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मातृ-मृत्यु दर भारत के लिए बड़ी चुनौती - अफ्रीकी

भारत में हाल के दिनों में मातृ मृत्यु की संख्या में उल्लेखनीय कमी एक सकारात्मक परिणाम है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी पिछले 30 वर्षों में इन मौतों में 77 प्रतिशत की कमी लाने के लिए भारत की प्रशंसा की है. 1990 में देशभर में प्रति 1 लाख जन्म पर एमएमआर की औसत संख्या 556 थी. 2017 तक, यह संख्या घटकर 130 हो गई. इसके कई कारण हैं - केंद्र सरकार माँ और बच्चे की देखभाल सेवाओं पर ध्यान केंद्रित कर रही है और उनमें काफी सुधार कर रही है.

मातृ-मृत्यु दर
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Published : Nov 12, 2019, 2:35 PM IST

गरीबी, अशिक्षा और बाल विवाह देश में मातृ एवं शिशु कल्याण के लिए चुनौती बने हुए हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि इन कारकों के कारण, भारत में प्रसव के दौरान मरने वाली माताओं की संख्या विकसित देशों की तुलना में बहुत खतरनाक है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, गर्भावस्था के दौरान गर्भावस्था से संबंधित जटिलताओं, बच्चे के जन्म, या जन्म के 42 दिन बाद माँ की मृत्यु होती है. 2017 में दुनिया भर में, 2.95 लाख मातृ मृत्युएं हुईं थी. अनुमान लगाया गया है कि, भारत में 44,000 महिलाएं गर्भावस्था के दौरान, प्रसव में और जन्म देने के बाद की अवस्था में मर जाती हैं. इनमें से 94 प्रतिशत मौतें गरीब समुदायों में होती हैं.

हालांकि इन मौतों को होने से रोका जा सकता है, मगर स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता की कमी और स्वाथ्य सुविधाओं तक पहुंच की कमी इन मौतों के पीछे मुख्या कारण हैं. मातृ मृत्यु दर उन देशों में कहीं अधिक है जहां सही चिकित्सा देखभाल तक पहुंच की कमी है और आय के स्रोत कम हैं. 2017 में, विकासशील देशों में मृत्यु दर की औसत (मातृ मृत्यु दर-एमएमआर) प्रति 100,000 में 462 मौतों थी. उस ही वर्ष में, विकसित देशों में सिर्फ 11 थी. कम आय वाले देशों में, 45 मौतों में से एक की मौत बच्चे के जन्म के दौरान होती है, जबकि यह दर विकसित देशों में हर 5,400 मौतों में से एक है.

कारण

गरीबी, स्वास्थय सुविधाओं की कमी, स्वास्थ्य के विषय में कम जानकारी, दूरदराज के एजेंसी क्षेत्रों में अस्पतालों तक पहुंच की कमी, अवैज्ञानिक सांस्कृतिक प्रथाओं और विश्वासों से मातृ मृत्यु दर में बढ़ोतरी रही है. लगभग 75% मौतें बच्चे के जन्म के दौरान ज्यादा रक्तस्राव और प्रसवोत्तर संक्रमण के कारण होती हैं. गर्भावस्था के दौरान बढ़ा हुआ रक्तचाप और असुरक्षित तरीकों से गर्भपात भी कारण हैं. मलेरिया का बुखार, दीर्घकालीन रोग, दिल का दौरा और मधुमेह भी माताओं की जान लेने का कारण हैं. गर्भवती होने पर हृदय रोगों वाली महिलाओं को चिकित्सा सलाह लेनी चाहिए. यह अनुमान है कि हर तीन मातृ मृत्यु में से एक दिल का दौरा पड़ने से होती है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पाया है कि कुछ अफ्रीकी देशों और दक्षिण एशियाई देशों में उचित चिकित्सा सुविधाओं की कमी के कारण मातृ मृत्यु की दर सबसे अधिक है. इसके आलोक में, संयुक्त राष्ट्र ने 2030 तक संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों के हिस्से के रूप में एमएमआर को 70 तक कम करने पर सहमति व्यक्त की है. इस प्रयास के अंतर्गत, विश्व स्वास्थ्य संगठन बच्चे और माँ के स्वास्थ्य के प्राथमिक उद्देश्य के साथ, विश्व के देशों की साझेदारी में एक कार्यक्रम शुरू करेगा. मुख्य ध्यान उन चिकित्सा सेवाओं पर केन्द्रित किया जायेगा जिनकी कमी मातृ मृत्यु का कारण बनती हैं. अन्य कारकों पर भी विचार किया जाएगा. दुनिया भर से व्यापक जानकारी एकत्र की जाएगी और प्रभावी समाधान निकालने का प्रयास किया जायेगा. जिम्मेदार देशों को भी जवाबदेह बनाया जाएगा.

इसे भी पढ़ें- कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र : साइबर हमले का खतरा

भारत में हाल के दिनों में मातृ मृत्यु की संख्या में उल्लेखनीय कमी एक सकारात्मक परिणाम है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी पिछले 30 वर्षों में इन मौतों में 77 प्रतिशत की कमी लाने के लिए भारत की प्रशंसा की है. 1990 में देशभर में प्रति 1 लाख जन्म पर एमएमआर की औसत संख्या 556 थी. 2017 तक, यह संख्या घटकर 130 हो गई. इसके कई कारण हैं - केंद्र सरकार माँ और बच्चे की देखभाल सेवाओं पर ध्यान केंद्रित कर रही है और उनमें काफी सुधार कर रही है. 2005 में अस्पताल में जन्म 18 प्रतिशत था. केंद्र और राज्य दोनों सरकारों ने 2016 तक इसे बढ़ाकर 52 प्रतिशत करने के लिए कड़ी मेहनत की है. दूसरी ओर, केंद्रीय योजना 'मातृ-शिशु सुरक्षा कार्यक्रम' सफल रहा है. इस योजना के तहत, अस्पताल में भर्ती गर्भवती महिलाओं को मुफ्त सवास्थ सुविधा प्रदान की जाती है. सरकार द्वारा परिवहन भी प्रदान किया जाता है. सिजेरियन सेक्शन से ज्यादा जितना संभव हो उतना सामान्य प्रसव को प्राथमिकता दी जाती है. प्रधानमंत्री द्वारा संचालित ‘सुरक्षित मातृवत अभियान’ योजना भी लोकप्रिय रही है. इस योजना के तहत, गर्भवती महिला को सरकारी अस्पतालों में सभी आवश्यक सेवाएं प्रदान की जाती हैं. यह अनुमान है कि इन आकर्षक नीतियों के कारण 75 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएँ और 89 प्रतिशत गर्भवती महिलाएँ बच्चे के जन्म के लिए अस्पतालों में जाती हैं.

उत्तर भारत की तुलना में दक्षिणी राज्यों में मातृ मृत्यु का अनुपात कम है. निति अयोग के आंकड़ों के अनुसार, प्रति 100,000 जीवित जन्मों में मरने वालों की संख्या दक्षिणी राज्यों में 93 और उत्तर में 115 थी. 2014-16 तक, यह क्रमशः घटकर 77 और 93 हो गई. राज्य-वार 2016 तक, यह अनुपात आंध्र प्रदेश में 74, तेलंगाना में 81, असम में 237, उत्तर प्रदेश में 201, राजस्थान में 199 और बिहार में 165 था.

लक्ष्य से दूर

सुरक्षा के कार्यक्रमों को लागू करने के बावजूद, विशेषज्ञों का मानना है कि भारत संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य से अभी भी बहुत दूर है. विश्व स्तर पर, मातृ मृत्यु दर 1990 की तुलना में आधे आंकड़ों से नीचे पहुँच गई है. हालांकि, यह कहा जाना चाहिए कि भारत की स्थिति में उतनी तेजी से सुधार नहीं आया है जितनी उम्मीद की जा रही थी. यह दुखद है कि भारत और नाइजीरिया में मातृ मृत्यु की संख्या 2015 में दुनिया में तीसरी सबसे अधिक थी. 2017 के दौरान, जबकि दुनिया भर में प्रसव के दौरान मृत्यु दर 810 थी, यह भारत से 15 से 20 प्रतिशत थी.

यदि महिलाओं शिक्षित होंगी, तो मातृ मृत्यु की संख्या में काफी कमी आ सकती है. भारत में महिला साक्षरता दर बढ़ी है. वर्तमान में इसे 68 प्रतिशत तक पहुंचने का अनुमान है. जबकि 18 वर्ष से पहले शादी करने वालों के अनुपात में काफी गिरावट आई है, देश भर में 27 प्रतिशत महिलाओं की अभी भी निर्धारित उम्र से पहले शादी कर दी जाती हैं. महिलाओं को 18 वर्ष से अधिक उम्र में ही विवाह करने के लिए को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार, गर्भधारण का सबसे अनुकूल समय 20 से 30 वर्ष की उम्र के बीच होता है. गरीब गाँव की पृष्ठभूमि से आने वाले युवाओं में मातृ मृत्यु दर अधिक है.

प्रसव से पहले और बाद में कुशल चिकित्सा कर्मचारियों द्वारा उचित चिकित्सा देखभाल से मातृ और शिशु मृत्यु दर में काफी कमी आ सकती है. गर्भावस्था में विशेषज्ञ द्वारा चिकित्सा पर्यवेक्षण की आवश्यकता होती है. केवल प्रशिक्षित कर्मियों को ही प्रसव कराना चाहिए. डॉक्टर की सलाह के अनुसार दो गर्भधारण के बीच अंतराल को बनाए रखना चाहिए, साथ ही गर्भावस्था के दौरान दवाओं का उपयोग भी करना चाहिए. सरकारों को चाहिए कि वे घर पर प्रसव के खतरों के बारे में लोगों को खबरदार करें.

गरीबी, अशिक्षा और बाल विवाह देश में मातृ एवं शिशु कल्याण के लिए चुनौती बने हुए हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि इन कारकों के कारण, भारत में प्रसव के दौरान मरने वाली माताओं की संख्या विकसित देशों की तुलना में बहुत खतरनाक है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, गर्भावस्था के दौरान गर्भावस्था से संबंधित जटिलताओं, बच्चे के जन्म, या जन्म के 42 दिन बाद माँ की मृत्यु होती है. 2017 में दुनिया भर में, 2.95 लाख मातृ मृत्युएं हुईं थी. अनुमान लगाया गया है कि, भारत में 44,000 महिलाएं गर्भावस्था के दौरान, प्रसव में और जन्म देने के बाद की अवस्था में मर जाती हैं. इनमें से 94 प्रतिशत मौतें गरीब समुदायों में होती हैं.

हालांकि इन मौतों को होने से रोका जा सकता है, मगर स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता की कमी और स्वाथ्य सुविधाओं तक पहुंच की कमी इन मौतों के पीछे मुख्या कारण हैं. मातृ मृत्यु दर उन देशों में कहीं अधिक है जहां सही चिकित्सा देखभाल तक पहुंच की कमी है और आय के स्रोत कम हैं. 2017 में, विकासशील देशों में मृत्यु दर की औसत (मातृ मृत्यु दर-एमएमआर) प्रति 100,000 में 462 मौतों थी. उस ही वर्ष में, विकसित देशों में सिर्फ 11 थी. कम आय वाले देशों में, 45 मौतों में से एक की मौत बच्चे के जन्म के दौरान होती है, जबकि यह दर विकसित देशों में हर 5,400 मौतों में से एक है.

कारण

गरीबी, स्वास्थय सुविधाओं की कमी, स्वास्थ्य के विषय में कम जानकारी, दूरदराज के एजेंसी क्षेत्रों में अस्पतालों तक पहुंच की कमी, अवैज्ञानिक सांस्कृतिक प्रथाओं और विश्वासों से मातृ मृत्यु दर में बढ़ोतरी रही है. लगभग 75% मौतें बच्चे के जन्म के दौरान ज्यादा रक्तस्राव और प्रसवोत्तर संक्रमण के कारण होती हैं. गर्भावस्था के दौरान बढ़ा हुआ रक्तचाप और असुरक्षित तरीकों से गर्भपात भी कारण हैं. मलेरिया का बुखार, दीर्घकालीन रोग, दिल का दौरा और मधुमेह भी माताओं की जान लेने का कारण हैं. गर्भवती होने पर हृदय रोगों वाली महिलाओं को चिकित्सा सलाह लेनी चाहिए. यह अनुमान है कि हर तीन मातृ मृत्यु में से एक दिल का दौरा पड़ने से होती है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पाया है कि कुछ अफ्रीकी देशों और दक्षिण एशियाई देशों में उचित चिकित्सा सुविधाओं की कमी के कारण मातृ मृत्यु की दर सबसे अधिक है. इसके आलोक में, संयुक्त राष्ट्र ने 2030 तक संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों के हिस्से के रूप में एमएमआर को 70 तक कम करने पर सहमति व्यक्त की है. इस प्रयास के अंतर्गत, विश्व स्वास्थ्य संगठन बच्चे और माँ के स्वास्थ्य के प्राथमिक उद्देश्य के साथ, विश्व के देशों की साझेदारी में एक कार्यक्रम शुरू करेगा. मुख्य ध्यान उन चिकित्सा सेवाओं पर केन्द्रित किया जायेगा जिनकी कमी मातृ मृत्यु का कारण बनती हैं. अन्य कारकों पर भी विचार किया जाएगा. दुनिया भर से व्यापक जानकारी एकत्र की जाएगी और प्रभावी समाधान निकालने का प्रयास किया जायेगा. जिम्मेदार देशों को भी जवाबदेह बनाया जाएगा.

इसे भी पढ़ें- कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र : साइबर हमले का खतरा

भारत में हाल के दिनों में मातृ मृत्यु की संख्या में उल्लेखनीय कमी एक सकारात्मक परिणाम है. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी पिछले 30 वर्षों में इन मौतों में 77 प्रतिशत की कमी लाने के लिए भारत की प्रशंसा की है. 1990 में देशभर में प्रति 1 लाख जन्म पर एमएमआर की औसत संख्या 556 थी. 2017 तक, यह संख्या घटकर 130 हो गई. इसके कई कारण हैं - केंद्र सरकार माँ और बच्चे की देखभाल सेवाओं पर ध्यान केंद्रित कर रही है और उनमें काफी सुधार कर रही है. 2005 में अस्पताल में जन्म 18 प्रतिशत था. केंद्र और राज्य दोनों सरकारों ने 2016 तक इसे बढ़ाकर 52 प्रतिशत करने के लिए कड़ी मेहनत की है. दूसरी ओर, केंद्रीय योजना 'मातृ-शिशु सुरक्षा कार्यक्रम' सफल रहा है. इस योजना के तहत, अस्पताल में भर्ती गर्भवती महिलाओं को मुफ्त सवास्थ सुविधा प्रदान की जाती है. सरकार द्वारा परिवहन भी प्रदान किया जाता है. सिजेरियन सेक्शन से ज्यादा जितना संभव हो उतना सामान्य प्रसव को प्राथमिकता दी जाती है. प्रधानमंत्री द्वारा संचालित ‘सुरक्षित मातृवत अभियान’ योजना भी लोकप्रिय रही है. इस योजना के तहत, गर्भवती महिला को सरकारी अस्पतालों में सभी आवश्यक सेवाएं प्रदान की जाती हैं. यह अनुमान है कि इन आकर्षक नीतियों के कारण 75 प्रतिशत ग्रामीण महिलाएँ और 89 प्रतिशत गर्भवती महिलाएँ बच्चे के जन्म के लिए अस्पतालों में जाती हैं.

उत्तर भारत की तुलना में दक्षिणी राज्यों में मातृ मृत्यु का अनुपात कम है. निति अयोग के आंकड़ों के अनुसार, प्रति 100,000 जीवित जन्मों में मरने वालों की संख्या दक्षिणी राज्यों में 93 और उत्तर में 115 थी. 2014-16 तक, यह क्रमशः घटकर 77 और 93 हो गई. राज्य-वार 2016 तक, यह अनुपात आंध्र प्रदेश में 74, तेलंगाना में 81, असम में 237, उत्तर प्रदेश में 201, राजस्थान में 199 और बिहार में 165 था.

लक्ष्य से दूर

सुरक्षा के कार्यक्रमों को लागू करने के बावजूद, विशेषज्ञों का मानना है कि भारत संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्य से अभी भी बहुत दूर है. विश्व स्तर पर, मातृ मृत्यु दर 1990 की तुलना में आधे आंकड़ों से नीचे पहुँच गई है. हालांकि, यह कहा जाना चाहिए कि भारत की स्थिति में उतनी तेजी से सुधार नहीं आया है जितनी उम्मीद की जा रही थी. यह दुखद है कि भारत और नाइजीरिया में मातृ मृत्यु की संख्या 2015 में दुनिया में तीसरी सबसे अधिक थी. 2017 के दौरान, जबकि दुनिया भर में प्रसव के दौरान मृत्यु दर 810 थी, यह भारत से 15 से 20 प्रतिशत थी.

यदि महिलाओं शिक्षित होंगी, तो मातृ मृत्यु की संख्या में काफी कमी आ सकती है. भारत में महिला साक्षरता दर बढ़ी है. वर्तमान में इसे 68 प्रतिशत तक पहुंचने का अनुमान है. जबकि 18 वर्ष से पहले शादी करने वालों के अनुपात में काफी गिरावट आई है, देश भर में 27 प्रतिशत महिलाओं की अभी भी निर्धारित उम्र से पहले शादी कर दी जाती हैं. महिलाओं को 18 वर्ष से अधिक उम्र में ही विवाह करने के लिए को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार, गर्भधारण का सबसे अनुकूल समय 20 से 30 वर्ष की उम्र के बीच होता है. गरीब गाँव की पृष्ठभूमि से आने वाले युवाओं में मातृ मृत्यु दर अधिक है.

प्रसव से पहले और बाद में कुशल चिकित्सा कर्मचारियों द्वारा उचित चिकित्सा देखभाल से मातृ और शिशु मृत्यु दर में काफी कमी आ सकती है. गर्भावस्था में विशेषज्ञ द्वारा चिकित्सा पर्यवेक्षण की आवश्यकता होती है. केवल प्रशिक्षित कर्मियों को ही प्रसव कराना चाहिए. डॉक्टर की सलाह के अनुसार दो गर्भधारण के बीच अंतराल को बनाए रखना चाहिए, साथ ही गर्भावस्था के दौरान दवाओं का उपयोग भी करना चाहिए. सरकारों को चाहिए कि वे घर पर प्रसव के खतरों के बारे में लोगों को खबरदार करें.

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