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विशेष : कोविड 19 के बाद शिक्षा के क्षेत्र में नई चुनौतियां

शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति लाने के लिए कई चरणों की आवश्यकता होगी. ईमानदार निजी स्कूल खोलने के लिए लाइसेंस राज को हटाने की आवश्यकता होगी. भारत की शिक्षा में सुधार के दो उद्देश्य होने चाहिए पहला सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता में सुधार और दूसरा निजी स्कूलों को स्वायत्तता देना. कोविड 19 के बाद के विश्व की तैयारी में भारत को अधिक नवोदित विद्यालयों की आवश्यकता होगी. यह तभी होगा जब हम अपने निजी स्कूलों को अधिक स्वतंत्रता देंगे.

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Published : Jul 9, 2020, 10:25 PM IST

शिक्षा के क्षेत्र में नई चुनौतियां
शिक्षा के क्षेत्र में नई चुनौतियां

हैदराबाद : भारत की शिक्षा प्रणाली कई तरह की गलत धारणओं से ग्रसित है. इन गलत धारणाओं को कोविड 19 के बाद के समय में चुनौती दी जाएगी. पहली गलत धारणा है कि जनता कि भलाई के लिए शिक्षा सरकार द्वारा दी जानी चाहिए इसलिए निजी स्कूलों के संचालन पर सरकार इसलिए नजर रखती है कि वह मुनाफाखोरी न कर सके और दूसरा राज्य सरकार लाइसेंस राज के तहत प्राइवेट स्कूलों को काबू में रख सके.

एक गलत धारणा यह भी है कि विकसित देशों में शिक्षा सिर्फ वहां की सरकार द्वारा दी जाती है जबकि हकीकत यह है कि यूएस, यूके यहां तक कि समाजवादी देश भी निजी शिक्षा को बढ़ावा देते हैं. कई विकसित देशों में शिक्षा का निजीकरण तथा पब्लिक फंडेड मॉडल को बढ़ावा दे रही है.

गलत धारणाओं को बढ़ाते हुए भारत ने सरकारी स्कूलों में भारी निवेश किया है लेकिन इसका परिणाम दयनीय है. अंतरराष्ट्रीय पीआईएसए टेस्ट में 74 देशों ने भाग लिया था, जिसमें भारत के बच्चों ने 73वां स्थान प्राप्त किया. पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे कक्षा दो के अंकगणित के सवाल हल नहीं कर पाए. कुछ राज्यों में दस प्रतिशत से कम शिक्षक टीचर एलिजिबिलिटी टेस्ट पास कर पाते हैं. यूपी और बिहार में तो चार में से तीन शिक्षक कक्षा पांच के प्रतिशत के सवाल हल नहीं कर पाते. एक सामान्य सरकारी स्कूल में चार में से एक टीचर ड्यूटी पर नहीं मिलते और उपस्थित दो में से एक शिक्षक पढ़ाते हुए पाए नहीं गए.

इस दयनीय स्थिति की वजह से 2.4 करोड़ बच्चों ने साल 2010-11 और 2017-18 के बीच सरकारी स्कूल छोड़कर निजी स्कूलों में एडमिशन ले लिया. यहा आंकड़ा सरकार के डीआईएसई डेटा से लिया गया है. आज भारत के 47% बच्चे निजी स्कूल में हैं जिसकी वजह से निजी शिक्षा प्रणाली 12 करोड़ बच्चों के साथ दुनिया के तीसरे स्थान पर हैं. इस प्रणाली में 70 प्रतिशत माता-पिता प्रति माह 1,000 रुपये से कम मासिक शुल्क का भुगतान करते हैं और 45% माता-पिता पांच सौ रुपये से कम का भुगतान करते हैं. इससे यह धारणा भी गलत साबित होती है कि निजी शिक्षा सिर्फ अमीरों के लिए है.

जिस गति से सरकारी स्कूल खाली हो रहे हैं, उसके आधार पर 130,000 से अधिक निजी स्कूलों की आवश्यकता है. निजी स्कूल के बाहर अभिभावकों की लंबी कतार काफी दुखी करती है. देश में अच्छे निजी स्कूलों की कमी के तीन कारण हैं. एक है लाइसेंस राज. यहां एक ईमानदार व्यक्ति के लिए एक स्कूल शुरू करना बहुत मुश्किल है. राज्य के आधार पर 35 से 125 अनुमतियों की आवश्यकता होती है, और प्रत्येक अनुमति के लिए इधर-उधर भागना और रिश्वत देना आवश्यक होता है. अनिवार्यता प्रमाण पत्र पाने के लिए सबसे महंगी रिश्वत देनी पड़ती है. अनिवार्यता प्रमाण पत्र यह साबित करने के लिए होता है कि उस क्षेत्र में एक स्कूल की जरूरत है. इसके अलावा मान्याता प्राप्त करने और पूरी प्रक्रिया में पांच साल लग जाते हैं.

दूसरा कारण वित्तीय है. स्कूल चलाना अब लुभावना नहीं है. निजी शिक्षण संस्थानों के लिए मुसीबत शिक्षा का अधिकार अधिनियम के साथ शुरू हुई, जब सरकार ने निजी स्कूलों को गरीबों के लिए 25% सीटें आरक्षित करने का आदेश दिया. यह एक अच्छा विचार था लेकिन खराब तरीके से हैंडल किया गया. चूंकि राज्य सरकारों ने आरक्षित छात्रों के लिए निजी स्कूलों को ठीक से मुआवजा नहीं दिया इसलिए 75% फीस देने वाले छात्रों की फीस बढ़ाई गई. इसके कारण माता-पिता और स्कूल प्रशासन आमने-सामने आ गए और राज्य सरकारों ने फीस पर नियंत्रण लगा दिया, जिससे धीरे-धीरे स्कूलों की वित्तीय स्थिति कमजोर हो गई. स्कूलों को चलाने के लिए उन्हें किफायती बनाना पड़ा, जिससे गुणवत्ता में गिरावट आई. कुछ स्कूल वास्तव में बंद हो गए हैं.

तीसरा कारण है कि एक ईमानदार व्यक्ति एक स्कूल नहीं खोल सकता. भारतीय कानून निजी स्कूल को लाभ कमाने से मना करता है लेकिन ज्यादातर स्कूल लाभ कमाते हैं. दुनिया की शीर्ष दस अर्थव्यवस्थाओं में से नौ लाभकारी शिक्षा की अनुमति देती हैं. भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जो ऐसा नहीं करता है. इस ढोंग को छोड़ने का उचित समय आ गया है. शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन नुकसान को मुनाफे में बदल सकता है और इस क्षेत्र में क्रांति आ सकती है. शिक्षा के क्षेत्र निवेश बढ़ने से चुनाव और गुणवत्ता को बढ़ावा मिलेगा. स्कूल के प्रिंसिपल को झूठ नहीं बोलना पड़ेगा और न ही चोर कहलाना पड़ेगा. काले धन पर अंकुश लगेगा. जिस तरह से बिजली पानी और इंटरनेट के लिए बिल चुकाते हैं वैसे ही अच्छी गुणवत्ता वाले शिक्षा के लिए अभिभावक पैसे भरेंगे.

शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति लाने के लिए अन्य चरणों की आवश्यकता होगी. ईमानदार निजी स्कूल खोलने के लिए लाइसेंस राज को हटाने की आवश्यकता होगी. भारत की शिक्षा में सुधार के दो उद्देश्य होने चाहिए :

1) सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता में सुधार.

2) निजी स्कूलों को स्वायत्तता देना.

कोविड के बाद के विश्व की तैयारी में भारत को अधिक नवोदित विद्यालयों की आवश्यकता होगी. यह तभी होगा जब हम अपने निजी स्कूलों को अधिक स्वतंत्रता देंगे.

हैदराबाद : भारत की शिक्षा प्रणाली कई तरह की गलत धारणओं से ग्रसित है. इन गलत धारणाओं को कोविड 19 के बाद के समय में चुनौती दी जाएगी. पहली गलत धारणा है कि जनता कि भलाई के लिए शिक्षा सरकार द्वारा दी जानी चाहिए इसलिए निजी स्कूलों के संचालन पर सरकार इसलिए नजर रखती है कि वह मुनाफाखोरी न कर सके और दूसरा राज्य सरकार लाइसेंस राज के तहत प्राइवेट स्कूलों को काबू में रख सके.

एक गलत धारणा यह भी है कि विकसित देशों में शिक्षा सिर्फ वहां की सरकार द्वारा दी जाती है जबकि हकीकत यह है कि यूएस, यूके यहां तक कि समाजवादी देश भी निजी शिक्षा को बढ़ावा देते हैं. कई विकसित देशों में शिक्षा का निजीकरण तथा पब्लिक फंडेड मॉडल को बढ़ावा दे रही है.

गलत धारणाओं को बढ़ाते हुए भारत ने सरकारी स्कूलों में भारी निवेश किया है लेकिन इसका परिणाम दयनीय है. अंतरराष्ट्रीय पीआईएसए टेस्ट में 74 देशों ने भाग लिया था, जिसमें भारत के बच्चों ने 73वां स्थान प्राप्त किया. पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे कक्षा दो के अंकगणित के सवाल हल नहीं कर पाए. कुछ राज्यों में दस प्रतिशत से कम शिक्षक टीचर एलिजिबिलिटी टेस्ट पास कर पाते हैं. यूपी और बिहार में तो चार में से तीन शिक्षक कक्षा पांच के प्रतिशत के सवाल हल नहीं कर पाते. एक सामान्य सरकारी स्कूल में चार में से एक टीचर ड्यूटी पर नहीं मिलते और उपस्थित दो में से एक शिक्षक पढ़ाते हुए पाए नहीं गए.

इस दयनीय स्थिति की वजह से 2.4 करोड़ बच्चों ने साल 2010-11 और 2017-18 के बीच सरकारी स्कूल छोड़कर निजी स्कूलों में एडमिशन ले लिया. यहा आंकड़ा सरकार के डीआईएसई डेटा से लिया गया है. आज भारत के 47% बच्चे निजी स्कूल में हैं जिसकी वजह से निजी शिक्षा प्रणाली 12 करोड़ बच्चों के साथ दुनिया के तीसरे स्थान पर हैं. इस प्रणाली में 70 प्रतिशत माता-पिता प्रति माह 1,000 रुपये से कम मासिक शुल्क का भुगतान करते हैं और 45% माता-पिता पांच सौ रुपये से कम का भुगतान करते हैं. इससे यह धारणा भी गलत साबित होती है कि निजी शिक्षा सिर्फ अमीरों के लिए है.

जिस गति से सरकारी स्कूल खाली हो रहे हैं, उसके आधार पर 130,000 से अधिक निजी स्कूलों की आवश्यकता है. निजी स्कूल के बाहर अभिभावकों की लंबी कतार काफी दुखी करती है. देश में अच्छे निजी स्कूलों की कमी के तीन कारण हैं. एक है लाइसेंस राज. यहां एक ईमानदार व्यक्ति के लिए एक स्कूल शुरू करना बहुत मुश्किल है. राज्य के आधार पर 35 से 125 अनुमतियों की आवश्यकता होती है, और प्रत्येक अनुमति के लिए इधर-उधर भागना और रिश्वत देना आवश्यक होता है. अनिवार्यता प्रमाण पत्र पाने के लिए सबसे महंगी रिश्वत देनी पड़ती है. अनिवार्यता प्रमाण पत्र यह साबित करने के लिए होता है कि उस क्षेत्र में एक स्कूल की जरूरत है. इसके अलावा मान्याता प्राप्त करने और पूरी प्रक्रिया में पांच साल लग जाते हैं.

दूसरा कारण वित्तीय है. स्कूल चलाना अब लुभावना नहीं है. निजी शिक्षण संस्थानों के लिए मुसीबत शिक्षा का अधिकार अधिनियम के साथ शुरू हुई, जब सरकार ने निजी स्कूलों को गरीबों के लिए 25% सीटें आरक्षित करने का आदेश दिया. यह एक अच्छा विचार था लेकिन खराब तरीके से हैंडल किया गया. चूंकि राज्य सरकारों ने आरक्षित छात्रों के लिए निजी स्कूलों को ठीक से मुआवजा नहीं दिया इसलिए 75% फीस देने वाले छात्रों की फीस बढ़ाई गई. इसके कारण माता-पिता और स्कूल प्रशासन आमने-सामने आ गए और राज्य सरकारों ने फीस पर नियंत्रण लगा दिया, जिससे धीरे-धीरे स्कूलों की वित्तीय स्थिति कमजोर हो गई. स्कूलों को चलाने के लिए उन्हें किफायती बनाना पड़ा, जिससे गुणवत्ता में गिरावट आई. कुछ स्कूल वास्तव में बंद हो गए हैं.

तीसरा कारण है कि एक ईमानदार व्यक्ति एक स्कूल नहीं खोल सकता. भारतीय कानून निजी स्कूल को लाभ कमाने से मना करता है लेकिन ज्यादातर स्कूल लाभ कमाते हैं. दुनिया की शीर्ष दस अर्थव्यवस्थाओं में से नौ लाभकारी शिक्षा की अनुमति देती हैं. भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जो ऐसा नहीं करता है. इस ढोंग को छोड़ने का उचित समय आ गया है. शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन नुकसान को मुनाफे में बदल सकता है और इस क्षेत्र में क्रांति आ सकती है. शिक्षा के क्षेत्र निवेश बढ़ने से चुनाव और गुणवत्ता को बढ़ावा मिलेगा. स्कूल के प्रिंसिपल को झूठ नहीं बोलना पड़ेगा और न ही चोर कहलाना पड़ेगा. काले धन पर अंकुश लगेगा. जिस तरह से बिजली पानी और इंटरनेट के लिए बिल चुकाते हैं वैसे ही अच्छी गुणवत्ता वाले शिक्षा के लिए अभिभावक पैसे भरेंगे.

शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति लाने के लिए अन्य चरणों की आवश्यकता होगी. ईमानदार निजी स्कूल खोलने के लिए लाइसेंस राज को हटाने की आवश्यकता होगी. भारत की शिक्षा में सुधार के दो उद्देश्य होने चाहिए :

1) सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता में सुधार.

2) निजी स्कूलों को स्वायत्तता देना.

कोविड के बाद के विश्व की तैयारी में भारत को अधिक नवोदित विद्यालयों की आवश्यकता होगी. यह तभी होगा जब हम अपने निजी स्कूलों को अधिक स्वतंत्रता देंगे.

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