का काम यह नहीं है कि गुनाह इस प्रकार से साबित करना है. उनका यह काम जरूर है कि परिस्थितियों की कड़ी कोर्ट के सामने पेश करें. हमारा जो मूल सिद्धांत है कि सौ गुनहगार बेशक छूट जाएं, एक भी निर्दोष को सजा न हो.

सवाल : कई बार सुधार की कोशिशें भी हुई हैं. जैसे मलीमथ कमेटी ने सुझाव दिया कि क्रिमिनल जस्टिस में सुधार के लिए सबूत स्पष्ट और संतुष्ट करने वाले हों, यही काफी है. मतलब 'उचित संदेह से परे' पर अड़े न रहा जाए.

देखिए, हमने कई ऐसे मामले देखे हैं, जिनमें घरेलू हिंसा के मामलों में लड़की की तरफ से फरियाद आती है. अगर किसी लड़की की मौत हो जाती है तो उसके घर वाले लड़की की ससुराल के सभी लोगों के नाम आरोपी बता कर डाल देते हैं. कई बार मर्डर होता है और मर्डर में जो उसका रिश्तेदार होता है, उसकी पूरी राजनीतिक दुश्मनी निकाल के, जिन्होंने मर्डर किया, उन्हें छोड़ कर कई लोगों के नाम एफआईआर में डाल दिए जाते हैं. बाद में पुलिस को पता चलता है कि ये नाम गलत डाले गए हैं. ऐसे में कोर्ट के सामने वो नाम भी पेश किए जाने चाहिए, जो गलत तरीके से डाले गए हैं. कोर्ट को फैसला लेने देना चाहिए.

सवाल : कानपुर वाले एनकाउंटर में ऐसा कहते हैं कि उज्जैन से कानपुर तक के रास्ते में विकास दुबे पुलिस वालों से लगातार यह कहता रहा कि जमानत तो उसे मिल ही जाएगी. तो यह दिखाता है कि एक अपराधी का हमारी न्याय व्यवस्था पर इतना भरोसा कैसे है. यह विडंबना ही है कि आम आदमी का इतना भरोसा न्याय व्यवस्था में नहीं है.

इसीलिए तो यह गुंडा इस हद तक पहुंच गया था. उसने इतना पैसा इकट्ठा कर लिया कि उसका आत्मबल बढ़ गया. अगर एक मंत्री को पुलिस थाने में मार कर भी उसका कुछ नहीं बिगड़ता, पुलिस होस्टाइल हो जाती है, आज तक किसी केस में उसे सजा नहीं हुई तो उसे पता था कि उसके खिलाफ कौन गवाही देगा. ऐसी स्थिति में पहले उस सिस्टम को खत्म करना होगा, जिसने उस अपराधी को इतनी हिम्मत दी.

सवाल : क्या पुलिस पर काम का दबाव बहुत ज्यादा होना भी हमारे क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की नाकामी की वजह है? हमारे यहां तो पुलिस वाले16 घंटे लगातार काम करते हैं.

जी, पुलिसकर्मियों को बहुत दबाव में काम करना पड़ता है. मुंबई में तो पुलिस फेस्टिवल्स में कानून-व्यवस्था संभालने में लगी रहती है. उसके पास जांच-पड़ताल के लिए समय ही नहीं रहता. सरकार को चाहिए कि पुलिस में और भर्तियां करे, उनको अच्छी सुविधाएं दें. उनकी तनख्वाह और बाकी दूसरी सुविधाएं बढ़ानी चाहिए ताकि पुलिसकर्मी को आराम भी मिले और वह अपनी ड्यूटी भी अच्छे से निभाए. जांच प्रक्रिया के लिए हर थाने में कुछ होशियार लोग होने चाहिए, जिन्हें कानून के बारे में पता हो, जिन्हें विशेषज्ञ ट्रेनिंग दी जाए.

नई दिल्ली : उत्तर प्रदेश पुलिस के आठ जवानों के हत्यारोपी व कुख्यात गैंगस्टर विकास दुबे की पुलिस एनकाउंटर में मौत के बाद फेक एनकाउंटर (फर्जी मुठभेड़) को लेकर एक बार फिर चर्चा निकल पड़ी है. चर्चा का केंद्र यह भी है कि जब कोई मुल्जिम सरेंडर करता है. लेकिन सरेंडर के बाद मुठभेड़ दिखाई जाती है तो लोगों के मन में एक संदेह उत्पन्न होता है और उसका सीधा असर क्रिमिनल जस्टिस पर पड़ता है. विशेष सरकारी वकील उज्जवल निकम भी मानते हैं फेक एनकाउंटर से इस बात का डर उत्पन्न होता है कि लोगों का कानून पर से विश्वास उठ जाएगा.

सवाल : हाल ही में कानपुर के एक बड़े गैंगस्टर का यूपी पुलिस ने एनकाउंटर किया है. क्या इस तरह के एनकाउंटर का सीधा रिश्ता क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की नाकामी से जुड़ा हुआ है?

पुलिस और गुनहगारों की मुठभेड़ अक्सर होती है और उस मुठभेड़ में गुनहगार मारे भी जाते हैं. इसलिए एनकाउंटर कोई गैरकानूनी है, ऐसा मैं नहीं मानता. लेकिन जब कोई मुल्जिम सरेंडर करता है और सरेंडर के बाद अगर मुठभेड़ दिखाई जाती है तो लोगों के मन में एक संदेह उत्पन्न होता है. उसका सीधा असर क्रिमिनल जस्टिस पर पड़ता है. आज गुनहगारों को जल्द सजा नहीं होती और जो नामचीन गुंडे होते हैं, उनके खिलाफ लोगों में दहशत रहती है. इसी वजह से कोई उनके खिलाफ सबूत नहीं देना चाहता और ऐसे गुनहगार जब छूट जाते हैं तो लोग सोचते हैं कि कानून अंधा क्यों हो गया.

अगर किसी नामचीन गुंडे का एनकाउंटर होता है तो लोगों को अच्छा लगता है. अगर यह एनकाउंटर फेक होता है तो मुझे डर इस बात का है कि लोगों का कानून पर से विश्वास उठ जाएगा, जो हमारे लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है. इसलिए ज्युडिशियरी को भी आत्मनिरीक्षण करना चाहिए. ऐसे संगीन अपराधियों के खिलाफ मामले कैसे जल्दी चलाए जाएं और लोगों के मन में कानून के प्रति श्रद्धा कैसे बढ़े. क्योंकि कानून नियम पर चलता है तो लोगों में कानून के प्रति श्रद्धा होनी ही चाहिए. इसलिए एनकाउंटर किस सिचुएशन में हुआ है, यह इस पर निर्भर होता है कि यह एनकाउंटर मनगढ़ंत है या वास्तविक.

राकेश त्रिपाठी की उज्जवल निकम से बातचीत.

सवाल : कानपुर के एनकाउंटर पर आप क्या कहेंगे?

देखिए, आज कोई निष्कर्ष निकालना गलत होगा. पुलिस का जो बयान था कि जब उसे उज्जैन से कानपुर ले जाया जा रहा था तो गाड़ी पलट गई और उसने पुलिस पर फायरिंग की. पुलिस ने सेल्फ डिफेंस में फायरिंग की. एक सवाल यह भी खड़ा होता है कि जो गुनहगार खुद सरेंडर करता है और पुलिस जब उसे हिरासत में लेती है तो वह जोर से कहता है कि मैं विकास दुबे हूं..कानपुर वाला. इसकी वजह ही यह होती है कि उसे पता था कि उसे मारा जा सकता है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पुलिस ने सचमुच उसको मार दिया. इसकी भी पूरी जांच जरूरी है. सुप्रीम कोर्ट कहता है कि जब ऐसे एनकाउंटर हों तो उसकी न्यायिक जांच जरूरी है. बतौर एक इंसान मैं भी मानता हूं कि वह मर गया, अच्छा हुआ. लेकिन जिन परिस्थितियों में मरा, उससे कानून का नुकसान हो रहा है.

सवाल : 2001 में इसी शख्स ने पुलिस थाने में घुसकर एक राज्यमंत्री को गोली मार दी थी. लेकिन अदालत में जब मामला गया तो सारे 30 पुलिस वाले गवाही से मुकर गए. ऐसे में न्याय प्रक्रिया पर से भरोसा लोगों का उठने लगता है. इस सिस्टम को कैसे ठीक किया जाए?

देखिए, सरकार की भी जिम्मेदारी बनती है. जब ऐसे शातिर गुंडे के खिलाफ गवाह मुकर जाते हैं और सबूत छिपाए जाते हैं तो सरकार के पास भी रास्ते होते हैं. उस समय सरकार के पास टाडा और पोटा जैसे कानून थे, विकास को क्यों नहीं उन कानूनों के तहत गिरफ्त में लिया? विकास के सूबे की राजनीति से भी बहुत ताल्लुकात रहे, इसीलिए तो वह बदमाश हो गया और इस बदमाश को जो संरक्षण मिलता रहा, उसको कानूनी संरक्षण मिलता गया. जब पुलिस ने रेड की तो पुलिस ने ही उसे इत्तिला कर दिया. इसका मतलब है पुलिस में भी उसके लोग थे. थाने में मंत्री का कत्ल होना और कोई गवाह सामने न आना, ये हमारे सिस्टम का फेल्योर है. जो पुलिस वाले गवाही से मुकर गए, उनके खिलाफ क्या कार्रवाई की गई?

सवाल : कई बार ऐसा भी होता है कि पुलिसिया जांच इतनी कमजोर होती है कि अदालत में जाते ही केस गिर जाता है और अपराधी बाहर आ जाता है. इसे कैसे ठीक किया जाना चाहिए?

यह सही बात है. मैंने महाराष्ट्र में कई बार देखा है कि कई सीनियर पुलिस ऑफिसर क्राइम डिटेक्ट होने के बाद अपनी जिम्मेदारी खत्म मान लेते हैं. लेकिन तार्किक अंत क्या होता है. ट्रायल चलता है, सबूत मिलते हैं, नहीं मिलते.. जांच अधिकारी उन्हें अदालत के सामने रखते हैं, नहीं रखते. इन सबका बड़ा असर पड़ता है. इसीलिए गुनहगारों का हौसला बढ़ जाता है. एनकाउंटर से हमें खुशी होती है क्योंकि कानून जो काम नहीं करता, वह एनकाउंटर के जरिए पुलिस कर देती है. लेकिन जब मैं इस पर आत्मचिंतन करता हूं तो लगता है कि इससे लोगों का कानून पर से विश्वास उठ जाएगा. कानून अंधा हो गया, कानून कुछ नहीं कर सकता. और ये जो क्रिमिनल्स हैं, उन पर बायोपिक फिल्में बनती हैं और लोग मजे से देखते हैं.

आज आप किसका आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं, बच्चों को क्या सिखा रहे हैं, क्या ऐसे गुंडे हमारे आदर्श होंगे? मैं समझता हूं कि बॉलीवुड का समाज भी बुरे लोगों के पनपने का जिम्मेदार है. विकास मारा गया, इससे मैं बहुत संतुष्ट हूं. लेकिन जब मैं कानून के विद्यार्थी की हैसियत से देखता हूं तो मुझे लगता है हमारा कानून कमजोर हो गया है. इसलिए न्यायिक व्यवस्था को आत्मचिंतन की जरूरत है. हमारे भीतर खामियां क्या हैं, हम उन्हें कैसे सुधार सकते हैं, ये सब पुलिस अफसरों को भी समझना चाहिए. उन्हें इसके लिए क्लासेज लेनी चाहिए, प्रॉसीक्यूटर्स को सिखाना चाहिए कि किस प्रकार हम केस को कोर्ट में पेश करें, किस प्रकार गवाहों को प्रोटेक्शन के बारे में बताएं, किस प्रकार गवाह से गवाही निकाली जाए. जैसे जजों को प्रशिक्षित किया जाता है, वैसे ही पब्लिक प्रॉसीक्यूटर्स को भी प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए.

सवाल : क्या यह मानें कि पुलिस अफसरों को दी जाने वाली ट्रेनिंग में कमियां हैं? या जान बूझकर ये गलतियां की जाती हैं, लापरवाही में की जाती हैं, या फिर इन्हे पता ही नहीं है कि किस तरह मुकम्मल जांच की जाए?

कोई पुलिस वाला जान बूझकर ऐसा नहीं करता कि अपराधी छूट जाए. लेकिन इनसे गलतियां जरूर होती हैं. मैंने परसों ही महाराष्ट्र पुलिस एकेडमी में यही बताया कि आप से जांच करते वक्त क्या-क्या गलतियां होती हैं और जांच के दौरान कैसे इन गलतियों से बचना चाहिए. किसी को खुश करने के लिए झूठी जांच मत करो. पुलिसकर्मियों की भी दिक्कतें होती हैं. उन्हें आराम नहीं मिलता. कानून-व्यवस्था देखनी है, इतने धार्मिक त्योहार हैं. पुलिस के पास कहां टाइम है कि जांच करे.

सवाल : एक भी निर्दोष को सजा न मिले, बेशक कई दोषी छूट जाएं, हमारी न्यायिक प्रणाली का यह खास बिंदु है. ऐसे में केस ढीला हो जाता है और अपराधी बच निकलता है. इसको कैसे ठीक किया जाए?

देखिए, पुलिस का काम मुल्जिम के खिलाफ सबूत जुटाना है. कोर्ट को यह देखना है कि क्या इन सबूतों से आरोप साबित होते हैं? पुलिस का काम यह नहीं है कि गुनाह इस प्रकार से साबित करना है. उनका यह काम जरूर है कि परिस्थितियों की कड़ी कोर्ट के सामने पेश करें. हमारा जो मूल सिद्धांत है कि सौ गुनहगार बेशक छूट जाएं, एक भी निर्दोष को सजा न हो.

सवाल : कई बार सुधार की कोशिशें भी हुई हैं. जैसे मलीमथ कमेटी ने सुझाव दिया कि क्रिमिनल जस्टिस में सुधार के लिए सबूत स्पष्ट और संतुष्ट करने वाले हों, यही काफी है. मतलब 'उचित संदेह से परे' पर अड़े न रहा जाए.

देखिए, हमने कई ऐसे मामले देखे हैं, जिनमें घरेलू हिंसा के मामलों में लड़की की तरफ से फरियाद आती है. अगर किसी लड़की की मौत हो जाती है तो उसके घर वाले लड़की की ससुराल के सभी लोगों के नाम आरोपी बता कर डाल देते हैं. कई बार मर्डर होता है और मर्डर में जो उसका रिश्तेदार होता है, उसकी पूरी राजनीतिक दुश्मनी निकाल के, जिन्होंने मर्डर किया, उन्हें छोड़ कर कई लोगों के नाम एफआईआर में डाल दिए जाते हैं. बाद में पुलिस को पता चलता है कि ये नाम गलत डाले गए हैं. ऐसे में कोर्ट के सामने वो नाम भी पेश किए जाने चाहिए, जो गलत तरीके से डाले गए हैं. कोर्ट को फैसला लेने देना चाहिए.

सवाल : कानपुर वाले एनकाउंटर में ऐसा कहते हैं कि उज्जैन से कानपुर तक के रास्ते में विकास दुबे पुलिस वालों से लगातार यह कहता रहा कि जमानत तो उसे मिल ही जाएगी. तो यह दिखाता है कि एक अपराधी का हमारी न्याय व्यवस्था पर इतना भरोसा कैसे है. यह विडंबना ही है कि आम आदमी का इतना भरोसा न्याय व्यवस्था में नहीं है.

इसीलिए तो यह गुंडा इस हद तक पहुंच गया था. उसने इतना पैसा इकट्ठा कर लिया कि उसका आत्मबल बढ़ गया. अगर एक मंत्री को पुलिस थाने में मार कर भी उसका कुछ नहीं बिगड़ता, पुलिस होस्टाइल हो जाती है, आज तक किसी केस में उसे सजा नहीं हुई तो उसे पता था कि उसके खिलाफ कौन गवाही देगा. ऐसी स्थिति में पहले उस सिस्टम को खत्म करना होगा, जिसने उस अपराधी को इतनी हिम्मत दी.

सवाल : क्या पुलिस पर काम का दबाव बहुत ज्यादा होना भी हमारे क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की नाकामी की वजह है? हमारे यहां तो पुलिस वाले16 घंटे लगातार काम करते हैं.

जी, पुलिसकर्मियों को बहुत दबाव में काम करना पड़ता है. मुंबई में तो पुलिस फेस्टिवल्स में कानून-व्यवस्था संभालने में लगी रहती है. उसके पास जांच-पड़ताल के लिए समय ही नहीं रहता. सरकार को चाहिए कि पुलिस में और भर्तियां करे, उनको अच्छी सुविधाएं दें. उनकी तनख्वाह और बाकी दूसरी सुविधाएं बढ़ानी चाहिए ताकि पुलिसकर्मी को आराम भी मिले और वह अपनी ड्यूटी भी अच्छे से निभाए. जांच प्रक्रिया के लिए हर थाने में कुछ होशियार लोग होने चाहिए, जिन्हें कानून के बारे में पता हो, जिन्हें विशेषज्ञ ट्रेनिंग दी जाए.

Last Updated : Jul 14, 2020, 5:05 PM IST
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