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विशेष लेख :  मुस्लिम भय का बुरा सपना

1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराने के बाद, उत्तर प्रदेश के मुस्लिमों के बीच इस तरह का विरोध देखा गया था. राज्य के 20 जिलों में करीब एक हफ्ते तक विरोध और हिंसक घटनाऐं हुई. एक दर्जन लोगों को अपनी जान से हाथ घोना पड़ा और करोड़ों की संपत्ति का नुकान हुआ. कई जगह पर पुलिस को आंसू गैस और वॉटर कैनन के साथ भीड़ को तितर-बितर करने के लिए गोली भी चलानी पड़ी.

Editorial on muslim hysteria
प्रतीकात्मक फोटो
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Published : Dec 31, 2019, 2:43 PM IST

राज्य के मुस्लिम, 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही शक के साये में जी रहे थे. मुस्लिमों के भय को और हवा तब लगी, जब 2017 के विधानसभा चुनावों में भी बीजेपी ने बहुमत हासिल किया, और हिंदुत्व के कट्टर चेहरे, योगी आदित्यनाथ ने राज्य के मुख्यमंत्री का पद संभाला. इनके जख्मों पर नमक का काम, 2019 में मोदी की और बड़ी जीत ने किया.

इसके बाद, ऐसे फैसलों की झड़ी लगी, जिन्हें मुस्लिम विरोधी करार दिया गया. इनमें तीन तलाक, जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 और 35(ए) को हटाना, गाय बचाने की मुहिम और इससे जुड़े राज्य प्रशासन की सख्ती, और अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला शामिल है. इन सभी ने मुस्लिम मानसिकता में डर बैठाने का काम किया. इस सबको, सीएए और एनआरसी पर विपक्षी दलों की ढिलाई ने और खराब किया.

1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराने के बाद, उत्तर प्रदेश के मुस्लिमों के बीच इस तरह का विरोध देखा गया था. राज्य के 20 जिलों में करीब एक हफ्ते तक विरोध और हिंसक घटनाऐं हुई. एक दर्जन लोगों को अपनी जान से हाथ घोना पड़ा और करोड़ों की संपत्ति का नुकान हुआ. कई जगह पर पुलिस को आंसू गैस और वॉटर कैनन के साथ भीड़ को तितर-बितर करने के लिए गोली भी चलानी पड़ी.

प्रशासनिक उदासीनता और सुझावों की कमी के कारण हालात खराब हो जाते हैं. लखनऊ समेत, राज्य के अन्य शहरों, जैसे कि कानपुर, मेरठ, रामपुर, मुजफ्फरनगर आदि में कई दिनों तक अराजकता का माहौल पसरा रहा. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि दंगाइयों को अपनी निजी संपत्ति से नुकसान की भरपाई करनी होगी, लेकिन जमीन पर अधिकारी हतप्रभ दिखे और भीड़ बेकाबू. पुलिस ने करीब 6,000 लोगों को हिरासत में तो लिया, लेकिन साफतौर पर पुलिस और प्रशासन के पास इससे आगे का कोई प्लान नहीं था. इस सबके बीच पुलिस चौकियों को भीड़ के गुस्से का सामना करना पड़ा.

जम्मू-कश्मीर की ही तर्ज पर, राज्य में प्रशासन ने कई शहरों में हफ्तों के लिए इंटरनेट सेवाऐं बंद कर दी, इसके पीछ क्या कारण था, यह अभी तक साफ नहीं है. इसके कारण नेट बैंकिंग, कार्ड से लेनदेन आदि के न होने से, करीब 1500 करोड़ का नुकसान हुआ. एक बड़े अभियान के जरिए करीब 19,400 सोशल मीडिया पोस्ट को गैरकानूनी करार दिया गया और 93 एफआईआर दर्ज कर 124 लोगों को गिरफ्तार भी कर लिया गया.

पढ़ें-विशेष लेख: इस्लामी नेतृत्व की लड़ाई के बीच फंसा कश्मीर

जानकारों की राय में भीड़ के गुस्से से निपटने में अनुभवी अफसरों की कमी के कारण राज्य में हालात इस कदर खराब हो गए. 1992 के समय भीड़ को काबू में रखने के अपने अनुभव के लिए जाने जाने वाले सभी अधिकारी सेवानिवृत हो चुके हैं और युवा अधिकारियों को इस तरह की कोई खास ट्रेनिंग नही दी गई है. भीड़ को काबू करने में इन दिनों अधिकारियों को वीआईपी मूवमेंट और राजनितिक रैलियों के दौरान ही अनुभव मिल पाता है.

मुस्लिमों के इस बेखौफ गुस्से के पीछे राष्ट्रीय और राज्य के अन्य दलों के द्वारा दिया जा रहा संरक्षण भी कारण है. मुस्लिमों का मानना है कि 2002 और 2012 की समाजवादी सरकार और 2007 की बीएसपी सरकार के बनने में उनका महत्वपूर्ण रोल है. इस कारण से 19.3% की आबादी के साथ वो सत्ता में अपनी हिस्सदारी को मान रहे थे कि तभी बीजेपी ने सत्ता वापसी कर उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया. राज्य के मुस्लिमों की मौजूदा स्थिति को देखते हुए, यह कहना गलत नहीं होगा कि आने वाले दिनों में योगी आदित्यनाथ और राज्य सरकार को, मुस्लिम समाज से और खिलाफत की उम्मीद हो सकती है.

(लेखक - दिलीप अवस्थी)

राज्य के मुस्लिम, 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही शक के साये में जी रहे थे. मुस्लिमों के भय को और हवा तब लगी, जब 2017 के विधानसभा चुनावों में भी बीजेपी ने बहुमत हासिल किया, और हिंदुत्व के कट्टर चेहरे, योगी आदित्यनाथ ने राज्य के मुख्यमंत्री का पद संभाला. इनके जख्मों पर नमक का काम, 2019 में मोदी की और बड़ी जीत ने किया.

इसके बाद, ऐसे फैसलों की झड़ी लगी, जिन्हें मुस्लिम विरोधी करार दिया गया. इनमें तीन तलाक, जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 और 35(ए) को हटाना, गाय बचाने की मुहिम और इससे जुड़े राज्य प्रशासन की सख्ती, और अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला शामिल है. इन सभी ने मुस्लिम मानसिकता में डर बैठाने का काम किया. इस सबको, सीएए और एनआरसी पर विपक्षी दलों की ढिलाई ने और खराब किया.

1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराने के बाद, उत्तर प्रदेश के मुस्लिमों के बीच इस तरह का विरोध देखा गया था. राज्य के 20 जिलों में करीब एक हफ्ते तक विरोध और हिंसक घटनाऐं हुई. एक दर्जन लोगों को अपनी जान से हाथ घोना पड़ा और करोड़ों की संपत्ति का नुकान हुआ. कई जगह पर पुलिस को आंसू गैस और वॉटर कैनन के साथ भीड़ को तितर-बितर करने के लिए गोली भी चलानी पड़ी.

प्रशासनिक उदासीनता और सुझावों की कमी के कारण हालात खराब हो जाते हैं. लखनऊ समेत, राज्य के अन्य शहरों, जैसे कि कानपुर, मेरठ, रामपुर, मुजफ्फरनगर आदि में कई दिनों तक अराजकता का माहौल पसरा रहा. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि दंगाइयों को अपनी निजी संपत्ति से नुकसान की भरपाई करनी होगी, लेकिन जमीन पर अधिकारी हतप्रभ दिखे और भीड़ बेकाबू. पुलिस ने करीब 6,000 लोगों को हिरासत में तो लिया, लेकिन साफतौर पर पुलिस और प्रशासन के पास इससे आगे का कोई प्लान नहीं था. इस सबके बीच पुलिस चौकियों को भीड़ के गुस्से का सामना करना पड़ा.

जम्मू-कश्मीर की ही तर्ज पर, राज्य में प्रशासन ने कई शहरों में हफ्तों के लिए इंटरनेट सेवाऐं बंद कर दी, इसके पीछ क्या कारण था, यह अभी तक साफ नहीं है. इसके कारण नेट बैंकिंग, कार्ड से लेनदेन आदि के न होने से, करीब 1500 करोड़ का नुकसान हुआ. एक बड़े अभियान के जरिए करीब 19,400 सोशल मीडिया पोस्ट को गैरकानूनी करार दिया गया और 93 एफआईआर दर्ज कर 124 लोगों को गिरफ्तार भी कर लिया गया.

पढ़ें-विशेष लेख: इस्लामी नेतृत्व की लड़ाई के बीच फंसा कश्मीर

जानकारों की राय में भीड़ के गुस्से से निपटने में अनुभवी अफसरों की कमी के कारण राज्य में हालात इस कदर खराब हो गए. 1992 के समय भीड़ को काबू में रखने के अपने अनुभव के लिए जाने जाने वाले सभी अधिकारी सेवानिवृत हो चुके हैं और युवा अधिकारियों को इस तरह की कोई खास ट्रेनिंग नही दी गई है. भीड़ को काबू करने में इन दिनों अधिकारियों को वीआईपी मूवमेंट और राजनितिक रैलियों के दौरान ही अनुभव मिल पाता है.

मुस्लिमों के इस बेखौफ गुस्से के पीछे राष्ट्रीय और राज्य के अन्य दलों के द्वारा दिया जा रहा संरक्षण भी कारण है. मुस्लिमों का मानना है कि 2002 और 2012 की समाजवादी सरकार और 2007 की बीएसपी सरकार के बनने में उनका महत्वपूर्ण रोल है. इस कारण से 19.3% की आबादी के साथ वो सत्ता में अपनी हिस्सदारी को मान रहे थे कि तभी बीजेपी ने सत्ता वापसी कर उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया. राज्य के मुस्लिमों की मौजूदा स्थिति को देखते हुए, यह कहना गलत नहीं होगा कि आने वाले दिनों में योगी आदित्यनाथ और राज्य सरकार को, मुस्लिम समाज से और खिलाफत की उम्मीद हो सकती है.

(लेखक - दिलीप अवस्थी)

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विशेष लेख :  मुस्लिम भय का बुरा सपना

नागरिकता बिल को लेकर मु्स्लिम भय उत्तरप्रदेश के लिये किसी बुरे सपने जैसा साबित हुआ. अभी भी, और आने वाले समय में भी, यह राज्य प्रशासन को परेशान करता रेहगा. करीब 27 सालों के बाद, राज्य के मुस्लमानों ने ऐसा आंदोलन किया, जिसके चलते राज्य़भर में कई हिंसक घटनाऐं हुईं.     



राज्य के मुस्लमान, 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही शक के साये में जी रहे थे. मुस्लमानों के भय को और हवा तब लगी, जब 2017 के विधानसभा चुनावों में भी बीजेपी ने बहुमत हासिल किया, और हिंदुत्व के कट्टर चेहरे, योगी आदित्यनाथ ने राज्य के मुख्यमंत्री का पद संभाला. इनके जख्मों पर नमक का काम, 2019 में मोदी की और बड़ी जीत ने किया.



इसके बाद, ऐसे फैसलों की झड़ी लगी, जिन्हें मुस्लिम विरोधी करार दिया गया. इनमें तीन तलाक, जम्मू कश्मीर से आर्टिकल 370 और 35(ए) को हटाना, गाय बचाने की मुहिम और इससे जुड़े राज्य प्रशासन की सख्ती, और अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला शामिल है. इन सभी ने मुस्लिम मानसिकता में डर बैठाने का काम किया. इस सबको, सीएए और एनआरसी पर विपक्षी दलों की ढिलाई ने और खराब किया. 



1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराने के बाद, उत्तरप्रदेश के मुस्लमानों के बीच इस तरह का विरोध देखा गया था. राज्य के 20 जिलों में करीब एक हफ्ते तक विरोध और हिंसक घटनाऐं हुई. एक दर्जन लोगों को अपनी जान से हाथ घोना पड़ा, और करोड़ों की संपत्ति का नुकान हुआ. कई जगह पर पुलिस को आंसू गैस और वॉटर कैनन के साथ भीड़ को तितर-बितर करने के लिये गोली भी चलानी पड़ी.



प्रशासनिक उदासीनता और सुझावों की कमी के कारण हालात खराब हो जाते हैं. लखनऊ समेत, राज्य के अन्य शहरों, जैसे कि, कानपुर, मेरठ, रामपुर, मुजफ्फरनगर आदि में कई दिनों तक अराजक्ता का माहौल पसरा रहा. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि दंगाइयों को अपनी निजी संपत्ति से नुकसान की भरपाई करनी होगी, लेकिन जमीन पर अधिकारी हतप्रभ दिखे और भीड़ बेकाबू.  पुलिस ने करीब 6,000 लोगों को हिरासत में तो लिया, लेकिन साफतौर पर पुलिस और प्रशासन के पास इससे आगे का कोई प्लान नहीं था. इस सबके बीच पुलिस चौकियों को भीड़ के गुस्से का सामना करना पड़ा.   



जम्मू कश्मीर की ही तर्ज पर, राज्य में प्रशासन ने कई शहरों में हफ्तों के लिये इंटरनेट सेवाऐं बंद कर दी, इसके पीछ क्या कारण था, यह अभी तक साफ नहीं है. इसके कारण नेट बैंकिंग, कार्ड से लेनदेन आदि के न होने से, करीब 1500 करोड़ का नुकसान हुआ. एक बड़े अभियान के जरिये करीब 19,400 सोशल मीडिया पोस्ट को गैरकानूनी करार दिया गया और 93 एफआईआर दर्ज कर 124 लोगों को गिरफ्तार भी कर लिया गया.



जानकारों की राय में भीड़ के गुस्से से निपटने में अनुभवी अफसरों की कमी के कारण राज्य में हालात इस कदर खराब हो गये. 1992 के समय भीड़ को काबू में रखने के अपने अनुभव के लिये जाने जाने वाले सभी अधिकारी सेवानिवृत हो चुके हैं और नये युवा अधिकारियों को इस तरह की कोई खास ट्रेनिंग नही दी गई है. भीड़ को काबू करने में इन दिनों अधिकारियों को वीआईपी मूवमेंट और राजनितिक रैलियों के दौरान ही अनुभव मिल पाता है. 



मुसलमानों के इस बेखौफ गुस्से के पीछे राष्ट्रीय और राज्य के अन्य दलों के द्वारा दिया जा रहा संरक्षण भी कारण है. मुस्लमानों का मानना है कि 2002 और 2012 की समाजवादी सरकार और 2007 की बीएसपी सरकार के बनने में उनका महत्वपूर्ण रोल है. इस कारण से 19.3% की आबादी के साथ वो सत्ता में अपनी हिस्सदारी को मान रहे थे, कि तभी बीजेपी ने सत्ता वापसी कर उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया. राज्य के मुस्लमानों की मौजूदा स्थिति को देखते हुए, यह कहना गलत नहीं होगा कि आने वाले दिनों में योगी आदित्यनाथ और राज्य सरकार को, मुस्लिम समाज से और खिलाफत की उम्मीद हो सकती है.

(लेखक - दिलीप अवस्थी) 

 


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