कटिहार: कोरोना त्रासदी ने बड़े-बड़े उद्योगों के साथ कृषि को काफी प्रभावित किया है. बिहार के कटिहार जिले में बड़े पैमाने पर मक्के की खेती की जाती है. लेकिन कोरोना के बाद प्राकृतिक कहर ओलावृष्टि के साथ आंधी बारिश ने किसानों की कमर तोड़ कर रख दी. किसान कोरोना और मौसम की दोहरी मार झेलने को मजबूर है. पहले बारिश के कारण फसल लगभग बर्बाद हो चुकी थी. इसके बाद तैयार फसल को सूखाने के बाद भी किसानों को मायूसी झेलनी पड़ रह रही है.
'मक्के से आती थी किसानों के चेहरे पर मुस्कान'
इसको लेकर किसान रूपेश उरांव और मुश्ताक ने बताया कि यहां के किसान बड़े पैमाने पर मक्के की खेती करते हैं. फसल तैयार होने के बाद उसे दूसरे राज्यों में भेजा जाता था. लेकिन लागू लॉकडाउन के कारण सब बर्बाद हो गया. पहले बारिश-आंधी उसके बाद कोरोना संकट ने हमलोगों की कमर तोड़ कर रख दी. किसानों का कहना है कि बंदी के कारण बाहर से व्यापारी यहां पर नहीं आ सके. इस वजह से वे अपने फसल को स्थानीय व्यापरियों को बेचने को मजबूर है. जो मक्का पिछली बार 14 सौ से 15 सौ रुपये क्विंंटल बेचा करते थे. उसे इस बार 500-600 रुपये क्विंटल बेच रहे है. लागत से भी काफी कम कीमत ऊपर हो रही है.
किसानों ने बताया कि बड़े सपने पाल कर वृहद पैमाने पर मक्के की खेती की थी. फसल देखकर बहुत खुश थे. उम्मीद लगाए थे कि फसल को बेचकर घर बनाएंगे. अपना ट्रैक्टर होगा. लेकिन कोरोना और कुदरत की नाराजगी ने सारे सपने को चकनाचूर कर दिया. इस साल के मेहनत पर पानी फिर गया है. किसानों ने बताया कि यहां हर साल मक्के की फसल से किसानों के चेहरे पर मुस्कान आती थी. लेकिन इस बार कोरोना संकट और बारिश-आंधी ने चेहरे पर मायूसी ला दिया.
'सीमांचल की धरती उगलती है मक्का'
बता दें कि सीमांचल की धरती और वातावरण मक्के की फसल के लिए उपयुक्त मानी जाती है. यहां मक्के की खेती से हरित क्रांति आई है. पूरे बिहार में सिमांचल मक्के की खेती का हब बन चुका है. इस इलाके के लोग बड़े पैमाने पर मक्के की खेती कर रहे हैं. जिले में मक्के की पैदावार अच्छी हो रही है. मक्के की फसल हर साल किसानों के चेहरे पर खुशी लाती थी. लेकिन लॉकडाउन ने मक्का उगाने वाले किसानों के चेहरे से मुस्कान छीन ली है. मांग में कमी और मजदूर नहीं मिलने की वजह से किसान कम रेट पर फसल को बेचने को मजबूर हैं