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एक पत्रकार के तौर पर महात्मा गांधी

इस साल महात्मा गांधी की 150वीं जयन्ती मनाई जा रही है. इस अवसर पर ईटीवी भारत दो अक्टूबर तक हर दिन उनके जीवन से जुड़े अलग-अलग पहलुओं पर चर्चा कर रहा है. हम हर दिन एक विशेषज्ञ से उनकी राय शामिल कर रहे हैं. साथ ही प्रतिदिन उनके जीवन से जुड़े रोचक तथ्यों की प्रस्तुति दे रहे हैं. प्रस्तुत है आज 40वीं कड़ी.

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Published : Sep 26, 2019, 7:00 AM IST

Updated : Oct 2, 2019, 1:19 AM IST

गांधी की फाइल फोटो

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के शुरुआती चरणों में राष्ट्रवादियों का प्रमुख काम बड़े पैमाने पर लोगों को शिक्षा के माध्यस से जागरूक करना था. औपनिवेशिक आधिपत्य का मुकाबला कैसे करें, इसके लिए लोगों को तैयार करना था. उनका मुख्य जोर राष्ट्रवादी विचारधारा का निर्माण करना था. इसके बाद ही राष्ट्रीय आंदोलन में बड़े पैमाने पर जनता जुड़ती चली गई.

इस कार्य को पूरा करने के लिए स्वदेशी प्रेस ने मुख्य भूमिका निभाई. इसने राष्ट्रवादी जनमत को उभारने, प्रशिक्षण देने, जुटाने और समेकित करने में बड़ा अहम रोल अदा किया. इस दौरान कई प्रतिष्ठित और निडर पत्रकारों के तहत शक्तिशाली समाचार पत्र उभरे. वास्तव में, उस समय भारत में शायद ही कोई प्रमुख राजनीतिक नेता मौजूद होगा, जिनके पास अपना अखबार नहीं था या वह किसी के लिए नहीं लिख रहे हों.

महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका के दिनों से ही पत्रकारिता और प्रेस-मीडिया से जुड़े थे. 1903 से शुरू होने वाले 45 वर्षों की अवधि में गांधी ने अपने कई पत्रकारीय प्रकाशनों में जो लिखा, उसकी मात्रा और गुणवत्ता को देखते हुए, कोई भी कह सकता है कि वास्तव में गांधी उच्च स्तर के पत्रकार थे. एक निडर और प्रतिबद्ध पत्रकार और संपादक के रूप में, गांधी ने अच्छी तरह से लिखा, और उन्होंने बहुत अच्छा लिखा.

1903 से 1914 तक और फिर 1919 से 1948 तक उन्होंने गुजराती, अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में साप्ताहिक समाचार पत्र प्रकाशित किए. 'इंडियन ओपिनियन' ने गांधी की अप्रेंटिसशिप को एक पत्रकार और मीडिया व्यक्ति के रूप में चिह्नित किया था. बाद में उन्होंने कई अन्य पत्रिकाओं, यंग इंडिया, नवजीवन, हरिजन और इंडियन ओपिनियन को प्रकाशित किया. उनमें उनका उत्कृष्ठ कार्य दिखा.

इंडियन ओपिनियन, गांधीजी द्वारा जून 1903 में डरबन में शुरू किया गया था. उस समय गांधी जोहान्सबर्ग में वकालत कर रहे थे. फिर भी उन्होंने पत्रकारिता नहीं छोड़ी. इससे उनका संबंध जारी रहा.

इंडियन ओपिनियन की शुरुआत दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी श्वेत शासन की नस्लीय असहिष्णुता के खिलाफ स्थानीय भारतीयों की भावनाओं और भावनाओं को प्रभावी ढंग से करने के लिए दक्षिण अफ्रीका में बढ़ती मांग और जरूरत के मद्देनजर की गई थी. इसके अलावा, गांधी को पूरी तरह से एक संघर्ष के लिए तैयार होना था. वह मुख्य रूप से आंतरिक शक्ति को मजबूत करना चाहते थे. और इसके लिए अखबार की बहुत आवश्यकता थी. वो इसका महत्व समझते थे.

ये भी पढ़ें: अफ्रीका से एक नायक के रूप में लौटे थे गांधी

गांधी को यह पूरी तरह से समझ में आ गया था कि एक समाचार पत्र की अनुपस्थिति में न तो गांधी और ना ही उनके राजनीतिक सहकर्मियों के लिए स्थानीय भारतीय समुदाय को प्रभावी ढंग से शिक्षित करना संभव होगा. वे यह समझ चुके थे कि अखबार के माध्यम से ही वह द. अफ्रीका में कर रहे कार्यों का संदेश अपने देशवासियों तक भेज सकते हैं.

इसलिए 34 वर्षीय मोहनदास करमचंद गांधी ने उस समय जोहान्सबर्ग में दो अन्य प्रमुख व्यक्तियों- की मदद से इंडियन ओपिनियन की शुरुआत की थी. इस कार्य में उन्हें मदनजीत व्यवाहरिक और मनसुखलाल हीरालाल की मदद मिली. मदनजीत बंबई में शिक्षक रह चुके थे. उनका अपना प्रेस इंटरनेशनल प्रिंटिंग प्रेस था. मनसुखलाल बंबई के मशहूर पत्रकार थे. वह गांधी को 1897 से ही जानते थे. चार जून 1903 को इंडियन ओपिनियन का पहला अंक प्रकाशित हुआ था. मुख्य रूप से यह चार भाषओं में प्रकाशित किया गया. अंग्रेजी, हिंदी, गुजराती और तमिल में.

इंडियन ओपिनियन में संपादकीय सामग्री मुख्य रूप से गांधी ही तय करते थे, जबकि अन्य चीजों का प्रबंधन नाजर और मदनजीत कर रहे थे. एम.एच. नाज़र ने कागज की सामग्री और नीति को रणनीतिक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. संयुक्त परिणाम यह था कि इंडियन ओपिनियन, अपने पहले अंक में ही काफी लोकप्रिय रहा. खासकर स्थानीय भारतीय और नेटाल की अश्वेत आबादी के बीच. इसकी वजह थी कि इस अंक में गांधी ने रंगभेद नीति पर प्रहार किया था. उन्होंने इन समुदायों की आर्थिक दुर्दशा से संबंधित कुछ प्रासंगिक सवाल उठाए थे.

गांधी ने बड़े पैमाने पर और गहनता से सामाजिक-राजनीतिक महत्व के सभी मुद्दों को कवर किया, क्योंकि दोनों यानि भारतीयों और दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत लोग ऐसी स्थिति का सामना कर रहे थे.

मोहनदास करमचंद गांधी जिस प्रकार हर विषय पर बह बिल्कुल ही अलग और मौलिक राय रखते थे और वैसी ही जानकारी पत्रकारिता के बारे में भी रखते थे. गांधी की नजरों में पत्रकारिता एक बहुत ही महान पेशा था. उनकी राय में पत्रकारिता का समाज के प्रति तीन उद्देश्य है. यह उसे पूरा कर सकता है. पहला अभिव्यक्ति, दूसरा शिक्षा और जागरूकता और तीसरा औपनिवेशिक सत्ता की बुराइयों को उजागर करने में.

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गांधी मानते थे कि जनता की दुर्दशा, स्थिति और परिस्थितियों की भावनाओं को जानने के लिए अभिव्यक्ति बहुत जरूरी है. वह यह मानते थे कि सामाजिक और राजनीतिक भावनाओं और दृष्टिकोणों के बीच लोगों को शिक्षा के जरिए ही जागृत किया जा सकता है. शायद यही वजह थी कि गांधी ने पत्रकारिता के मूल्यों को कायम रखने के लिए अपने अखबार में विज्ञापन को जगह नहीं दी. वह केवल पाठकों से सदस्यता पर निर्भर रहे.

इंडियन ओपिनियन का महत्व इसके आकार में नहीं, बल्कि इसकी सामग्री में निहित है. अपने पूरे 58 साल के अस्तित्व काल में इनके ग्राहकों की संख्या औसतन 2000 के आसपास ही रही. किसी भी एक वर्ष में सबसे अधिक संख्या 3500 थी. यह कम से कम आंशिक रूप से, डरबन-नेटाल में स्थानीय भारतीय आबादी के आकार के संदर्भ में समझाया जा सकता है. इंडियन ओपिनियन भी नेटाल का पहला भारतीय अखबार नहीं था. 1898 में एक अल्पकालिक साप्ताहिक समाचार पत्र इंडियन वर्ल्ड ने इसकी शुरुआत की थी. और मई 1901 में, एक तमिल पत्रकार पी एस अय्यर ने एक तमिल-अंग्रेजी साप्ताहिक औपनिवेशिक भारतीय समाचार शुरू किया था, जो 1903 तक ही जीवित रह सका.

नताल में अफ्रीकी भी कुछ समय से समाचार पत्र प्रकाशित कर रहे थे. लेकिन इंडियन ओपिनियन उस समय के किसी भी अन्य स्थानीय समाचार पत्र की तुलना में सामाजिक, ऐतिहासिक और राजनीतिक रूप से कहीं अधिक महत्वपूर्ण साबित हुआ. दरअसल, यह उस समय लॉन्च किया गया था, जिस समय अफ्रीकी बिल्कुल निराश हो चुके थे. द. अफ्रीकी युद्ध के ठीक बाद. वे लोग अपनी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति में परिवर्तन लाना चाहते थे. दूसरी ओर गांधी बिल्कुल प्रतिबद्ध थे. समर्पित थे. अंग्रेज शासक एक ऐसा अफ्रीका बनाना चाहते थे, जहां अश्वेतों के पास सीमित अधिकार हों.

इंडियन ओपिनियन ने राज्य और आधिकारिक तौर पर बहुत उदारवादी और संयमी रवैया अपनाकर अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआत की. इसने 'ब्रिटिश न्याय में अटूट विश्वास', और 'संवैधानिक साधनों को कम करने और भारतीयों के लिए निवारण की कोशिश' के लिए अपनी प्रतिबद्धता की गहराई से घोषणा की. यह याद रखने की जरूरत है कि यह वह दौर था जब गांधीजी का दृढ़ विश्वास था कि ब्रिटिश साम्राज्य अनिवार्य रूप से और स्वाभाविक रूप से अच्छा है, और न्याय, निष्पक्षता, नस्लीय समानता और स्वतंत्रता के मूल्य पर आधारित है. और जो भी, और जहां भी, जहां भी कमियां थीं, वे औपनिवेशिक प्रशासन के कारण थी. उदाहरण के लिए, दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद.

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गांधी, उस समय, 1857 में रानी विक्टोरिया द्वारा दिए गए वादे पर पूरा भरोसा करते थे. '1857 के महान विद्रोह' के बाद, गांधी को भरोसा था कि स्थानीय भारतीय समुदाय और द. अफ्रीका के अश्वेतों को न्याय मिलेगा, अगर इसके लिए संवैधानिक तरीके से मांग की जाए तो. उन दिनों के लिए, यदि कोई भी समाचार पत्र, विज्ञापन या अन्यथा, रंगभेदवादी नटाल सरकार को एक औपनिवेशिक लेख के जरिए नाराज करता है, तो उनके सामने सिर्फ एक ही विकल्प था, वह था अखबार बंद करने का.

इसलिए गांधी सीधे तौर पर श्वेत अधिकारियों को नाराज करना नहीं चाहते थे. बल्कि वह चाहते थे कि उनके संपर्क के जरिए स्थानीय भारतीयों की स्थिति में बेहतरी हो. लिहाजा गांधी और उनके सहकर्मी इसके प्रति सावधान थे. प्राथमिक चिंता यह थी कि अन्याय के खिलाफ भारतीयों की सुरक्षा.

भारतीयों के संदर्भ में इंडियन ओपिनियन का ऐतिहासिक महत्व है. यह इस तथ्य में निहित है कि इसमें दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी औपनिवेशिक शासन के तहत भारतीयों के सामने चुनौतियों का एक मूल्यवान ऐतिहासिक रिकॉर्ड प्रदान करता है. यह भारतीय समुदाय के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन का अमूल्य रिकॉर्ड भी प्रदान करता है.

इसने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के बारे में भेदभावपूर्ण कानून के मामलों की रिपोर्ट, स्थानीय प्रेस के संपादकों को पत्र, भारतीयों के बारे में प्रतिकूल रिपोर्ट को सही करने, भारत में महत्वपूर्ण घटनाओं और सामाजिक, नैतिक और बौद्धिक विषयों पर योगदान सहित समाचार प्रकाशित करना शुरू कर दिया था. इसने नेटल मर्करी जैसे अखबारों की एक वैकल्पिक आवाज का प्रतिनिधित्व किया, जो अक्सर भारतीय हितों के प्रतिकूल थे. लेकिन जल्द ही चीजें बदलनी थीं. अपने राजनीतिक विकास के दौरान गांधी राजनीतिक याचिका से सक्रिय प्रतिरोध की ओर अग्रसर होंगे, उनका समाचार पत्र, इंडियन ओपिनियन भी उसी बदलाव से गुजरा.

इस अखबार के इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण 1904 में आया, जब गांधी ने इसे अपने नए कम्यून में स्थानांतरित कर दिया - फीनिक्स सेटलमेंट में, यह गांधी का पहला आश्रम था. यह डरबन से थोड़ी दूर पर था. लियो टॉल्स्टॉय और जॉन रस्किन के विचारों के प्रभाव के तहत गांधी ने शहर के जीवन के लिए अरुचि विकसित की थी, मैन्युअल श्रम द्वारा सूचित एक सरल, उत्साह और सामुदायिक जीवन जीने के लिए चुना था. फीनिक्स सेटलमेंट में प्रेस के कर्मचारियों को एक नई कार्य नीति द्वारा शासित किया जाने लगा- गांधीवादी नैतिकता-संयुक्त रूप से भारतीय जनमत तैयार करने के लिए.

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इस प्रकार, इस समय से, इंडियन ओपिनियन का इतिहास फीनिक्स, गांधी की पहली सांप्रदायिक बस्ती के साथ जुड़ा हुआ हो जाता है. फीनिक्स में जीवन की लय अखबार के प्रकाशन से प्रभावित होने लगी.

गांधी ने लियो टॉल्स्टॉय, हेनरी डेविड थोरो, जॉन रस्किन और अन्य महान विचारकों के लेखन और विचारों के प्रचार के लिए इंडियन ओपिनियन का उपयोग किया, जिन्होंने अपने स्वयं के विकास और दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के बुनियादी अधिकारों के लिए किए गए संघर्ष को प्रभावित किया था. भारतीय जनमत ने बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में एक एकजुट भारतीय समुदाय और एक राष्ट्रीय पहचान के विचार को बढ़ावा देकर एक विशेष रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

इंडियन ओपिनियन ने अपने पाठकों में भेदभाव के खिलाफ संदेश दिया. हिंदू, मुस्लिम, ब्राह्मण या बनिया, तमिल या कलकत्ता...यानि किस क्षेत्र के हैं, यह भाव नहीं आना चाहिए. इंडियन ओपिनियन के कॉलम में भारतीयों द्वारा सामना किए गए कई और विभिन्न कठिनाइयों से निपटने के मामलों से भरे हुए थे और जिनके खिलाफ गांधी लगातार लड़ रहे थे. हर अंक में दो या दो से अधिक संपादकीय होते ते. कुछ छोटी टिप्पणियां होती थीं. भारतीय समुदायों के द्वारा जो दिक्कतें सामने आ रही थीं, उसके बारे में चर्चा की जाती थी. इससे जुड़े साप्ताहिक कॉलम भी छपते थे.

इंडियन ओपिनियन ने विशेष रूप से उन परिस्थितियों को उजागर किया जिनके तहत भारतीय मजदूर काम करते थे. इंडियन ओपिनियन उन मामलों को तुरंत अपने संपादकीय के जरिए सामने लाता था, जहां नियोक्ता अपने मजदूरों के प्रति बुरा व्यवहार करते थे. जहां भी ऐसी घटनाएं होती थीं, अखबार पूरी गंभीरता और ईमानदारी के साथ उसे सामने रखता था. इंडियन ओपिनियन तब आत्महत्या की घटनाओं पर भी रिपोर्ट प्राकशित करने से पीछे नहीं हटता था. उत्पीड़न और शोषण की इस प्रणाली को समाप्त करने के लिए एक विशेष अभियान शुरू किया गया था. इस संदर्भ में एच.एस.एल. पोलक, इंडियन ओपिनियन के तत्कालीन संपादक, ने भारत का दौरा किया था. वह गांधी के मित्र थे.

इस प्रकार, समय के साथ, राजनीतिक सक्रियता पत्रकारिता के साथ-साथ भारतीय जनमत और उसके संपादकों की ओर से एक स्थापित परंपरा बन गई थी. और यह वही था जो 20 वीं सदी के अखबारों से इंडियन ओपिनियन को अलग करने के लिए आया था. इसके सभी संपादकों ने जेल में समय बिताया. यह परंपरा 1906 और 1913 के बीच सत्याग्रह अभियान के दौरान शुरू हुई थी. यह इस उपन्यास अभियान के दौरान अखबार अपने आप में आ गया था. इस समय तक, ब्रिटिश साम्राज्य में न्याय और निष्पक्षता के बारे में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति विश्वास खत्म हो गया था, और अब वह प्रगतिशील रूप से रोगी याचिकाओं की स्थिति से चले गए और दक्षिण अफ्रीका में एक लंबे समय तक विरोध आंदोलन की उग्रवादी चुनौती के प्रति विनम्र अपील की.

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इंडियन ओपिनियन की फाइलों और स्तंभों ने इस बदलाव को विधिवत दर्शाया. इस प्रकार, जबकि 1903–04 में इसका उद्देश्य केवल भारतीय आवश्यकताओं और इच्छाओं के बारे में दक्षिण अफ्रीका में गोरों को शिक्षित करना था, लेकिन 1906 के बाद से, यह राज्य के कानूनों को चुनौती देने के लिए मुख्य वाहन बन गया और जब उन्हें स्पष्ट रूप से पाया गया था तब से ही उनका बचाव करने का आग्रह किया गया था.

छोटे से जगह से प्रकाशित अखबार ने अपनी स्थिति महत्वपूर्ण बना ली. क्योंकि यह गहन रूप से परस्पर जुड़ा हुआ था. धीरे-धीरे कैसे गांधी के अंदर एक जन नेता उभरने लगा था, उस भूमिका में इस अखबार ने बड़ी भूमिका निभाई थी.

इंडियन ओपनियिन की शुरुआत से ही गांधी टॉलस्टॉय, थोरो, रस्किन और इमर्सन और कई अन्य महान विचारकों के लेखन और विचारों से प्रभावित होकर उसका भारतीय जनमत के लिए उपयोग कर रहे थे. द. अफ्रीका में अश्वेतों के अधिकारों के लिए जो संघर्ष किया, उस अनुभव को वह सामने ला रहे थे.

सितंबर 1906 से अखबार संघर्ष और प्रतिरोध की प्रेरणादायक कहानियों को प्रकाशित करके अपने स्वर और दृष्टिकोण में असंदिग्ध रूप से उग्र बन गया था. खुलेआम लोगों से आग्रह करने लगा था कि वे अन्याय और असत्य से लड़ने के लिए बलिदान देने को भी तैयार रहें. गांधी- जिन्होंने 1909 तक जेल में 177 दिन बिताए थे - और वहां आना-जाना शुरू कर दिया था - इंडियन ओपिनियन के पन्नों के माध्यम से उन्होंने अपने जीवन के अनुभवों को साझा करना शुरू कर दिया था. और उन्होंने अपने पाठकों से आग्रह किया कि वे जीवन का नेतृत्व करें, धन के पीछे ना दौड़ें.

दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के सामाजिक-राजनीतिक अधिकारों की वकालत करके इंडियन ओपिनियन की शुरुआत हुई थी, फिर भी यह दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों की आवाज को मुख्य रूप से फोकस कर रहा था. इसने विशेष रूप से 1913 के भूमि अधिनियम के विनाशकारी प्रावधानों और अफ्रीकियों के पारित संघर्षों पर ध्यान केंद्रित किया.

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बहरहाल, अखबार ने इसे अपने लिए चिंता का विषय बना लिया कि अफ्रीकी उपलब्धियों को भी मनाया जाने लगा. 1950 में, विशेष रूप से, गांधी के दूसरे बेटे, मणिलाल गांधी के संपादन के तहत, अखबार अपने सामाजिक-राजनीतिक दायरे में और विकसित हुआ और केवल भारतीयों के अधिकारों के बजाय मानव अधिकारों पर अधिक ध्यान केंद्रित हुआ. इस प्रक्रिया में, यह सत्याग्रह के अर्थ को प्रसारित करने और गांधीवाद के प्रचार के लिए एक केंद्रीय माध्यम बन गया. यह चलन सुशीला गांधी के संपादन के तहत और मजबूत हुआ, जो मणिलाल की मृत्यु के बाद शुरू हुई, और 4 अगस्त 1961 को इंडियन ओपिनियन ने इसका अंतिम अंक प्रकाशित हुआ.

गांधी का यह विचार बिल्कुल सही था कि इंडियन ओपनियिन के बिना सत्याग्रह असंभव होता. गांधी ने इसे प्रमुख माध्यम कहा. इसके जरिए गांधी ने सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक न्याय को लेकर लोगों को प्रेरित किया. औपनिवेशिक, साम्राज्वादी और रंगभेदी नीति का कैसे विरोध हो, इसको लेकर लेख लिखे गए. गांधी एक पत्रकार के रूप में दिखे. इसके जरिए गांधी ने पत्रकारिता के कई मानदंड स्थापित किए.

गांधी ने इंडियन ओपनियिन में ही हिंद स्वराज पुस्तक को प्रकाशित किया था. इसमें उन्होंने आजाद भारत के बारे में अपना दृष्टिकोण रखा था.

इस प्रकार, गांधी ने राजनेता या समाज सुधारक के रूप में मानव जाति के इतिहास पर न केवल एक अमिट छाप छोड़ी, बल्कि एक नैतिक, समर्पित और प्रतिबद्ध पत्रकार और मीडिया व्यक्ति के रूप में भी उल्लेखनीय मानदंड स्थापित किए. पत्रकारिता में उनके द्वारा किए गए महान उद्देश्य मीडिया पेशेवरों और संस्थानों के लिए एक आदर्श हैं. गांधीजी निश्चित रूप से एक पत्रकार थे, लेकिन औरों से बिल्कुल भिन्न थे.

(लेखक- प्रो. समर धालीवाल, डीएवी कॉलेज चंडीगढ़ के पूर्व प्रोफेसर)

आलेख के विचार लेखक के निजी हैं. इनसे ईटीवी भारत का कोई संबंध नहीं है.

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के शुरुआती चरणों में राष्ट्रवादियों का प्रमुख काम बड़े पैमाने पर लोगों को शिक्षा के माध्यस से जागरूक करना था. औपनिवेशिक आधिपत्य का मुकाबला कैसे करें, इसके लिए लोगों को तैयार करना था. उनका मुख्य जोर राष्ट्रवादी विचारधारा का निर्माण करना था. इसके बाद ही राष्ट्रीय आंदोलन में बड़े पैमाने पर जनता जुड़ती चली गई.

इस कार्य को पूरा करने के लिए स्वदेशी प्रेस ने मुख्य भूमिका निभाई. इसने राष्ट्रवादी जनमत को उभारने, प्रशिक्षण देने, जुटाने और समेकित करने में बड़ा अहम रोल अदा किया. इस दौरान कई प्रतिष्ठित और निडर पत्रकारों के तहत शक्तिशाली समाचार पत्र उभरे. वास्तव में, उस समय भारत में शायद ही कोई प्रमुख राजनीतिक नेता मौजूद होगा, जिनके पास अपना अखबार नहीं था या वह किसी के लिए नहीं लिख रहे हों.

महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका के दिनों से ही पत्रकारिता और प्रेस-मीडिया से जुड़े थे. 1903 से शुरू होने वाले 45 वर्षों की अवधि में गांधी ने अपने कई पत्रकारीय प्रकाशनों में जो लिखा, उसकी मात्रा और गुणवत्ता को देखते हुए, कोई भी कह सकता है कि वास्तव में गांधी उच्च स्तर के पत्रकार थे. एक निडर और प्रतिबद्ध पत्रकार और संपादक के रूप में, गांधी ने अच्छी तरह से लिखा, और उन्होंने बहुत अच्छा लिखा.

1903 से 1914 तक और फिर 1919 से 1948 तक उन्होंने गुजराती, अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में साप्ताहिक समाचार पत्र प्रकाशित किए. 'इंडियन ओपिनियन' ने गांधी की अप्रेंटिसशिप को एक पत्रकार और मीडिया व्यक्ति के रूप में चिह्नित किया था. बाद में उन्होंने कई अन्य पत्रिकाओं, यंग इंडिया, नवजीवन, हरिजन और इंडियन ओपिनियन को प्रकाशित किया. उनमें उनका उत्कृष्ठ कार्य दिखा.

इंडियन ओपिनियन, गांधीजी द्वारा जून 1903 में डरबन में शुरू किया गया था. उस समय गांधी जोहान्सबर्ग में वकालत कर रहे थे. फिर भी उन्होंने पत्रकारिता नहीं छोड़ी. इससे उनका संबंध जारी रहा.

इंडियन ओपिनियन की शुरुआत दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी श्वेत शासन की नस्लीय असहिष्णुता के खिलाफ स्थानीय भारतीयों की भावनाओं और भावनाओं को प्रभावी ढंग से करने के लिए दक्षिण अफ्रीका में बढ़ती मांग और जरूरत के मद्देनजर की गई थी. इसके अलावा, गांधी को पूरी तरह से एक संघर्ष के लिए तैयार होना था. वह मुख्य रूप से आंतरिक शक्ति को मजबूत करना चाहते थे. और इसके लिए अखबार की बहुत आवश्यकता थी. वो इसका महत्व समझते थे.

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गांधी को यह पूरी तरह से समझ में आ गया था कि एक समाचार पत्र की अनुपस्थिति में न तो गांधी और ना ही उनके राजनीतिक सहकर्मियों के लिए स्थानीय भारतीय समुदाय को प्रभावी ढंग से शिक्षित करना संभव होगा. वे यह समझ चुके थे कि अखबार के माध्यम से ही वह द. अफ्रीका में कर रहे कार्यों का संदेश अपने देशवासियों तक भेज सकते हैं.

इसलिए 34 वर्षीय मोहनदास करमचंद गांधी ने उस समय जोहान्सबर्ग में दो अन्य प्रमुख व्यक्तियों- की मदद से इंडियन ओपिनियन की शुरुआत की थी. इस कार्य में उन्हें मदनजीत व्यवाहरिक और मनसुखलाल हीरालाल की मदद मिली. मदनजीत बंबई में शिक्षक रह चुके थे. उनका अपना प्रेस इंटरनेशनल प्रिंटिंग प्रेस था. मनसुखलाल बंबई के मशहूर पत्रकार थे. वह गांधी को 1897 से ही जानते थे. चार जून 1903 को इंडियन ओपिनियन का पहला अंक प्रकाशित हुआ था. मुख्य रूप से यह चार भाषओं में प्रकाशित किया गया. अंग्रेजी, हिंदी, गुजराती और तमिल में.

इंडियन ओपिनियन में संपादकीय सामग्री मुख्य रूप से गांधी ही तय करते थे, जबकि अन्य चीजों का प्रबंधन नाजर और मदनजीत कर रहे थे. एम.एच. नाज़र ने कागज की सामग्री और नीति को रणनीतिक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. संयुक्त परिणाम यह था कि इंडियन ओपिनियन, अपने पहले अंक में ही काफी लोकप्रिय रहा. खासकर स्थानीय भारतीय और नेटाल की अश्वेत आबादी के बीच. इसकी वजह थी कि इस अंक में गांधी ने रंगभेद नीति पर प्रहार किया था. उन्होंने इन समुदायों की आर्थिक दुर्दशा से संबंधित कुछ प्रासंगिक सवाल उठाए थे.

गांधी ने बड़े पैमाने पर और गहनता से सामाजिक-राजनीतिक महत्व के सभी मुद्दों को कवर किया, क्योंकि दोनों यानि भारतीयों और दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत लोग ऐसी स्थिति का सामना कर रहे थे.

मोहनदास करमचंद गांधी जिस प्रकार हर विषय पर बह बिल्कुल ही अलग और मौलिक राय रखते थे और वैसी ही जानकारी पत्रकारिता के बारे में भी रखते थे. गांधी की नजरों में पत्रकारिता एक बहुत ही महान पेशा था. उनकी राय में पत्रकारिता का समाज के प्रति तीन उद्देश्य है. यह उसे पूरा कर सकता है. पहला अभिव्यक्ति, दूसरा शिक्षा और जागरूकता और तीसरा औपनिवेशिक सत्ता की बुराइयों को उजागर करने में.

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गांधी मानते थे कि जनता की दुर्दशा, स्थिति और परिस्थितियों की भावनाओं को जानने के लिए अभिव्यक्ति बहुत जरूरी है. वह यह मानते थे कि सामाजिक और राजनीतिक भावनाओं और दृष्टिकोणों के बीच लोगों को शिक्षा के जरिए ही जागृत किया जा सकता है. शायद यही वजह थी कि गांधी ने पत्रकारिता के मूल्यों को कायम रखने के लिए अपने अखबार में विज्ञापन को जगह नहीं दी. वह केवल पाठकों से सदस्यता पर निर्भर रहे.

इंडियन ओपिनियन का महत्व इसके आकार में नहीं, बल्कि इसकी सामग्री में निहित है. अपने पूरे 58 साल के अस्तित्व काल में इनके ग्राहकों की संख्या औसतन 2000 के आसपास ही रही. किसी भी एक वर्ष में सबसे अधिक संख्या 3500 थी. यह कम से कम आंशिक रूप से, डरबन-नेटाल में स्थानीय भारतीय आबादी के आकार के संदर्भ में समझाया जा सकता है. इंडियन ओपिनियन भी नेटाल का पहला भारतीय अखबार नहीं था. 1898 में एक अल्पकालिक साप्ताहिक समाचार पत्र इंडियन वर्ल्ड ने इसकी शुरुआत की थी. और मई 1901 में, एक तमिल पत्रकार पी एस अय्यर ने एक तमिल-अंग्रेजी साप्ताहिक औपनिवेशिक भारतीय समाचार शुरू किया था, जो 1903 तक ही जीवित रह सका.

नताल में अफ्रीकी भी कुछ समय से समाचार पत्र प्रकाशित कर रहे थे. लेकिन इंडियन ओपिनियन उस समय के किसी भी अन्य स्थानीय समाचार पत्र की तुलना में सामाजिक, ऐतिहासिक और राजनीतिक रूप से कहीं अधिक महत्वपूर्ण साबित हुआ. दरअसल, यह उस समय लॉन्च किया गया था, जिस समय अफ्रीकी बिल्कुल निराश हो चुके थे. द. अफ्रीकी युद्ध के ठीक बाद. वे लोग अपनी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति में परिवर्तन लाना चाहते थे. दूसरी ओर गांधी बिल्कुल प्रतिबद्ध थे. समर्पित थे. अंग्रेज शासक एक ऐसा अफ्रीका बनाना चाहते थे, जहां अश्वेतों के पास सीमित अधिकार हों.

इंडियन ओपिनियन ने राज्य और आधिकारिक तौर पर बहुत उदारवादी और संयमी रवैया अपनाकर अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआत की. इसने 'ब्रिटिश न्याय में अटूट विश्वास', और 'संवैधानिक साधनों को कम करने और भारतीयों के लिए निवारण की कोशिश' के लिए अपनी प्रतिबद्धता की गहराई से घोषणा की. यह याद रखने की जरूरत है कि यह वह दौर था जब गांधीजी का दृढ़ विश्वास था कि ब्रिटिश साम्राज्य अनिवार्य रूप से और स्वाभाविक रूप से अच्छा है, और न्याय, निष्पक्षता, नस्लीय समानता और स्वतंत्रता के मूल्य पर आधारित है. और जो भी, और जहां भी, जहां भी कमियां थीं, वे औपनिवेशिक प्रशासन के कारण थी. उदाहरण के लिए, दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद.

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गांधी, उस समय, 1857 में रानी विक्टोरिया द्वारा दिए गए वादे पर पूरा भरोसा करते थे. '1857 के महान विद्रोह' के बाद, गांधी को भरोसा था कि स्थानीय भारतीय समुदाय और द. अफ्रीका के अश्वेतों को न्याय मिलेगा, अगर इसके लिए संवैधानिक तरीके से मांग की जाए तो. उन दिनों के लिए, यदि कोई भी समाचार पत्र, विज्ञापन या अन्यथा, रंगभेदवादी नटाल सरकार को एक औपनिवेशिक लेख के जरिए नाराज करता है, तो उनके सामने सिर्फ एक ही विकल्प था, वह था अखबार बंद करने का.

इसलिए गांधी सीधे तौर पर श्वेत अधिकारियों को नाराज करना नहीं चाहते थे. बल्कि वह चाहते थे कि उनके संपर्क के जरिए स्थानीय भारतीयों की स्थिति में बेहतरी हो. लिहाजा गांधी और उनके सहकर्मी इसके प्रति सावधान थे. प्राथमिक चिंता यह थी कि अन्याय के खिलाफ भारतीयों की सुरक्षा.

भारतीयों के संदर्भ में इंडियन ओपिनियन का ऐतिहासिक महत्व है. यह इस तथ्य में निहित है कि इसमें दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी औपनिवेशिक शासन के तहत भारतीयों के सामने चुनौतियों का एक मूल्यवान ऐतिहासिक रिकॉर्ड प्रदान करता है. यह भारतीय समुदाय के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन का अमूल्य रिकॉर्ड भी प्रदान करता है.

इसने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के बारे में भेदभावपूर्ण कानून के मामलों की रिपोर्ट, स्थानीय प्रेस के संपादकों को पत्र, भारतीयों के बारे में प्रतिकूल रिपोर्ट को सही करने, भारत में महत्वपूर्ण घटनाओं और सामाजिक, नैतिक और बौद्धिक विषयों पर योगदान सहित समाचार प्रकाशित करना शुरू कर दिया था. इसने नेटल मर्करी जैसे अखबारों की एक वैकल्पिक आवाज का प्रतिनिधित्व किया, जो अक्सर भारतीय हितों के प्रतिकूल थे. लेकिन जल्द ही चीजें बदलनी थीं. अपने राजनीतिक विकास के दौरान गांधी राजनीतिक याचिका से सक्रिय प्रतिरोध की ओर अग्रसर होंगे, उनका समाचार पत्र, इंडियन ओपिनियन भी उसी बदलाव से गुजरा.

इस अखबार के इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण 1904 में आया, जब गांधी ने इसे अपने नए कम्यून में स्थानांतरित कर दिया - फीनिक्स सेटलमेंट में, यह गांधी का पहला आश्रम था. यह डरबन से थोड़ी दूर पर था. लियो टॉल्स्टॉय और जॉन रस्किन के विचारों के प्रभाव के तहत गांधी ने शहर के जीवन के लिए अरुचि विकसित की थी, मैन्युअल श्रम द्वारा सूचित एक सरल, उत्साह और सामुदायिक जीवन जीने के लिए चुना था. फीनिक्स सेटलमेंट में प्रेस के कर्मचारियों को एक नई कार्य नीति द्वारा शासित किया जाने लगा- गांधीवादी नैतिकता-संयुक्त रूप से भारतीय जनमत तैयार करने के लिए.

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इस प्रकार, इस समय से, इंडियन ओपिनियन का इतिहास फीनिक्स, गांधी की पहली सांप्रदायिक बस्ती के साथ जुड़ा हुआ हो जाता है. फीनिक्स में जीवन की लय अखबार के प्रकाशन से प्रभावित होने लगी.

गांधी ने लियो टॉल्स्टॉय, हेनरी डेविड थोरो, जॉन रस्किन और अन्य महान विचारकों के लेखन और विचारों के प्रचार के लिए इंडियन ओपिनियन का उपयोग किया, जिन्होंने अपने स्वयं के विकास और दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के बुनियादी अधिकारों के लिए किए गए संघर्ष को प्रभावित किया था. भारतीय जनमत ने बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों में एक एकजुट भारतीय समुदाय और एक राष्ट्रीय पहचान के विचार को बढ़ावा देकर एक विशेष रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.

इंडियन ओपिनियन ने अपने पाठकों में भेदभाव के खिलाफ संदेश दिया. हिंदू, मुस्लिम, ब्राह्मण या बनिया, तमिल या कलकत्ता...यानि किस क्षेत्र के हैं, यह भाव नहीं आना चाहिए. इंडियन ओपिनियन के कॉलम में भारतीयों द्वारा सामना किए गए कई और विभिन्न कठिनाइयों से निपटने के मामलों से भरे हुए थे और जिनके खिलाफ गांधी लगातार लड़ रहे थे. हर अंक में दो या दो से अधिक संपादकीय होते ते. कुछ छोटी टिप्पणियां होती थीं. भारतीय समुदायों के द्वारा जो दिक्कतें सामने आ रही थीं, उसके बारे में चर्चा की जाती थी. इससे जुड़े साप्ताहिक कॉलम भी छपते थे.

इंडियन ओपिनियन ने विशेष रूप से उन परिस्थितियों को उजागर किया जिनके तहत भारतीय मजदूर काम करते थे. इंडियन ओपिनियन उन मामलों को तुरंत अपने संपादकीय के जरिए सामने लाता था, जहां नियोक्ता अपने मजदूरों के प्रति बुरा व्यवहार करते थे. जहां भी ऐसी घटनाएं होती थीं, अखबार पूरी गंभीरता और ईमानदारी के साथ उसे सामने रखता था. इंडियन ओपिनियन तब आत्महत्या की घटनाओं पर भी रिपोर्ट प्राकशित करने से पीछे नहीं हटता था. उत्पीड़न और शोषण की इस प्रणाली को समाप्त करने के लिए एक विशेष अभियान शुरू किया गया था. इस संदर्भ में एच.एस.एल. पोलक, इंडियन ओपिनियन के तत्कालीन संपादक, ने भारत का दौरा किया था. वह गांधी के मित्र थे.

इस प्रकार, समय के साथ, राजनीतिक सक्रियता पत्रकारिता के साथ-साथ भारतीय जनमत और उसके संपादकों की ओर से एक स्थापित परंपरा बन गई थी. और यह वही था जो 20 वीं सदी के अखबारों से इंडियन ओपिनियन को अलग करने के लिए आया था. इसके सभी संपादकों ने जेल में समय बिताया. यह परंपरा 1906 और 1913 के बीच सत्याग्रह अभियान के दौरान शुरू हुई थी. यह इस उपन्यास अभियान के दौरान अखबार अपने आप में आ गया था. इस समय तक, ब्रिटिश साम्राज्य में न्याय और निष्पक्षता के बारे में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति विश्वास खत्म हो गया था, और अब वह प्रगतिशील रूप से रोगी याचिकाओं की स्थिति से चले गए और दक्षिण अफ्रीका में एक लंबे समय तक विरोध आंदोलन की उग्रवादी चुनौती के प्रति विनम्र अपील की.

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इंडियन ओपिनियन की फाइलों और स्तंभों ने इस बदलाव को विधिवत दर्शाया. इस प्रकार, जबकि 1903–04 में इसका उद्देश्य केवल भारतीय आवश्यकताओं और इच्छाओं के बारे में दक्षिण अफ्रीका में गोरों को शिक्षित करना था, लेकिन 1906 के बाद से, यह राज्य के कानूनों को चुनौती देने के लिए मुख्य वाहन बन गया और जब उन्हें स्पष्ट रूप से पाया गया था तब से ही उनका बचाव करने का आग्रह किया गया था.

छोटे से जगह से प्रकाशित अखबार ने अपनी स्थिति महत्वपूर्ण बना ली. क्योंकि यह गहन रूप से परस्पर जुड़ा हुआ था. धीरे-धीरे कैसे गांधी के अंदर एक जन नेता उभरने लगा था, उस भूमिका में इस अखबार ने बड़ी भूमिका निभाई थी.

इंडियन ओपनियिन की शुरुआत से ही गांधी टॉलस्टॉय, थोरो, रस्किन और इमर्सन और कई अन्य महान विचारकों के लेखन और विचारों से प्रभावित होकर उसका भारतीय जनमत के लिए उपयोग कर रहे थे. द. अफ्रीका में अश्वेतों के अधिकारों के लिए जो संघर्ष किया, उस अनुभव को वह सामने ला रहे थे.

सितंबर 1906 से अखबार संघर्ष और प्रतिरोध की प्रेरणादायक कहानियों को प्रकाशित करके अपने स्वर और दृष्टिकोण में असंदिग्ध रूप से उग्र बन गया था. खुलेआम लोगों से आग्रह करने लगा था कि वे अन्याय और असत्य से लड़ने के लिए बलिदान देने को भी तैयार रहें. गांधी- जिन्होंने 1909 तक जेल में 177 दिन बिताए थे - और वहां आना-जाना शुरू कर दिया था - इंडियन ओपिनियन के पन्नों के माध्यम से उन्होंने अपने जीवन के अनुभवों को साझा करना शुरू कर दिया था. और उन्होंने अपने पाठकों से आग्रह किया कि वे जीवन का नेतृत्व करें, धन के पीछे ना दौड़ें.

दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के सामाजिक-राजनीतिक अधिकारों की वकालत करके इंडियन ओपिनियन की शुरुआत हुई थी, फिर भी यह दक्षिण अफ्रीका में अश्वेतों की आवाज को मुख्य रूप से फोकस कर रहा था. इसने विशेष रूप से 1913 के भूमि अधिनियम के विनाशकारी प्रावधानों और अफ्रीकियों के पारित संघर्षों पर ध्यान केंद्रित किया.

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बहरहाल, अखबार ने इसे अपने लिए चिंता का विषय बना लिया कि अफ्रीकी उपलब्धियों को भी मनाया जाने लगा. 1950 में, विशेष रूप से, गांधी के दूसरे बेटे, मणिलाल गांधी के संपादन के तहत, अखबार अपने सामाजिक-राजनीतिक दायरे में और विकसित हुआ और केवल भारतीयों के अधिकारों के बजाय मानव अधिकारों पर अधिक ध्यान केंद्रित हुआ. इस प्रक्रिया में, यह सत्याग्रह के अर्थ को प्रसारित करने और गांधीवाद के प्रचार के लिए एक केंद्रीय माध्यम बन गया. यह चलन सुशीला गांधी के संपादन के तहत और मजबूत हुआ, जो मणिलाल की मृत्यु के बाद शुरू हुई, और 4 अगस्त 1961 को इंडियन ओपिनियन ने इसका अंतिम अंक प्रकाशित हुआ.

गांधी का यह विचार बिल्कुल सही था कि इंडियन ओपनियिन के बिना सत्याग्रह असंभव होता. गांधी ने इसे प्रमुख माध्यम कहा. इसके जरिए गांधी ने सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक न्याय को लेकर लोगों को प्रेरित किया. औपनिवेशिक, साम्राज्वादी और रंगभेदी नीति का कैसे विरोध हो, इसको लेकर लेख लिखे गए. गांधी एक पत्रकार के रूप में दिखे. इसके जरिए गांधी ने पत्रकारिता के कई मानदंड स्थापित किए.

गांधी ने इंडियन ओपनियिन में ही हिंद स्वराज पुस्तक को प्रकाशित किया था. इसमें उन्होंने आजाद भारत के बारे में अपना दृष्टिकोण रखा था.

इस प्रकार, गांधी ने राजनेता या समाज सुधारक के रूप में मानव जाति के इतिहास पर न केवल एक अमिट छाप छोड़ी, बल्कि एक नैतिक, समर्पित और प्रतिबद्ध पत्रकार और मीडिया व्यक्ति के रूप में भी उल्लेखनीय मानदंड स्थापित किए. पत्रकारिता में उनके द्वारा किए गए महान उद्देश्य मीडिया पेशेवरों और संस्थानों के लिए एक आदर्श हैं. गांधीजी निश्चित रूप से एक पत्रकार थे, लेकिन औरों से बिल्कुल भिन्न थे.

(लेखक- प्रो. समर धालीवाल, डीएवी कॉलेज चंडीगढ़ के पूर्व प्रोफेसर)

आलेख के विचार लेखक के निजी हैं. इनसे ईटीवी भारत का कोई संबंध नहीं है.

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Last Updated : Oct 2, 2019, 1:19 AM IST
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